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अरविंद केजरीवाल का आचरण

जागरण मेहमान कोना
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को चुनने के लिए जन जागृति अभियान चला रही टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल का कहना है कि संसद में हत्यारे और बलात्कारी बैठे हैं। अरविंद का कहना है कि लालू, मुलायम और राजा जैसे लोग संसद में बैठकर देश का कानून बना रहे हैं, इनसे संसद को निजात दिलाने की जरूरत है। अरविंद का यह भी कहना है कि सभी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे देश को लूटने के लिए जीत दर्ज करना चाहती हैं। अरविंद केजरीवाल का यह कहना तो ठीक है कि संसद से बुरे तत्वों को निकालने के लिए लड़ाई लड़ी जाएगी, लेकिन सवाल उठता है कि आप संवैधानिक संस्थाओं को चुनौती देकर किस तरह की लड़ाई की बात कर रहे हैं? यह बात ठीक है कि संसद में 163 सांसद ऐसे हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं और वाकई देश की जनता को ऐसे सांसदों को अपना जनप्रतिनिधि चुनने से पहले सौ बार सोचना चाहिए, लेकिन क्या इस संदर्भ में अरविंद केजरीवाल के इस बयान को सही ठहराया जा सकता है कि संसद ही देश की सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है? इसके पहले भी अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे को संसद से ऊपर बताने वाला बयान दे डाला था। क्या कभी भी कोई व्यक्ति फिर चाहे वह अन्ना हजारे जैसी शख्सियत ही क्यों न हो, किसी भी संस्था से ऊपर हो सकता है? देश की संसद हो या राज्यों की विधानसभा या फिर स्थानीय निकाय, जीत कर आने वाले कई सदस्य ऐसे होते हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज होते हैं और वाकई ऐसे लोग देश के विकास में बाधक हैं।


दागी उम्मीदवार के लोकसभा या विधानसभा पहुंचने पर जनता में नाराजगी हो सकती है कि उसकी नुमाइंदगी करने वाला नेता अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी नहीं निभा रहा है, लेकिन कोई शख्स फिर चाहे वह अन्ना हजारे हों या फिर अरविंद केजरीवाल, अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं को ललकारने का काम करेंगे तो जनता उनके साथ खड़ी नजर नहीं आएगी। देश में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं और संवैधानिक संस्थाओं को लेकर लोगों की आस्था बरकरार है। ऐसे में इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की बात की जाए। व्यवस्था में परिवर्तन चंद मुट्ठी भर लोगों से नहीं हो सकता और यह तभी संभव है, जब नए मूल्यों को स्वीकार करने के लिए पूरा देश साथ खड़ा हो। इसमें कोई दो मत नहीं कि लोकपाल बिल के जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे, प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों ने जब आवाज उठाई तो रोजमर्रा की जिंदगी में भ्रष्टाचार से जूझने वाला आम आदमी इस आंदोलन में उनके साथ खड़ा दिखाई दिया। 1974 में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए संपूर्ण आंदोलन के बाद देश की नौजवान पीढ़ी के सामने यह अपनी तरह का अनोखा अनुभव था और उन्होंने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा भी लिया। कुल मिलाकर आजादी के बाद भ्रष्टाचार और महंगाई जैसी समस्याओं से जूझे रहे आम आदमी को इस आंदोलन ने एक उम्मीद जगाई थी, लेकिन देखते ही देखते यह आंदोलन मुद्दे से भटककर व्यक्ति विशेष पर सिमटता दिखाई दिया। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह और गांधीवादी पीवी राजगोपाल जैसे लोगों ने अन्ना के आंदोलन से दूरी बना ली।


