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आसान नहीं सू की की राह

जागरण मेहमान कोना
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अभी यह दावा करना कठिन है कि म्यांमार में हुए 45 सीटों के उपचुनाव में जनतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की भारी विजय से वहां फौजी बूटों की हलचल कम हो जाएगी या लोकतंत्र को पंख फैलाने का मौका मिल जाएगा। वैसे, सैन्य शासकों को सत्ता से उखाड़ फेंकना आसान नहीं होता है। वह भी तब, जब वे पूरी क्रूरता से जनतंत्र का दमन करने पर आमादा हों। म्यांमार में सैन्य शासकों की तानाशाही की जड़ें और भी गहरी हैं। फिर भी यह उपचुनाव म्यांमार और विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। साथ ही 2015 में होने वाले आम चुनावों की बेहतरीन खुशबू की आहट भी। उपचुनाव परिणामों से साफ है कि म्यांमार की जनता अब सैन्य वर्दी के खोल से बाहर निकल लोकतांत्रिक परिवेश में सांस लेना चाहती है। एक ऐसे नए म्यांमार को गढ़ना चाहती है, जिसकी संप्रभुता जनता में निहित हो और लोग राज्य प्रदत्त मौलिक अधिकारों से लैस हों। किंतु उनकी इच्छाओं का सम्मान कितना होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि म्यांमार के वर्तमान सत्ताधारी सैन्य शासकों की मंशा क्या है? क्या वे वाकई में म्यांमार में जनतंत्र को फलते-फूलते देखना चाहते हैं या लोकतंत्र की बहाली के नाम पर जनता की आंख में धूल झोंकना चाहते हैं? कहना मुश्किल है। इसलिए कि इस तरह की चुनावी शोशेबाजी दिखाकर वे पहले भी लोकतंत्र का हरण कर चुके हैं। फिर भी म्यांमार की जनता को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि वह लोकतंत्र की उम्मीद छोड़ने को तैयार नहीं है। सैन्य शासकों के प्रतिबंध के बाद 22 सालों के दरम्यान यह पहला मौका है, जब आंग सान सू की ने उपचुनाव में हिस्सा लिया है। वह 1990 से अपने घर में नजरबंद थी। नवंबर 2010 में उन्हें नजरबंदी से रिहा किया गया।


27 मई, 1990 को हुए आम चुनाव में उनकी पार्टी ने हिस्सा लिया था और तकरीबन अस्सी फीसदी सीटों पर जीत दर्ज की, किंतु सेना ने जनतंत्र के फैसले का सम्मान नहीं किया। सू की को म्यांमार की सत्ता सौंपने के बजाए उन्हें नजरबंद कर दिया। विश्व हैरान रहा कि जब जनादेश का सम्मान ही नहीं करना था तो फिर चुनाव की क्या जरूरत थी। आज विश्व बिरादरी म्यांमार के सैन्य तंत्र के खिलाफ है। उस पर तमाम आर्थिक प्रतिबंध भी लादा है। आंग सान सू की को लोकतंत्र की प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है। विश्व बिरादरी का म्यांमार पर दबाव है कि वह लोकतंत्र की बहाली की दिशा में ठोस कदम उठाए, लेकिन म्यांमार का सैन्य प्रशासन लोकतंत्र के नाम पर छल कर रहा है। विश्व जनमत के दबाव के आगे वह 2010 में लोकतंत्र की बहाली का चुनावी प्रहसन तो खेला, लेकिन उसका सार्थक नतीजा सामने नहीं आया। सूकी ने 2010 के चुनाव का बहिष्कार किया। वजहें साफ थीं। 1990 के चुनावी नतीजे जो उनके पक्ष में आए थे, उसका फौजी वर्दी ने सम्मान नहीं किया था। दूसरे, वह चुनाव में भाग लेती तो निश्चित तौर पर 1990 के जनादेश के सम्मान का उल्लंघन होता। वह पहले ही भांप चुकी थीं कि सैन्य शासन चुनाव में भारी गड़बड़ी कर सकता है। जो अंतत: सच साबित हुआ।


चुनाव में उम्मीदवारों को वोटर लिस्ट तक मुहैया नहीं कराई गई। चुनाव प्रचार और सभाओं पर प्रतिबंध लगाया गया। नतीजा जो सामने आया, वह बिल्कुल ही चौंकाने वाला नहीं रहा। अंतर सिर्फ यह देखने को मिला कि सैन्य प्रशासकों के स्थान पर सेना समर्थित थीन सीन की सरकार अस्तित्व में आ गई। कुल मिलाकर फौजी बूटों की धमक कायम रही। अब जब उपचुनाव का परिणाम आ गया है और लोकतंत्र के पक्ष में बयार बहती दिखने लगी है तो निश्चित रूप से म्यांमार की तस्वीर बदलने की उम्मीद की जा सकती है। हालांकि यक्ष प्रश्न अभी भी जस का तस है। वह यह कि क्या फौजी हुकुमत इस जनादेश का सम्मान करेगी? क्या वह नागरिक अधिकारों के प्रति संवेदनशील होगी? सू की ने इस उपचुनाव को निष्पक्ष और स्वतंत्र न मानते हुए भी उसका बहिष्कार करना मुनासिब नहीं समझा। शायद वह समझ चुकी हैं कि लोकतंत्र की स्थापना के लिए चुनाव में हिस्सेदार बनना और जनता के बीच जाना जरूरी है। हालांकि इस उपचुनाव परिणाम से सत्ताधारी दल की सेहत पर विशेष फर्क पड़ने वाला नहीं है। संसद में अब भी सेना का प्रभुत्व बरकरार है, लेकिन संसद में चालीस से अधिक सीटें जीतने वाली विपक्ष की नेता सू की का हौसला बुलंद है। अब उन्हें पहली बार कानून बनाने में योगदान देने का अवसर मिलेगा। शानदार ऐतिहासिक जीत से अभिभूत सूकी ने उम्मीद जताई है कि यह जीत लंबे समय से दमन का शिकार देश में एक नए युग की शुरुआत होगी।


इस आलेख के लेखक अरविंद कुमार सिंह हैं


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