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कानून के शासन में गिरावट के चलते भ्रष्टाचार व अन्य आर्थिक समस्याएं बेलगाम होती देख रहे हैं गुरचरण दास
संप्रग सरकार के मंत्रियों के लिए कुछ सुझाव हैं, जिन्होंने विश्व में भारत की साख को मिट्टी में मिला दिया है। ढाई साल पहले नौ फीसदी की भारत की विकास दर को दिसंबर 11 की तिमाही में 6.1 के स्तर पर लाने के दौरान बहुत कुछ घट गया है। विकास दर में एक प्रतिशत की गिरावट का मतलब है करीब 15 लाख लोगों की रोजगार से छुट्टी। इसमें हैरत की बात नहीं है कि संप्रग सरकार के कार्यकाल में देश ने बेहद तकलीफ और पीड़ा झेली है। भ्रष्टाचार का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है, किंतु असल त्रासदी है कानून के शासन में गिरावट। कभी भारत की ताकत रहा कानून का शासन अब पतन की ओर अग्रसर है। इस सरकार ने वोडाफोन टैक्स मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर कानून के शासन की अवमानना की। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने कानून में बदलाव का फैसला किया।
सरकार ने 1962 के बाद से इस प्रकार के सौदों पर कर लगाना तय किया। इस साल के बजट में केयर्न कंपनी को पेट्रोलियम पदार्थो पर प्रति टन 90 डॉलर कर चुकाने का फैसला भी उतना ही अनुचित था, जबकि अन्य निजी कंपनियां महज 18 डॉलर प्रति टन कर ही दे रही हैं। इसी प्रकार कुछ कंपनियों को पहले पर्यावरण की अनुमति दे दिए जाने के बाद अब उनके मामले दोबारा खोल दिए गए, किंतु जब एक दशक के प्रयोगों के बाद बीटी बैंगन विकसित करने वाली महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कंपनी को लाइसेंस देने से मना कर दिया गया तो विश्व वैज्ञानिक समुदाय हताश-निराश हो गया। यह कंपनी विभिन्न स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा किए जाने वाले पर्यावरण संबंधी 25 अध्ययनों पर खरी उतरी है। इसके अलावा खेतों में दो विश्वविद्यालयों द्वारा किए गए सघन प्रयोगों और सरकार के तमाम मानकों पर कंपनी खरी उतरी है। इनके अलावा नॉर्वे की कंपनी टेलीनॉर के प्रति पूरे विश्व में सहानुभूति है, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का शिकार हो गई है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में भ्रष्ट तरीके से लाइसेंस जारी करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने उस दौरान के तमाम लाइसेंसों को रद कर दिया था, जबकि टेलीनॉर के तस्वीर में आने से पहले ही भ्रष्टाचार हो चुका था। पहले तो टेलीनॉर ने एक संयुक्त उपक्रम में शेयर खरीदे और फिर बाजार में 12 हजार करोड़ रुपये झोंक दिए।
बाद की घटनाओं से यह इतनी परेशान हुई कि उसने अंतरराष्ट्रीय पंचाट के माध्यम से भारत सरकार पर 70 हजार करोड़ रुपये का दावा ठोंक दिया। एक सभ्य समाज में नागरिक सरकार से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह उनके जीवन की अस्थिरता पर अंकुश लगाएगी। इसके लिए सशक्त कानून के शासन की आवश्यकता पड़ती है। एक उद्यमी के जीवन में अनिश्चितता भर गई है। इसीलिए भारत में चार में से तीन उद्यमियों के धंधे विफल हो रहे हैं, किंतु भारत में सबसे बड़ा खतरा सरकार की तरफ से ही खड़ा किया जा है। प्रमुख कारण यह है कि कानून का शासन कमजोर पड़ गया है और यह शासकों की मनमानी पर अंकुश नहीं लगा पा रहा है। भ्रष्टाचार कमजोरी का लक्षण है। नागरिक अपने जीवन में अनिश्चितता घटाने के लिए सरकार पर निर्भर होते हैं। राज्य कानून के शासन के दम पर इसे लागू करता है, किंतु वर्तमान भारत सरकार इसे लागू करने में कामयाब नहीं हो रही है। इसीलिए चार में से तीन व्यापारी विफल हो जाते हैं। दरअसल, संप्रग सरकार अनिश्चितता को घटाने के बजाए खुद ही अनिश्चय का प्रमुख श्चोत है। इसके अहंकारी मंत्रियों ने कानून के शासन को कमजोर कर दिया है। परिणामस्वरूप घोटालों का सिलसिला सामने है। जब कानून का शासन मजबूत होता है तो भ्रष्टाचार पैदा नहीं होता। कुछ लोग सोचते हैं कि यह तो होना ही है। वे कहते हैं कि कानून का शासन तो एक आयातित विचार है, जो ब्रिटिश राज के साथ-साथ यहां पहुंचा।
विदेशी धन की सरपरस्ती में खेल!
