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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कुछ निजी वस्तुएं लंदन के बाजार में नीलाम होंगी, ऐसी खबरें पिछले कुछ हफ्तों से टेलीविजन और अखबारों में प्रसारित व प्रकाशित हो रही थीं। इस नीलामी को रोकने के लिए कुछ लोग सरकार से गुहार लगा रहे थे। उनका तर्क था कि विदेशों में इस तरह की नीलामी गांधीजी का खुल्लमखुल्ला अपमान है। उनकी यह चिंता वाजिब थी, लेकिन हिंदुस्तान में गांधी जी के नाम पर सियासत करने वाले लोग और उनके अनुयायी पूरी तरह खोमोश थे। हालांकि गिरिराज किशोर जैसे चंद गांधीवादियों ने इस नीलामी को रोकने का अनुरोध भारत सरकार से किया भी, लेकिन उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद गांधीजी की निजी वस्तुओं को एक लाख पाउंड यानी लगभग 81 लाख रुपये में नीलाम कर दिया गया। इस नीलामी में महात्मा गांधी से जुड़ी कुल 29 चीजों को नीलाम किया गया, जिसमें उनके खून से सनी मिट्टी, उनका चश्मा और चरखा प्रमुख थे। लंदन में नीलामी का बाजार सजा, काफी संख्या में ग्राहक भी आए और तिजारत का पूरा खेल कुछ हजार पाउंड में सिमट गया। देखा जाए तो नई दिल्ली की हुकूमत के लिए यह मामूली रकम थी। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकार वाकई नीलामी रोकने में मजबूर थी? वास्तव में कई लोगों को यह बात गले नहीं उतर रहा। उनका मानना है कि अगर सरकार ने इस मसले पर संजीदगी दिखाई होती तो आज महात्मा गांधी की अनमोल धरोहर देश के किसी संग्रहालय में सुरक्षित रहती और बापू का मान बरकरार रहता, लेकिन हमारी निकम्मी सरकार ऐसा नहीं कर पाई। वह इस मामले में क्यों उदासीन बनी रही, यह समझ से परे नहीं है, क्योंकि देश की आम जनता अब यह समझ चुकी है कि इस देश में महानायकों की विरासत संभाल पाने की क्षमता सरकार में नहीं है। मौजूदा दौर में बाजार का दखल काफी बढ़ चुका है। इसके प्रभाव से कोई नहीं बच पाया है। यही वजह है कि आज न मूल्य बचा है और न ही संस्कृति व राष्ट्रीय धरोहर महफूज रह पाई है।
आज बाजार आवारा पूंजी के सहारे हर चीज की कीमत तय कर चुका है। बावजूद इसके कुछ स्वाभिमानी देश हैं, जिन्होंने अपना स्वाभिमान बरकरार रखा है, लेकिन अफसोस इस बात का है कि स्वाभिमानी देशों की फेहरिस्त में हमारा हिंदुस्तान कहीं नजर नहीं आता। एक तरफ आइपीएल में क्रिकेट खिलाडि़यों को मुंहबोली कीमत पर औद्योगिक घरानों के लोग खरीदकर खेल के नाम पर तमाशा दिखा रहे हैं। भारतीय क्रिकेट में आइपीएल असल में हमारे लिए शर्मनाक है, क्योंकि यहां खेल भावना नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। हिंदुस्तान के लोग तरक्की कर रहे हैं। पैसे बना रहे हैं। इस तरह की बातें खूब कही जाती हैं, लेकिन हमारा स्वाभिमान मरता जा रहा है, इसका कोई इल्म हमें नहीं रह गया है। क्योंकि अगर यहां के लोगों के पास थोड़ी भी गैरत होती तो लंदन की मंडी में महात्मा गांधी से जुड़ी राष्ट्रीय धरोहर को बाजार के हवाले नहीं कर दिया जाता। गांधीजी के खून से सनी मिट्टी, चश्मा और चरखा बिक गये तो बिक गए, ऐसे में कुछ समझदार यह कहेंगे कि थी तो आखिर वह पुरानी चीज ही न। आखिर हम हिंदुस्तानी हैं, जब हम पुरानी कार, बाइक, फ्रिज आदि बेचकर उसके बदले नई चीजें खरीद सकते हैं तो हमें काहे का कोई मोह। ऐसी सोच रखने वालों की तादात आज ज्यादा है।
