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राजा भैया का साथ जरूरी क्यों!

जागरण मेहमान कोना
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RajKishoreहमारे अधिकांश टिप्पणीकारों को चकित होने की आदत है। वे पहले तारीफ करते हैं, फिर कुछ समय बीतने पर मोहभंग की बात करने लगते हैं। उत्तर प्रदेश के अभी तक सबसे युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ मंत्री पद की शपथ लेने वाली पहली टोली में राजा भैया का नाम भी शामिल किया गया। यह बात उन सभी के कलेजे में सुई की तरह चुभी है जिन्हें लग रहा था कि उत्तर प्रदेश में एक नए सूर्य का उदय हो गया है और अब सभी तरह का अंधेरा मिट जाएगा। दरअसल, ऐसा सोचने वाले पहले से ही सब कुछ अच्छा होने की बात मान कर चल रहे थे या ऐसा मान कर चलने की उनकी तीव्र इच्छा थी कि अखिलेश यादव अपने पिता से बहुत आगे जाएंगे और एक साफ-सुथरी सरकार की नींव रखेंगे, लेकिन पहली ही खेप में राजा भैया के मंत्री बनने की खबर ने इन लोगों को सकते में डाल दिया है। राजा भैया का इतिहास अखिलेश यादव के वर्तमान पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न की तरह है। तत्काल या त्वरित परिवर्तन केवल और केवल कल्पना की चीज है। वास्तव में ऐसा होता नहीं है। राजनीति में तो कतई ऐसा नहीं होता। ऐसा कह कर मैं युवा मुख्यमंत्री के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। जो लोग अखिलेश यादव को अच्छी तरह जानते हैं वे ही उनका सही मूल्यांकन करने के अधिकारी हैं। मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि जब से वह राजनीति में आए हैं यानी समाजवादी पार्टी को चलाने में अपने पिता का हाथ बंटाना शुरू किया है, उन्होंने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह राजनीतिक संस्कृति के मौजूदा चरित्र को बदलने के लिए प्रतिबद्ध या बेचैन हैं।


समाजवादी पार्टी की नीतियों में उन्होंने कुछ परिवर्तन जरूर किया है, लेकिन यह स्वाभाविक ही था। नई पीढ़ी ज्यादा व्यावहारिक है। वह वर्तमान को अपने अनुसार ढालने के बजाय अपने को वर्तमान के अनुसार ढालने में ज्यादा विश्वास करती है। इसलिए जब समाजवादी पार्टी में एक युवा व्यक्तित्व आया तो अंग्रेजी, लैपटॉप, टैबलेट आदि प्रतीक भी सामने आने लग गए। यह युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं का प्रतिबिंब है। राजनीतिक स्तर पर इससे सिर्फ यह सूचना मिलती है कि तमिलनाडु की मतदाता उपहार प्रणाली अब उत्तर भारत में भी आ गई है तथा भविष्य में चुनाव के दौरान मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए सभी दलों को कुछ न कुछ उपहार की घोषणा करनी पड़ेगी। मुलायम सिंह की राजनीति की अक्सर प्रशंसा की जाती है, लेकिन इसके साथ ही यह उल्लेख भी जरूर होता है कि आपराधिक तत्वों को कमजोर और निष्प्रभावी करने की कोशिश उन्होंने नहीं की थी। पिछली बार वह चुनाव हारे थे और लोगों ने मायावती को चुन लिया था तो इसका एक कारण यह भी बताया जाता है। इस बार मायावती के हाथ से सत्ता फिसल जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि उनके कार्यकाल में अराजकता बढ़ी ही, कम नहीं हुई। दस वर्षो के इस संक्षिप्त इतिहास को देखते हुए लोग आशा कर रहे थे कि समाजवादी पार्टी उचित सबक लेगी और अपनी गलतियों को दुहराएगी नहीं, लेकिन कम से कम एक मामले में ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं देता।


