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वैश्विक अर्थव्यवस्था के असंतुलन को दूर करने में ब्रिक्स देशों की भूमिका रेखांकित कर रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला
विश्व की पांच उभरती अर्थव्यवस्थाओं- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने ब्रिक्स नाम से संगठन बनाया है। इस संगठन का शिखर सम्मेलन हाल में दिल्ली में हुआ था। तय किया गया कि पांचों देशों के केंद्रीय बैंक दूसरे सदस्य देशों की मुद्रा में सीधे लेन-देन करेंगे। वर्तमान में इनके बीच व्यापार डॉलर अथवा यूरो के माध्यम से किया जाता है। मसलन भारत को ब्राजील को पेमेंट करना हो तो पहले रुपये बेचकर डॉलर खरीदे जाते हैं, उसके बाद डॉलर बेचकर ब्राजीली रियाल खरीदे जाते हैं। इस प्रक्रिया में दो बार मुद्रा परिवर्तन का कमीशन लगता है और इन देशों को अनायास ही भारी मात्रा में अपने खाते में डॉलर खरीदना पड़ता है। यह दो बार का लेन-देन मुख्यत: लंदन या न्यूयॉर्क में किया जाता है। यही कारण है कि इन शहरों को विश्व की आर्थिक राजधानी का दर्जा मिला हुआ है। अब ब्रिक्स देशों के केंद्रीय बैंक सीधे दूसरे देशों की मुद्रा में खरीद-बेच करेंगे। यह सीधा लेन-देन वैकल्पिक विश्व मुद्रा स्थापित कर सकता है। ब्रिक्स देशों के नेताओं को इस निर्णय के लिए साधुवाद। दूसरा निर्णय लिया गया कि विश्व बैंक की तर्ज पर ये देश अपना बैंक बनाएंगे। ज्ञात हो कि विश्व बैंक के शेयर की अधिकतर हिस्सेदारी अमेरिका और इंगलैंड जैसे विकसित देशों के पास है, जबकि ऋण विकासशील देशों को दिए जाते हैं। जाहिर है कि विश्व बैंक उन नीतियों को बढ़ाएगा जिनसे विकसित देशों के हित सिद्ध हों।
दुकानदार वही माल बेचता है जिसमें मार्जिन अधिक मिलता है। दुकानदार का कथित उद्देश्य ग्राहक को सस्ता माल उपलब्ध कराना होता है, परंतु मूल उद्देश्य लाभ कमाना होता है। इसी प्रकार विश्व बैंक का कथित उद्देश्य विकासशील देशों में गरीबी उन्मूलन है, जबकि मूल उद्देश्य विकसित देशों की कंपनियों को विकासशील देशों में प्रवेश कराकर उनके संसाधनों को चूसना है। अत: अपना बैंक बनाना सही दिशा में एक कदम है। ब्रिक्स देशों के इस मंतव्य पर विकसित देश चिढ़ रहे हैं। विश्व बैंक के अमेरिकी अध्यक्ष राबर्ट जोलिक ने कहा कि ब्रिक्स देशों के लिए इस बैंक को स्थापित करना कठिन होगा। न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी इस मंतव्य की भर्त्सना की है। इन विरोधों के बावजूद ब्रिक्स देशों को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सम्मेलन में कहा कि उद्यमियों के बीच आपसी मेलजोल को बढ़ाना चाहिए। यह कदम भी सही दिशा में है। आज के दिन पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास पूंजी, तकनीक तथा प्रबंधन की बेजोड़ क्षमता उपलब्ध है, जिसके सामने विकासशील देशों की कंपनियों को टिकने में कठिनाई हो रही है।
