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उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बावजूद धरती पुत्र मुलायम सिंह यादव के पैर धरती पर ही हैं, लेकिन यह कहना कि उनकी हसरतें धरती पर ही हैं, गलत होगा। इसकी वजह है ऐतिहासिक जीत के बाद उनके पैंतरे। अखिलेश को सत्ता मिलने के ऐतिहासिक मौके का गवाह वे उस कांग्रेस को भी बनाना चाहते हैं, जिसके युवा नेता राहुल गांधी अपने उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान में उनकी ही पार्टी को भी कोसते रहे। फिर उन्होंने ममता बनर्जी को भी न्यौता दे डाला, जो अब भी हैं तो कांग्रेस के ही साथ, लेकिन उनका सियासी बर्ताव ऐसा ही होता है, मानो वह कांग्रेस के साथ रहकर एहसान कर रही हों। ममता तो लखनऊ आने को तैयार हो गई थीं, लेकिन कांग्रेस ने गठबंधन धर्म की याद दिलाई तो उन्होंने इरादा बदल लिया। ममता ने भले ही अपना इरादा बदल लिया हो, लेकिन यह तय है कि अंदरखाने में उनका इरादा मजबूत है। भले ही गठबंधन धर्म निभाने की मजबूरी में उन्हें फिलहाल यह राजनीतिक कदम उठाना पड़ा हो। सवाल उठ सकता है कि आखिर अखिलेश की ताजपोशी को सियासत से क्यों नहीं दूर माना जाए। याद कीजिए, वर्ष 2000 के उपचुनाव को। उसी उपचुनाव में अखिलेश यादव मुलायम सिंह की खाली की गई कन्नौज सीट से जीतकर पहली बार लोकसभा में दाखिल हुए थे। तब मुलायम सिंह ने अखिलेश से तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर और सोमनाथ चटर्जी तक के पांव छुआए थे।
वे खुद सोनिया गांधी के पास भले ही नहीं गए, लेकिन तब की नेता प्रतिपक्ष के पास अखिलेश सांसद के तौर पर अपनी पारी शुरू करने के लिए आशीर्वाद जरूर मांगने गए थे। इन अर्थो में यह पूछा जा सकता है कि अखिलेश की ताजपोशी को उन्हीं दिनों की तरह क्यों नहीं देखा जा सकता, लेकिन सच तो यह है कि 2001 के युवा सांसद अखिलेश के राजनीतिक शुभारंभ को 2012 की ताजपोशी के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता। दरअसल, धरती पुत्र यूपी की राजनीति को तो एक हद तक बदलने में न सिर्फ कामयाब हुए हैं, बल्कि उस पर काबू भी कर चुके हैं। अखिलेश की ताजपोशी को सिर्फ उनके राजनीतिक उत्तराधिकार से जोड़कर देखा जा रहा है, लेकिन लोग यह भूल रहे हैं कि उन्होंने कांग्रेस की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार से वह सियासी मौका भी छीन लिया है, जो उनके मुख्यमंत्री बनते ही उन पर हावी होने का बहाना बन सकता था। उन पर आय से अधिक संपत्ति का मामला अदालत में विचाराधीन है। मुलायम इसके चलते बचाव में उतरने के लिए मजबूर रहे हैं, लेकिन अखिलेश अभी पाक-साफ हैं। लिहाजा, उन्हें घेर पाना अब आसान नहीं होगा। मुलायम के अंदर 1996 में प्रधानमंत्री न बन पाने का दर्द आज भी है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत तब गैर-भाजपावाद के बड़े पैरोकार के तौर पर उभरे और सांप्रदायिकता विरोधी शख्सियत मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन शरद यादव के विरोध के चलते मुलायम प्रधानमंत्री नहीं बन सके थे। बहरहाल, मुलायम सिंह यादव जानते हैं कि जो मौजूदा राजनीतिक माहौल है, अगर वैसा ही रहा तो 2014 के लोकसभा चुनाव में न तो संप्रग को बहुमत मिलने वाला है और न ही भाजपा की अगुआई वाले राजग को। ऐसे में तीसरे मोर्चे की संभावना एक बार फिर बन सकती है, क्योंकि राजग से बीजू जनता दल, इनेलो और तृणमूल कांग्रेस अलग हो चुके हैं। राजग को बाहर से समर्थन देते रहे चंद्रबाबू नायडू भी अलग हो ही चुके हैं। मुलायम को लगता है कि अगर समाजवादी विचारधारा के ये दल मिल गए तो 2014 के चुनावों में नया गुल खिल सकता है। वैसे भी महंगाई और केंद्रीय सत्ता में भ्रष्टाचार से जनता भी तंग है।
लिहाजा, जनता का सहयोग उसे मिल सकता है। अगर ऐसी हालत बनती है तो उसमें उसी दल के नेता को अगुआई करने का मौका मिलेगा, जिसके पास सबसे ज्यादा सांसद होंगे। उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक जीत साबित करती है कि अगर ऐसा ही राजनीतिक माहौल रहा तो मुलायम सिंह की सपा के पास 2014 में इतने सांसद जरूर होंगे, जिससे तीसरे मोर्चे में उनकी वकत बनी रहेगी। लिहाजा, वे सधे हुए कदम से राजनीतिक दांव खेलते जा रहे हैं। मुलायम को पता है कि अगर माहौल आज ही जैसा रहा तो वे उसी तरह देश की राजनीतिक धुरी बन सकते हैं, जैसे वे उत्तर प्रदेश की सियासत के इन दिनों प्रमुख केंद्र बने हुए हैं।
लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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