अखिलेश यादव को भी राजा भैया की उतनी ही जरूरत है जितनी मुलायम सिंह को थी। दुर्भाग्यवश मामला राजा भैया तक ही सीमित नहीं है। सत्ता में आते ही, समाजवादी पार्टी के कुछ सदस्यों ने अपने-अपने इलाके में अपने बाहुबली चरित्र की झांकी दिखाना शुरू कर दिया। आशंका होती है कि आज जो छोटे पैमाने पर हो रहा है, कल वह बड़े पैमाने पर हो सकता है। इस आशंका का आधार यह है कि अखिलेश सिंह ने मिट्टी को गूंथकर, मथकर कोई नई पार्टी नहीं बनाई है। जरूर उन्होंने कुछ पढ़े-लिखे व्यक्तियों को पार्टी में शामिल किया है और टिकट देने के मामले में कुछ व्यक्तियों का पत्ता काटा है, लेकिन ये सब ऐसी छिटपुट चीजें हैं जिनसे पार्टी के मूलभूत चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता। पार्टी वही है, उसका जातिगत आधार वही है, उसके प्रमुख पात्र भी बदले नहीं हैं और इस सब से संकेत मिलता है कि उसके लक्ष्य भी नहीं बदले हैं। इस दृष्टि से मुलायम सिंह का मुख्यमंत्री बनना ज्यादा स्वाभाविक था। पार्टी के भीतर यह मांग भी थी। ऐसा लगता है कि मुलायम सिंह ने फारुक अब्दुल्ला की तरह रोजाना की राजनीति से रिटायर होने का फैसला कर लिया है। यह एक तरह से अच्छा ही हुआ। बूढ़ी मांसपेशियां एक खास तरह से सोचने की आदी हो चुकी हैं। उनमें लचक कम होती है। युवा होने के नाते अखिलेश पार्टी में नए खून का संचार कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करने में समय लगेगा।


अखिलेश यादव ने जिस ढंग से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार का नेतृत्व किया, वह सराहनीय बताया जाता है। इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि पूर्ण रूप से उन्होंने अपनी सारी प्रतिभा और शक्ति को विधानसभा चुनाव प्रचार में झोंक दिया और पार्टी कार्यकर्ताओं से लेकर उसके नेताओं तक को एक नई जीवनी देने का उत्तरदायित्व बखूबी निभाया। उनके विनम्र और सरल स्वभाव की खूबियों ने भी उन्हें बहुतों का लाडला बनाने में बड़ा सहयोग निभाया है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात यह रही कि उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के फ्लॉप साबित हो जाने से अखिलेश यादव का कद थोड़ा और बढ़ गया। परंतु ध्यान देने की बात यह भी है कि चुनाव प्रचार के दौरान वह एक बनी-बनाई पार्टी को ही अपने कंधों पर उठाए घूम रहे थे। वह किसी नए संगठन की नींव नहीं रख रहे थे। राजा भैया का महत्व यहीं उजागर होता है।


मीडिया में जिन्हें कुंडा का गुंडा तक लिखा जा सकता था, ऐसे राजा भैया एक सच्चाई भी हैं और एक मिथक भी। वह समाजवादी पार्टी के बेहद करीब रहे हैं। उन पर चाहे जितने अपराध करने के आरोप हों, उनके कब्जे से चाहे जितने हथियारों का जखीरा बरामद हुआ हो, अगर वह समाजवादी पार्टी के साथ बंधे नहीं होते तो मायावती सरकार क्या उनके पीछे पड़ती? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है, राजा भैया के खिलाफ जितने भी अभियोग हैं उन सभी के पीछे राजनीतिक दुर्भावना थी। यह कुछ हद तक सच होगा, लेकिन राजा भैया के बारे में जितनी भी जानकारी सार्वजनिक तौर पर सुलभ है, उसके आधार पर इतना दावा तो किया ही जा सकता है कि यह पूरा सच नहीं है।


राजा भैया बहुतों की निगाह में मंत्री बनाए जाने के आदर्श पात्र नहीं होंगे, लेकिन अखिलेश यादव को पार्टी चलानी है, अपनी सत्ता को मजबूत बनाना है, पार्टी और परिवार के अर्थतंत्र की रक्षा करनी है, भविष्य में भी चुनाव जीतना है तो वह अपने परंपरागत व विश्वस्त सहयोगियों और समर्थकों की छाया से मुक्त होने के बारे में कैसे सोच सकते हैं? इसलिए राजा भैया तथा उनके जैसे अनेक लोगों को पार्टी द्वारा जीती गई राजसत्ता में भागीदारी मिलना ही था। इस पर चकित होने की जरूरत नहीं है। हां, अखिलेश यादव से यह निवेदन जरूर किया जा सकता है कि यदि वह सचमुच नया उत्तर प्रदेश बनाना चाहते हैं जिसमें संपन्नता होगी और शालीनता भी तो उन्हें धीरे-धीरे अपनी पार्टी का एक नया सामाजिक आधार बनाना होगा और दागी चरित्रों से मुक्ति पानी होगी। नहीं तो और भी बहुत से छोटे-बड़े राजा भैया उनके स्नेह की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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