ब्रिक्स देशों के उद्यमी यदि एक साथ हो जाएं तो पश्चिमी कंपनियों का सामना करना आसान हो जाएगा। जैसे भारत की प्रबंधन क्षमता, ब्राजील की तकनीक और चीन की पूंजी के सामने पश्चिमी देशों का खड़ा रहना मुश्किल हो जाएगा। उपरोक्त बिंदुओं पर मनमोहन सिंह के विचार सही दिशा में हैं, परंतु दूसरे बिंदुओं पर उनके विचार नकारात्मक दिखते हैं। उनका वक्तव्य है, हमें टिकाऊ और संतुलित वैश्विक विकास को बढ़ाना चाहिए। हमें मिलकर यूरोप को मदद करनी चाहिए, जिससे वैश्विक विकास बढ़ सके। उन्होंने यह भी कहा कि हमें राजनीतिक अस्थिरता से बचना चाहिए, जिसके कारण वैश्विक तेल बाजार में उतार-चढ़ाव होता है। मनमोहन सिंह संतुलन की मांग कर रहे हैं। सच यह है कि वर्तमान अर्थव्यवस्था असंतुलित है। विकसित देशों के 25 प्रतिशत लोग विश्व के 75 प्रतिशत संसाधनों की खपत कर रहे हैं। जरूरत इस असंतुलन को तोड़ने की है। बीमार व्यक्ति को पेनकिलर देकर संतुलन बनाए रखने से रोग बढ़ता है। सर्जरी करने पर ही रोग ठीक होता है। इसी प्रकार वर्तमान असंतुलित विश्व अर्थव्यवस्था में संतुलन बनाए रखने से यह असंतुलन बढ़ेगा। टेढ़ी लकड़ी को सीधा करने के लिए उसे दूसरी तरफ मोड़ना पड़ता है। टेढ़ी लकड़ी को केवल सीधा करने से वह सीधी नहीं होती है। इसी तरह असंतुलन को तोड़ने के लिए विकासशील देशों के पक्ष में नया असंतुलन बनाना होगा।
संतुलन का अर्थ होगा कि असंतुलन जारी रहे। विश्व अर्थव्यवस्था की वर्तमान विसंगति को ठीक करने के लिए कुछ समय के लिए अस्थिरता जरूरी है। जैसे बंधुआ मजदूर पर से जमींदार का संरक्षण हटा लिया जाए तो कुछ समय के लिए वह अस्थिर हो जाता है। उसे स्वयं रोजगार ढूंढ़ना होता है इत्यादि। इस असंतुलन का स्वागत करना चाहिए। मनमोहन सिंह ने विश्व व्यापार संगठन की दोहा चक्र की वार्ता को आगे बढ़ाने की वकालत की है। इस वार्ता में विकसित देशों की मांग है कि उनके माल को कम कस्टम ड्यूटी पर विकासशील देश में प्रवेश दिया जाए। विश्व व्यापार की मूल विसंगतियों पर चर्चा नहीं हो रही है। पहली विसंगति पेटेंट कानून की है। इस कानून के कारण विकसित देश भारी कमाई कर रहे हैं। दूसरी विसंगति श्रमिकों के आवागमन पर रोक की है। मनमोहन सिंह को मांग करनी चाहिए कि दोहा चक्र को निरस्त करके नए चक्र को शुरू किया जाए जिसमें प्रमुख बिंदु पेटेंट और श्रमिकों का आवागमन हो। मनमोहन सिंह ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि विकासशील देशों को पूंजी चाहिए, विशेषकर बुनियादी सेवाओं में निवेश के लिए। ब्रिक्स देशों के लिए हितकारी है कि माल तथा पूंजी के आवागमन में अवरोधों को हटाएं।
मनमोहन सिंह आज भी विदेशी पूंजी के पीछे पड़े हैं। समस्या है कि आज विकासशील देश पूंजी निर्यातक बन चुके हैं। जितनी पूंजी हमें विदेशी निवेश के रूप में मिल रही है उससे ज्यादा पूंजी हमारे द्वारा दूसरे देशों में विदेशी निवेश तथा विदेशी मुद्रा भंडार बनाने के लिए बाहर भेजी जा रही है। इंग्लैंड और अमेरिका हमारी पूंजी पर आश्रित हैं। अपने व्यापार घाटे की पूर्ति के लिए अमेरिका द्वारा चीन आदि विकासशील देशों से भारी ऋण लिया जा रहा है। यदि मनमोहन सिंह को पूंजी का अभाव दिखता है तो उन्हें विकासशील देशों से हो रहे पूंजी के पलायन को रोकने की बात उठानी चाहिए। जहां तक बुनियादी संरचना में निवेश की बात है तो इसके लिए घरेलू नौकरशाही की मनमानी एवं राजनीतिक भ्रष्टाचार पर रोक लगाना चाहिए। घरेलू कुशासन को बनाए रखते हुए विदेशी पूंजी को न्योता देने का अर्थ होगा इस कुशासन को बढ़ावा देना। दुनिया बदल चुकी है। विकसित देशों का जहाज डूब रहा है। अपनी नाव को उनके जहाज से बांध कर अपनी नाव अनायास ही नहीं डुबानी चाहिए।
लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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