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जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर, अबकी बारी, अटल बिहारी, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी, ये बानगी हैं उन कुछेक चुनावी नारों की जो एक दौर में खूब गूंजे थे। इसी तरह से कुछ नारे चुनावों के समय नहीं उछाले गए और चुनावों में लाभ लेने के लिए नहीं थे, लेकिन उनका राष्ट्रीय महत्व रहा जैसे नेहरूजी का नारा- आराम, हराम है और लालबहादुर शास्त्री का नारा जय किसान, जय जवान। ये नारे अब भी प्रासंगिक बने हुए हैं। एक दौर में दीवारों पर लिखे नारे चुनावों का अभिन्न हिस्सा होते थे। रात के वक्त शहर के प्रमुख चौराहों की दीवारों को नए-नए नारों से रंगा जाता था। उन्हें पढ़कर चुनाव का बुखार शहर पर चढ़ता था। पहले पंजाब और फिर उत्तर प्रदेश के करीब दर्जन भर जिलों की खाक छानने के दौरान दीवारों पर लिखी इबारतों को पढ़ने की ख्वाहिश थी। पर कहीं किसी दीवार पर चुनावी रंग चढ़ा हुआ नहीं मिला। चुनाव आयोग की सख्ती के चलते किसी भी दल ने दीवारों को अपने नारे से सुशोभित नहीं किया। यह खल रहा है कि चुनावों से नारे गायब हो जाएं। दीवारों पर पढ़ने को ही नहीं, लाउडस्पीकरों और जनसभाओं में भी दिलचस्प नारे सुनने को नहीं मिल रहे।
श्रीकांत वर्मा ने साल 1984 के लोकसभा चुनावों में नारा दिया था, जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर। यह नारा कांग्रेस के साथ लंबे समय तक चलता रहा। दरअसल, उस दौर में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने वोट हासिल करने के लिए जातीयता का सहारा लेना शुरू किया था, जिससे जातिवादी राजनीति का जहर राजनीतिक फिजां में घुलने लगा। इसे जहर की काट था कांग्रेस का यह नारा। इंदिरा गांधी के निधन के बाद जब राजीव गांधी पहला चुनाव लड़े तो उनकी सभाओं में जुटी भीड़ एक तरफ हाथ उठाती तो दूसरी तरफ यह नारा गूंजता था-उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीवजी के साथ हैं। अमेठी में कांग्रेस की स्टार प्रचारक के तौर पर जब प्रियंका गांधी प्रचार करने पहुंचीं तो वहां के लोगों की जुबां पर बस एक ही नारा था, अमेठी का डंका, बेटी प्रियंका। पाकिस्तान को 1971 की जंग में मात देने के बाद हुए आम चुनावों में विश्र्वास से लबरेज श्रीमती इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ नारा भी खूब चला था। जनता ने इसे खूब पसंद किया था। यह नारा जब आया तब देश समाजवादी मूल्यों को लेकर समर्पित था। इस नारे ने चुनाव में कांग्रेस को खूब फायदा दिलाया। बसपा के इस नारे ने भी काफी धूम मचायी थी- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है। यह नारा ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी काफी लोकप्रिय है। बसपा ने नया नारा दिया, ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा।
आजकल बहुजन समाज पार्टी का नारा है, चढ़ विपक्ष की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर। पर जाहिर तौर पर इसका वह असर देखने को नहीं मिल रहा जो बसपा के पहले के कुछ नारों का हुआ था। भारतीय जनता पार्टी का एक नारा मजबूत नेता, निर्णायक सरकार को भी जनता ने खूब सराहा था। ऐसा नारा पहले भी दिया जा चुका है। 1980 के आम चुनाव में कांग्रेस ने काम करने वाली सरकार का नारा दिया। भाजपा का नारा मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कांग्रेस के नारे की नकल लगता है। सन 1996 के लोकसभा चुनावों के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी के पक्ष में नारे लगे, अबकी बारी अटल बिहारी। सन 2004 में इंडिया शाइनिंग का नारा लगा। पर जनता को वह हजम नहीं हुआ। उस चुनाव में कांग्रेस का नारा था, कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ। नारे पार्टी की विचारधारा को आम जन तक लुभावने अंदाज में पहुंचाने का सरल उपाय हैं। ये चुनाव की रंगत हैं। इनमें पार्टी की भावी योजना और रणनीति दोनों छिपी होती है। इस बार लोग दिलचस्प नारों से वंचित रह गए और चुनाव का रंग फीका रह गया।
लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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