अंग्रेजों के जाने के बाद यह फलने-फूलने लगा। जब ए. राजा और सुरेश कलमाडी जैसे मंत्री-अधिकारी यह सोचने लगें कि वे कानून के शासन के ऊपर हैं तो कानून का शासन ध्वस्त हो जाता है। कानून का शासन एक नैतिक अवधारणा है और इसे आदत के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। एक सफल लोकतंत्र नैतिक मतैक्य पर निर्भर करता है, जहां लोग कानून के शासन का पालन दंड के भयवश नहीं करते, बल्कि इसलिए करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि यह न्यायोचित है। जल्द ही यह एक आदत के रूप में विकसित हो जाती है। भारत में हमेशा से कानून के शासन को धर्म के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है, जिसका सीधा-सीधा संबंध जनजीवन से है। इसी कारण भारत के संविधान के रचियता अपने भाषणों में अकसर धर्म शब्द का इस्तेमाल करते थे। महान विद्वान पीवी काणे, जिन्हें भारत रत्न से भी नवाजा गया है, संविधान को धर्म शास्त्र कहा करते थे। कानून के शासन की जड़ें धर्म में हैं। पश्चिम में यह ईसाइयत में उभरा। आधुनिक यूरोपीय राष्ट्रों के गठन से काफी पहले पोप ग्रेगरी प्रथम ने विवाह और उत्तराधिकार संबंधी कानून बनाए थे। चर्च ने पुराने जस्टिनियन नियमों की भी खोज की, जो आधुनिक यूरोप के नागरिक कानूनों का आधार बने। फ्रेडरिक मेटलैंड का कहना है कि कानून के शासन की उच्च वैधानिकता इसलिए है, क्योंकि यह धर्म से पैदा हुआ है।
धर्म का जन्म पंथ (रिलिजन) से हुआ है। यह आज की पंथनिरपेक्ष नागरिक डयूटी का मानक बन गया है। इसमें कुछ चौंकाने वाले उदार तत्व भी हैं। प्राचीन काल में धर्म में राष्ट्र की शक्ति निहित थी, जैसे राजधर्म। धर्म राष्ट्र से भी ऊंचा था। इसे संप्रभुता की संप्रभुता भी कहा जाता था। शास्त्रों में यह भी लिखा है कि शासक संप्रभु नहीं है, धर्म है। संप्रग सरकार के कुछ मंत्री इस विचार पर विमर्श करें तो उनका भला होगा। इस्लामी सभ्यता का मूल तत्व भी कानून का शासन ही है। यह न्याय का परम श्चोत है और इसने राजनीतिक शासकों का कई बार विरोध भी किया है, किंतु मुस्लिम और हिंदू सभ्यताएं आधुनिकता को आत्मसात नहीं कर पाईं। इसका एक कारण यह है कि इन्हें धर्म और राष्ट्र के बीच स्वायत्तता हासिल नहीं हुई। इसी कारण साम्राज्यवादी शासन ने भारत और मुस्लिम राष्ट्र को विभाजन को मजबूर कर दिया। शासक के धर्म से निर्देशित होने का विचार आज भी भारतीय जनमानस में मौजूद है। इसका श्रेय हमारी सभ्यता की असाधारण निरंतरता को जाता है। परंपरागतता और आधुनिकता के मेल से भारतीय जनमानस से विलुप्त हो रहे नैतिक मूल्यों को कायम रखने में मदद मिलेगी। इससे आधुनिक कानून का शासन लागू होने के साथ-साथ भारत के लोकतंत्र को भी पुनर्जीवन मिलेगा।
लेखक गुरचरण दास प्रख्यात स्तंभकार हैं
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