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सवाल, जो जरदारी छोड़ गए

जागरण मेहमान कोना
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Rahees Singhमुझे जो कल्बी सुकून मिला, उसे में लफ्जों में बयान नहीं कर सकता। दुआ करता हूं कि पूरी इंसानियत को अमन-ओ-चैन मिले। ये शब्द थे पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के, जैसा कि अजमेर में ख्वाजा की दरगाह के खादिम कमालुद्दीन ने मीडिया को बताया। लेकिन भारत तो विभाजन के बाद से ही ऐसी दुआएं लगातार कर कर रहा है, परंतु कबूल नहीं हुई। यही नहीं, भारत हर बार अपने हर सख्त निर्णय से खुद को ही पलटा, ताकि भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे रिश्ते कायम हो सकें। मगर हर बार उसे विश्वासघात का शिकार होना पड़ा। इसका कारण शायद यह रहा कि भारतीय नेतृत्व, कुछ सलाहकारों तथा बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका इस बात पर जोर देता रहा है कि बातचीत होनी चाहिए है, क्योंकि बातचीत से ही रास्ता निकलेगा। यह अलग बात है कि पिछले साढ़े छह दशकों का सच इससे अलग है। ऐसा क्यों हुआ? इसकी वजह क्या रही? अब तो इन प्रश्नों पर गंभीरता से मंथन होना चाहिए। फिर भी अगर बात हो तो किससे हो? पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार के उन नुमाइंदों से, जिनके हाथ में वास्तविक सत्ता नहीं है या फिर पाकिस्तान के उन प्रतिष्ठानों यानी सेना और आइएसआइ से, जिनके इशारे पर सत्ता चलती है और जो भारत को अपना दुश्मन नंबर वन मानते हैं? पाकिस्तान हो या चीन, इनके प्रति भारतीय नेतृत्व बड़ा उदार रहा है। इसलिए वह आसानी से उनकी धमकियों और कारनामों को भुला देता है। यही कारण है कि जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत के लिए भारत आए तो हमारे नेतृत्व ने सियासत के लिए लाल कालीन बिछा ही दी। हालांकि जरदारी जियारत के लिए भारत आने से पहले गिलानी और सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी से मिले। इससे लगता है कि वे कुछ मुद्दों पर खास निर्देशों के साथ ही भारत आए थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि भारत पहुंचकर उन्हें सियासी माहौल में उठने वाले कुछ सवालों के जवाब देने कठिन होंगे। खासकर हाफिज सईद के मामले में।


बहरहाल, जियारत के लिए अजमेर जाने से पहले जरदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बुलावे पर सात रेसकोर्स पहुंचे और उनसे मुलाकात की। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए भोज का लुत्फ उठाने से पहले करीब 40 मिनट तक दोनों के बीच बैठक चली, जिसके बाद मनमोहन सिंह और जरदारी मीडिया के सामने आए और अपनी बात रखी। साझा बयान के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी के साथ तमाम द्विपक्षीय मुद्दों पर दोस्ताना माहौल में बातचीत हुई। मैं बातचीत से संतुष्ट हूं। हमारी बैठक सकारात्मक रही। जरदारी ने मुझे पाकिस्तान जाने का न्योता दिया और मैं सुविधा के मुताबिक पाकिस्तान जाऊंगा। जरदारी ने भी कहा कि वह भारत से बेहतरीन रिश्ते चाहते हैं। भारत और पाकिस्तान का नेतृत्व आपसी संबंध बेहतर चाहता है, लेकिन यह विडंबना ही है कि इस अपेक्षा से जुड़ी सक्रियता में इतनी कम ऊर्जा है कि दोनों के संबंधों पर जमी बर्फ पिघल नहीं पा रही है। यहां पर कुछ अहम सवाल और भी हैं।


मसलन, क्या वास्तव में 40 मिनट की मनमोहन सिंह और जरदारी की वार्ता में समग्र दोस्ताना माहौल निर्मित हो गया और बातचीत सफलता के स्तर तक पहुंच गई? अगर ऐसा है तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देश के सामने यह स्पष्ट करना चाहिए कि किन-किन मुद्दों पर बात हुई और उन पर जरदारी का जवाब क्या था? क्या कश्मीर मसले पर कोई बात हुई? सियाचिन पर क्या हुआ? क्या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन की बढ़ती सक्रियता का मुद्दा उठाया गया? सरक्रीक पर हुई बातचीत का मौजू क्या है? आतंकवाद और खासकर हाफिज सईद के मामले में जरदारी का रुख क्या था..? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनका जवाब हमारे प्रधानमंत्री स्पष्ट रूप से अलग-अलग नहीं दे सकते। एक बात और है। पाकिस्तान में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की जो स्थिति है, वह किसी से छुपी नहीं है। जरदारी मामले में वहां के सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद शायद गिलानी को पद छोड़ना पड़ जाए। क्या उस स्थिति में जरदारी से कोई उम्मीद की जा सकती है? पाकिस्तान में अब भी वास्तविक सत्ता सेना के हाथ में है और सत्ता का असली दिमाग आइएसआइ है, न कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और वहां का मंत्रिमंडल। इस वास्तविकता को समझे बिना हम अगर कोई निष्कर्ष निकाल रहे हैं तो फिर हम या तो कूटनीतिक वाहवाही पाने की महत्वाकांक्षा से कार्य कर रहे हैं या फिर हम अंधेरे में हैं।


