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फांसी पर सियासत का सिलसिला

जागरण मेहमान कोना
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सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों उस जनहित याचिका को ठुकरा दिया है, जिसके तहत पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फांसी को उम्रकैद में बदलने का आग्रह किया गया था। राजोआना को जुलाई 2007 में फांसी की सजा सुनाई गई थी और उसे इस 31 मार्च 2012 को फांसी भी दी जानी थी, लेकिन 28 मार्च की शाम को पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से भेंट कर राजोआना की फांसी को माफ करने की अर्जी दे दी, जिसे महामहिम ने (केंद्र सरकार की सहमति से) विचार करने के लिए स्वीकार कर लिया। इस तरह राजोआना की फांसी फिलहाल स्थगित हो गई है। बात दें कि राजोआना ने अपने एक पत्र के जरिये स्पष्ट कर दिया है कि उसे किसी से रहम की जरूरत नहीं है और वह इस बात से भी सहमत नहीं है कि अकाली दल उसे बचाने के लिए किसी तरह का प्रयास करे। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राजोआना की फांसी को लेकर जो सियासत चल रही है, उसे सुप्रीम कोर्ट नाटक समझता है।


फांसी की सजा पा चुके एक अन्य मुजरिम देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी को उम्रकैद में बदलने की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीश जीएस सिंघवी और न्यायाधीश एसजे मुखोपाध्याय ने गत 29 मार्च को इस बात की आलोचना की कि आतंकवाद संबंधी अपराधों में लिप्त पाए गए दोषियों को राजनीतिक समर्थन दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ऐसे उदाहरण बढ़ते जा रहे हैं, जिनमें आतंकी अपराध के दोषियों को राजनीतिक समर्थन दिया जा रहा है। कुछ नेता इसी आधार पर जन समर्थन जुटा रहे हैं। इसलिए वे अपनी आदत को कैसे छोड़ सकते हैं। फांसी पर दोहरा रवैया फांसी एक ऐसा मुद्दा बन गया है, जिसके जरिये वोट की राजनीति की जा सकती है। इसलिए पहले तमिलनाडु की विधानसभा ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी को उम्रकैद में बदलवाने का प्रस्ताव पारित किया और फिर एक विधायक ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी से बचाने का प्रस्ताव लाने का प्रयास किया।


अब अकाली दल अन्य सिख संगठनों से मिलकर बेअंत सिंह के हत्यारे राजोआना को बचाने का प्रयास कर रहा है। यही नहीं, कुछ राजनीतिक दल फांसी को चुनावी मुद्दा बनाने का भी प्रयास कर रहे हैं। मसलन, भाजपा पिछले विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार में विशेष रूप से अफजल गुरु और मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब की फांसी का मुद्दा उठाया। इस समय लगभग 55 मुजरिमों को विभिन्न अदालतें फांसी की सजा सुना चुकी हैं, लेकिन तमाम राजनीतिक पार्टियां वहीं मुद्दा उठाती हैं, जिनसे उन्हें लगता है कि वे अपना वोट बैंक मजबूत कर सकती हैं। इसी राजनीति को मद्देनजर रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दिनों कहा था कि जिन अपराधियों या आतंकियों के पास राजनीतिक समर्थन नहीं होता या वे राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सकते तो उनके लिए कोई सियासी या समाजसेवी संगठन सामने नहीं आता है। उन्हें फांसी से बचाने का प्रयास कोई नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस दोहरे मापदंड की कड़ी आलोचना की है।


दरअसल, फांसी जैसे संवेदनशील मुद्दे पर दोहरे मापदंड बिल्कुल नहीं होने चाहिए। यह दोहरा मापदंड इसलिए है, क्योंकि राष्ट्रपति को फांसी की सजा माफ करके उसे उम्रकैद में बदलने का अधिकार प्राप्त है। अब कुछ की याचिकाओं को स्वीकार कर लिया जाता है और कुछ को रद कर दिया जाता है। होना यह चाहिए कि अगर अदालत ने किसी अपराधी को फांसी की सजा सुनाई है तो उसे किसी भी स्तर पर बदला न जाए। कम से कम जब तक संविधान में फांसी की सजा देने का प्रावधान है। ध्यान रहे कि बलात्कार और हत्या के दोषी धनंजय चटर्जी को कुछ साल पहले फांसी दे दी गई थी, क्योंकि उसे बचाने के लिए कोई राजनीतिक संगठन सामने नहीं आया था। लेकिन इस नियम को उसी सूरत में निष्पक्षता से लागू किया जा सकता है, जब उन लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई हो, जो अपराधियों और आतंकियों को फांसी से बचाने के लिए जनता की भावनाओं को भड़काते हैं, जैसा कि गत 28 मार्च को पंजाब में देखने को मिला। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इस दिन पंजाब में बंद का आह्वान किया था और अपने समर्थकों से आग्रह किया था कि वह पीली पगड़ी बांधें या पीला दुपट्टा ओढ़ें और अपने घरों पर पीले झंडे लगाएं। इस तरह भावनाओं को भड़काने का नतीजा यह हुआ कि गुरुदासपुर में एक 18 वर्षीय छात्र जसपाल सिंह पुलिस फायरिंग का शिकार हो गया और हिंसा पर काबू पाने के लिए पूरे क्षेत्र में कफ्र्यू लगाना पड़ा। सजा-ए-मौत पर बहस इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के तमाम देशों ने फांसी की सजा को पूर्णत: खत्म कर दिया है। उन्हीं देशों की तर्ज पर अपने देश के मानवाधिकार संगठन भी मांग कर रहे हैं कि संविधान में संशोधन करके फांसी की सजा को खत्म किया जाए। इन संगठनों का तर्क है कि अपराधी की बजाए अपराध को समाप्त किया जाए।


