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वैज्ञानिक अनुसंधान में हम फिसड्डी क्यों

जागरण मेहमान कोना
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प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एक बार फिर यह चिंता जताई है कि भारत विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में चीन से लगातार पिछड़ रहा है। बीते दो दशक में यह स्थिति बदतर हाल में सामने आई है। यह बात प्रधानमंत्री ने अमेरिकी पत्रिका सांइस को दिए साक्षत्कार में कही। यही वह समय है, जब मनमोहन सिंह द्वारा देश में उदारवादी नीतियां अपनाई गई और शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण हुआ। जाहिर है, यही वे नीतियां हैं, जिनके कारण देश विज्ञान के क्षेत्र में तो पिछड़ ही रहा है, आर्थिक विषमता भी बढ़ रही है। ये हालात कालांतर में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति छात्रों की उत्सुकता और गुणवत्ता में गिरावट लाएंगे। देश के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों का मनोबल किस तरह टूट रहा है, यह पिछले दिनों अंतरिक्ष वैज्ञानिक रोड्डम नरसिम्हा के इस्तीफे से साफ हुआ है। नरसिम्हा इसरो के पूर्व वैज्ञानिक प्रमुख जी माधवन नायर और अन्य वैज्ञानिकों को विवादास्पद एंट्रिक्स-देवास सौदे में घसीटे जाने के कारण नाराज थे। उन्होंने खुद इस मामले की जांच की थी और कथित तौर से जिन वैज्ञानिकों को इस सौदे के लिए दोषी ठहराया जा रहा था, उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं पाया था। ऐसे हालात में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत 20 साल पहले की स्थिति बहाल कर लेगा। फिर भी इस स्थिति में बदलाव के लिए जरूरी है कि हम देश के प्रमुख वैज्ञानिकों का सम्मान तो बहाल करें ही, देशज वैज्ञानिक और उनके द्वारा निर्मित उपकरणों की भी कद्र करें।


इस वास्तविकता को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विगत माह भुवनेश्वर में विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में भी स्वीकारा था, लेकिन यह दुखद है कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्या का समाधान वे निजीकरण की कुंजी और शोध-खर्च को बढ़ावा देने में तलाश रहे हैं। जबकि हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को बाजार के हवाले कर दिया गया है और वह गुणवत्ता की पर्याय बनने की बजाए डिग्री हासिल कर किसी भी तरह से वैभवपूर्ण जीवन जीने का पर्याय बनकर रह गई है। ये आधार व्यक्ति के मौलिक चिंतन और शोध की गंभीर भावना का पलीता लगाने वाले हैं। विज्ञान आधुनिक प्रगति की आधारशिला है। नतीजतन जो देश विज्ञान को जितना महत्व देता है, प्रगति के उतने ही सोपानों पर आरूढ़ होता है। 17वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद तो विज्ञान और विकास का रिश्ता समानांतर हो गया, लेकिन इस रिश्ते की समानता कायम रखने में हम पिछड़ते जा रहे हैं और चीन हमसे कहीं ज्यादा आगे निकल गया है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद हमने न केवल आर्थिक विकास पर जोर दिया, बल्कि उन शैक्षिक बुनियादी ढांचों को भी बाजारवाद के हवाले करते चले गए, जो प्रतिभाओं की आंतरिक सोच को परिमार्जित कर परिपक्व बनाते हैं और मौलिक चिंतन को अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराते हैं।


हालांकि प्रधानमंत्री ने इस कमजोर नस को पकड़ा है। वे कहते हैं, अनुसंधान से नई जानकारी मिलती है और हमें समाज के लाभ के लिए इस जानकारी का इस्तेमाल करते हुए नवाचार की जरूरत भी है। हमें नवाचार को व्यावहारिक सार्थकता देनी है ताकि यह सिर्फ शाब्दिक खेल बनकर न रह जाए। शोध कार्यक्रमों का निजीकरण! जाहिर है, परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे हैं। मानव विकास दर में हम 95वें स्थान पर हैं। भूख और कुपोषण हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है और बेराजगारों की फौज में लगातार इजाफा हो रहा है। आर्थिक असमानता की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। आर्थिक और सामाजिक विशेषज्ञों का दावा है कि ये हालात निजीकरण की देन हैं। बावजूद प्रधानमंत्री वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए निजीकरण की राह तलाश रहे हैं। उनके पास शायद सभी मर्ज की एक ही दवा है निजीकरण! इसीलिए उन्होंने पूंजीपतियों को आगाह किया है कि वे वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए आगे आएं। इस नजरिए से प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास पर खर्च होने वाली राशि में बढ़ोतरी की मंशा भी जताई है। 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतिम साल में इसे दोगुना किया जा सकता है। जाहिर है, इसमें ऐसे प्रावधान जरूर किए जाएंगे, जो औद्योगिक घरानों के हित साधने वाले होंगे। तय है, अनुसंधान की बढ़ी राशि इन घरानों को अनुसंधान के बहाने अनुदान में दिए जाने के रास्ते खोल दिए जाएंगे? यदि ये घराने देशज वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने लग जाएं तो कई तकनीकी अविष्कार देश का कायाकल्प करने में कारगर साबित हो सकते हैं।