राजेंद्र सिंह का कहना था कि अन्ना और अरविंद केजरीवाल तानाशाह हैं और यह आंदोलन दलगत राजनीति की गलत दिशा में जा रहा है। राजेंद्र सिंह का यह भी कहना था कि इन दोनों को समझना चाहिए कि लाखों लोग अन्ना और केजरीवाल के लिए नहीं आए थे, वे देश में भ्रष्टाचार रोकने के लिए जमा हुए थे। आंदोलन से मुद्दे गायब होते गए और तथाकथित अन्ना मंडली से जुड़े लोग खुद के चेहरे चमकाने में ज्यादा लगे रहे। ये वे लोग थे, जिन्हें यह पता था कि मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। अन्ना जैसी शख्सियत की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। रालेगण सिद्धि में उनके योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। बिजली और पानी की कमी से जूझ रहे इस गांव की उन्होंने तस्वीर बदल दी। अन्ना ने गांव के लोगों को नहर बनाने और गड्ढे खोदकर बारिश का पानी जमा करने के लिए न केवल समझाया, बल्कि खुद भी इस काम में उनके साथ खड़े दिखाई दिए। गांव में सौर ऊर्जा से लेकर गोबर गैस के जरिए बिजली आपूर्ति का इंतजाम किया गया।


अन्ना के प्रयासों से रालेगण सिद्धि की तस्वीर बदल गई। महाराष्ट्र में अन्ना के अनशन की वजह से कई बार भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों को अपना पद छोड़ना पड़ा। दरअसल, सवाल अन्ना का नहीं, बल्कि उनकी समूची मंडली का है, जिसने जनता और मीडिया का ध्यान खींचने के लिए कहीं न कहीं अन्ना की मौलिकता को भी खत्म करने की कोशिश की। यह ठीक है कि अन्ना हमेशा सफेद खादी के कपड़े पहनते रहे हैं और सिर पर गांधी टोपी पहनते हैं, लेकिन इस आधार पर अन्ना को पूरी तरह गांधीवादी नहीं कहा जा सकता और न ही अन्ना ने इस आंदोलन के पहले खुद को इस तरह कभी पेश किया। हालांकि आंदोलन के वक्त इसे अन्ना मंडली का प्रबंधन कहा जाए या फिर स्वप्रेरित होकर अन्ना हजारे गांधी टोपी पहनकर राजघाट पर जाकर मौन व्रत धारण करके बैठ गए, लेकिन इन बातों ने आम लोगों का ध्यान जरूर खींचा। सवाल यह उठता है कि अन्ना हों या फिर अन्ना मंडली, इन लोगों को देश की जनता को यह बताना होगा कि क्या वाकई उन्हें गांधीवादी मूल्यों पर भरोसा है? जनमत संग्रह के मसले पर जब अन्ना मंडली के सदस्य प्रशांत भूषण की पिटाई की गई तो अन्ना हजारे ने इसकी निंदा करते हुए यह बयान दिया था कि किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है, लेकिन केंद्रीय मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारने वाली घटना पर खुद अन्ना हजारे का यह बयान आता है कि क्या एक ही थप्पड़ मारा? यह जरूरी नहीं कि गांधी टोपी पहनने वाला कोई भी शख्स पूरी तरह से गांधीवादी मूल्यों का समर्थक हो, लेकिन जनता अन्ना मंडली से यह जानना चाहती है कि समाज में आंदोलन और क्रांति का तरीका गांधीवादी होगा या फिर कोई दूसरे तरीके से देश में बदलाव की बात की जा रही है।


कभी बाबा रामदेव के साथ मिलकर आवाज उठाने वाली टीम अन्ना ने वर्चस्व की लड़ाई के चलते उनसे दूरियां बना ली तो कभी मुंबई में अन्ना के आंदोलन को समर्थन नहीं मिलने के बाद इन लोगों ने एक बार फिर से बाबा रामदेव का समर्थन मांगा। दरअसल, टीम अन्ना के बड़बोलेपन और वर्चस्व की लड़ाई की वजह से देश में भ्रष्टाचार का मसला हाशिए पर आता दिख रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन टीम अन्ना का नहीं, बल्कि देश की जनता का आंदोलन था और इसे जनता का आंदोलन ही बनाए रखना चाहिए था। अन्ना और उनकी मंडली को समझना होगा कि देश की जनता लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करती है। अगर ऐसा नहीं होता तो अब तक नक्सली आंदोलन देश में पूरे चरम पर होता। संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादाओं के दायरे में रहकर अगर देश की राजनीति और समाज में सकारात्मक आंदोलन की बात होगी तो एक बार फिर पूरा देश अन्ना के साथ खड़ा दिखाई देगा।


लेखक डॉ. शिव कुमार राय स्वतंत्र पत्रकार हैं


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