इनके अनुसार सजा का उद्देश्य व्यक्ति को सुधारना है, और वह जिंदा रहने पर ही सुधर सकता है तथा अपने अपराधों का प्रायश्चित कर सकता है। जबकि दूसरी ओर यह तर्क दिया जाता है कि सजा का अर्थ केवल अपराधी को सुधारना ही नहीं है, बल्कि अपराधों को रोकना और पीडि़तों को न्याय देना भी है। अगर अपराध के अनुरूप सजा नहीं होगी तो न पीडि़तों को न्याय मिलेगा और न ही अपराध नियंत्रित हो पाएंगे। यह मध्य युग का न्याय है कि आंख के बदले आंख और जान के बदले जान ली जाए। विख्यात दार्शनिक जेएस मिल ने भी कहा था कि सजा अपराध के अनुपात में होनी चाहिए। मिल के अनुसार, अगर सजा अपराध के अनुरूप नहीं होगी तो अपराध बढ़ जाएंगे। बहरहाल, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की लंबित फांसी ने एक बार फिर सजा-ए-मौत की जरूरत और महत्व पर बहस को गरम कर दिया है। इस बहस के चलते हम देख रहे हैं कि कहीं कुछ को फांसी से बचाने का राजनीतिक प्रयास किया जा रहा है तो कुछ को फांसी पर लटकाने के लिए जनता के जज्बात भड़काए जा रहे हैं। यह अच्छी बात है कि न्यायपालिका भीड़ की इस मानसिकता से प्रभावित नहीं हुई है और वह प्रत्येक मामले के तथ्यों को मद्देनजर रखकर ही सजाएं सुना रही है।


राज्य द्वारा जान लेने का अधिकार उन लोगों या संगठनों को भी वैधता प्रदान कर देता है, जो यह समझते हैं कि उचित न्याय देने के लिए वह समानान्तर ट्रैक को जारी रख सकते हैं, जैसा कि संदिग्ध खाप पंचायतों के मामले से स्पष्ट है। फिर यह मुद्दा भी है कि पूरे विश्वास से व्यक्ति के अपराध को साबित नहीं किया जा सकता। ऐसे भी अनेक मामले सामने आए हैं, जिनमें 15-20 साल की सजा काटने के बाद मालूम होता है कि वह व्यक्ति निर्दोष था। मसलन, उत्तर प्रदेश के एक कस्बे में जब उमकैद काटकर एक व्यक्ति लौटा तो जिस व्यक्ति की हत्या के आरोप में उसने सजा काटी थी, वह जिंदा निकला। बहरहाल, मुजरिम को फांसी पर लटकाने के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि ऐसा करने से समाज सुरक्षित रहेगा। लेकिन जो अपराधी जेल में बंद है, वह समाज के लिए कोई खतरा नहीं है। राज्य उसे उसकी अंतिम सांस तक जेल में रख सकता है, लेकिन उसकी जान लेने का कोई औचित्य नहीं है। न्याय व्यवस्था का एक अन्य उद्देश्य अपराधी का सुधार और पुनर्वास भी है।


मृत्युदंड से इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। कई अध्ययनों से मालूम होता है कि मृत्युदंड की तुलना में आजीवन कारावास अधिक कठोर सजा है। अपने देश में रेयरेस्ट ऑफ रेयर अपराध के लिए फांसी की सजा देने का प्रावधान मौजूद है, लेकिन राज्य इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता कि उसने संविधान के जरिये जीवन का अधिकार भी दे रखा है। एक नागरिक की न्यायिक हत्या से उसका यह बुनियादी अधिकार छिन जाता है। हम अपराधी को सजा चाहे जैसे देना चाहें, लेकिन कानून के सहारे जान-बूझकर एक व्यक्ति को फांसी पर लटका देना कानून की शक्ति और सम्मान का ही उल्लंघन करता है। इसलिए अगर राजोआना के केस से फांसी पर यह बहस इस निष्कर्ष पर पहुंच जाती है कि पुर्तगाल की तरह अपने देश में भी सजा-ए-मौत का प्रावधान खत्म हो जाए तो कहा जा सकता है कि इस बहस ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।


लेखक शाहिद ए चौधरी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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