देशज प्रतिभाओं की अनदेखी फो‌र्ब्स द्वारा जारी देशज आविष्कारकों और अविष्कारों की जानकारी से इस बात की पुष्टि हुई है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय और अकादमिक शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की मजबूरी के चलते परंपरागत ज्ञान आधारित कार्यप्रणाली में कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल ही माना जाता है। यही कारण है कि हम ऐसे शोधों को सर्वथा नकार देते हैं, जो स्थानीय स्तर पर ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती के वैकल्पिक प्रणालियों से जुड़े हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय इन्हीं देशज तकनीकों में अंतनिर्हित हैं। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री के इस कथन को कि नवाचार को व्यावहारिक सार्थकता देनी है, ताकि यह सिर्फ शाब्दिक खेल बनकर न रह जाए चरितार्थ करना है तो फो‌र्ब्स की सूची में दर्ज ग्रमीण आविष्कारकों और आविष्कारों को प्रेरणा का अभिमंत्र मानना होगा। इन वैज्ञानिकों ने आम लोगों की जरूरतों के मुताबिक स्थानीय संसाधनों से सस्ते उपकरण व तकनीकें ईजाद कर समाज व विज्ञान के क्षेत्र में ऐतिहासिक व अतुलनीय काम किया है। इस सूची में दर्ज मनसुख भाई जगनी ने मोटर साइकिल आधारित ट्रैक्टर विकसित किया है, जिसकी कीमत महज 20 हजार रुपए है। इसी क्रम में मनसुख भाई पटेल ने कपास छटाई की मशीन तैयार की है। इसके उपयोग से कपास की खेती की लागत में उल्लेखनीय कमी आई है।


इस मशीन ने भारत के कपास उद्योग में क्त्रांति ला दी है। इसी नाम के तीसरे व्यक्ति मनसुख भाई प्रजापति ने मिट्टी से बना रेफ्रिजरेटर तैयार किया है। यह फ्रिज उन लोगों के लिए वरदान है, जो फ्रिज नहीं खरीद सकते या बिजली की सुविधा से वंचित हैं। इसी तरह मदनलाल कुमावत ने ईधन की कम खपत वाला थ्रेसर विकसित किया है, जो कई फसलों की थ्रेसिंग करने में सक्षम है। लक्ष्मी आसू मशीन के जनक चिंताकिंडी मल्लेश्याम का यह यंत्र बुनकरों के लिए वरदान साबित हो रहा है। यह मशीन एक दिन में छह साडि़यों की डिजाइनिंग करने की दक्षता रखती है। इस लिहाज से जरूरत है, नवाचार के जो भी प्रयोग देश में जहां भी हो रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने की। इन्हीं देशज उपकरणों की मदद से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में तो आत्मनिर्भर हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैं। लेकिन देश के ऐसे होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता दिलाने की राह में प्रमुख रोड़ा है। इसके लिए शिक्षा प्राणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है, क्योंकि हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जबाव करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग और विश्लेषण की छूट की बजाए तथ्यों, आंकड़ों, सूचनाओं और वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की घुट्टी पिलाई जाती है। यह स्थिति वैज्ञानिक चेतना व दृष्टि विकसित करने में एक बड़ी बाधा है। लिहाजा प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक नवाचार के लिए बजट प्रावधान दोगुना करने का जो प्रस्ताव रखा है, उसमें देशज वैज्ञानिकों को भी प्रात्सोहित करने के लिए अनुदान देने की शर्त रख दी जाए तो हम चीन से आगे निकलने का रास्ता आसानी से नाप सकते हैं।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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