मनमोहन-जरदारी बैठक में भारत की तरफ से मुंबई हमले के गुनहगार हाफिज सईद का भी मुद्दा उठाया गया। हाफिज सईद पर अमेरिका द्वारा इनाम घोषित करने के बाद पाकिस्तान पहले से ही दबाव की स्थिति में है, लेकिन पाकिस्तान सरकार की तरफ से जिस तरह के बयान आ रहे हैं और हाफिज सईद को धर्मगुरु करार दिया जा रहा है, उससे जाहिर होता है कि पाकिस्तान इस मसले पर भारत की न तो संवेदनाओं का समझता है और न ही उसका साथ देने वाला है। इसका पहला उदाहरण यही है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी पहले ही पत्रकारों से कह चुके हैं कि हम सईद के मुद्दे पर गंभीर हैं, लेकिन सवाल यह है कि बिना सबूत के उसके खिलाफ कैसे आगे बढ़ा जाए। जबकि भारत पाकिस्तान सरकार को उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत दे चुका है। इस स्थिति में क्या पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का यह बयान ईमानदार माना जा सकता है? भारत में हुए 2003, 2005 और 2008 के आतंकवादी हमलों के लिए लश्करे तैयबा जिम्मेदार है। भारतीय संसद पर हुआ हमला भी लश्कर की ही साजिश का नतीजा था। यही नहीं, 9/11 की घटना के बाद जब पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा तो पाकिस्तान की सरकार ने वर्ष 2002 में लश्कर पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन इसके बाद हाफिज सईद ने लश्करे तैयबा का नाम बदलकर जमात-उद-दावा कर दिया। क्या पाकिस्तान की सरकार को वास्तव में यह नहीं मालूम कि यह वही हाफिज सईद है, जो लश्कर का सरगना था या जमात-उद-दावा लश्कर का ही नया नाम है? जियारत के साथ सियासत के इस अवसर से यह उम्मीद की जा रही है कि भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, लेकिन क्या इस तरह की सियासत के लिए पहली बार अवसर उपलब्ध हो पा रहा है या फिर ऐसा कई बार हो चुका है। अगर ऐसा हुआ है तो उसके परिणाम क्या रहे? जब राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाकात हुई थी तो इससे कई गुना ज्यादा उम्मीदें बंधी थीं, लेकिन क्या हुआ? वर्ष 2005 में भी पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ भारत-पाकिस्तान के बीच हुए क्रिकेट मैच को देखने के बहाने भारत आए थे।


एबटाबाद दोहराना होगा


अब हमें यह समझना होगा कि संबंधों में सुधार केवल इस प्रकार की रवायतों से नहीं होते, सुधार की महत्वाकांक्षा भी होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में यह नहीं है। कुछ देर के लिए यह माना जा सकता है कि पाकिस्तान का लोकतांत्रिक नेतृत्व ऐसा करने की थोड़ी-बहुत इच्छा रखता है और कुछ इच्छा सिविल सोसाइटी की तरफ से भी है, लेकिन क्या सेना भी यह इच्छा रखती है? फिलहाल तो 2008 में हुए आतंकी हमले ने भारत में ऐसे निशान छोड़े हैं, जो मिटने वाले नहीं हैं। खासकर तब, जब मुंबई हमले का असल गुनाहगार पाकिस्तान में खुला घूम रहा हो और हर जलसे में भारत को नेस्तनाबूद करने की कसमें खाता हो। इसलिए हमारे नेतृत्व को इस मसले पर थोड़ा सख्त रवैया अपनाने की जरूरत है। लचीला होना तो ठीक है, लेकिन झुकने की नीति जैसा प्रदर्शन किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है। अक्सर सुना जाता है कि भारत एक महाशक्ति बन रहा है। अगर ऐसा है तो महाशक्ति जैसा आचरण भी होना चाहिए। फिलहाल तो ऐसा लगता है कि जियारत में सियासत दोनों देशों की दोस्ती को आगे बढ़ाने वाले प्रहसन से अधिक नहीं है। इसलिए इससे बेहतर परिणामों की उम्मीद करना बेमानी होगा।


लेखक रहीस सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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