आखिर वे लोग अपनी सोच बदलें भी तो क्यों? बाजार से भी उन्हें किस बात की शिकायत, क्योंकि जिरह आगे बढ़ने पर वह यह जरूर कह सकते हैं कि भारत काफी पहले से दुनिया के बाजार में आकर्षण का केंद्र रहा है। चाहे वह गुलामी के दिनों की बात हो या गुलामी के बाद की स्थिति। इन 64 सालों में अंतर सिर्फ इतना आया कि अब हम बाजार के अभिन्न अंग बन गए हैं और इस बाजार में हर चीज बिकाऊ है। आज बाजार के पैरोकारों के लिए गांधी शब्द केवल फैशन है, उससे अधिक कुछ नहीं। जिस गांधी ने आजादी के दिनों में कहा था कि दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। आज उसी महात्मा के देश में अंग्रेजी और अंग्रेजीयत की दलाली चल रही है। दरअसल, जब नेतृत्व करने का रास्ता ही दलाली से होकर गुजरता है और ऐसे में दलालों के लिए भला गांधीजी की क्या उपयोगिता। सिर्फ देश की मुद्रा पर गांधीजी की तस्वीरें छापने, सड़कों और सार्वजनिक भवनों के नाम उनके नाम पर करना ही उस महात्मा के लिए सच्ची श्रद्धांजलि नहीं है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि कांग्रेस की सरकार इस परिपाटी को बढ़ावा देने का काम कर रही है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रासंगिकता भले ही भारत में जमीनी हकीकत नहीं बन पाई हो, लेकिन वैश्विक जगत उनके आदर्शो और मूल्यों को समझने लगा है। गांधीजी से जुड़ी चीजों की नीलामी कराने वाली संस्था मुलॉक्स का कहना है कि ये चीजें जल्द ही भारत लौट जाएंगी। मुलॉक्स के इस दावे में कितनी सच्चाई है, यह कोई नहीं जानता, क्योंकि मुलॉक्स के इस दावे पर इस बात से संदेह प्रकट होता है कि नीलामी के बाद अभी तक गांधीजी की वस्तुएं खरीदने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया गया। आखिर इस रहस्य का मतलब क्या है? दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पार्टी महासचिव राहुल गांधी देश में गांधी के नाम पर राजनीति तो कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने इस नीलामी को रोकने के लिए कोई पहल नहीं की। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या कांग्रेस ओर नेहरू परिवार के लिए गांधी का नाम सिर्फ वोट पाने का साधन बनकर रह गया है।
गौरतलब है कि दुनिया में लोग पुरानी वस्तुओं को भविष्य के निवेश के तौर पर खरीदने लगे हैं। विशेष रूप से पश्चिमी देशों में यह चलन तेजी से बढ़ा है। इस तरह का एक बड़ा बाजार है, जो ऐतिहासिक वस्तुओं की नीलामी के दौरान सक्रिय रहता है। हमारे मुल्क में सिर्फ गांधी ही नहीं, बल्कि कई ऐसे युगपुरुष हुए हैं, जिनकी उपेक्षा किसी न किसी तरह देश में या देश के बाहर हो रही है। अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि अफगानिस्तान में उपेक्षित पड़ी है। उनकी समाधि को ससम्मान भारत लाकर उसे स्थापित करने की मांग कई बार संसद में भी उठ चुकी है, लेकिन सरकार ने इस पर कोई पहल नहीं की है। ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान से उनकी समाधि लाने में कोई विशेष अड़चन है। फिर भी सरकार खामोश है। उसी तरह यंगून में भारत के अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की कब्र भी उपेक्षित है। जैसा कि सभी जानते हैं, जफर की अंतिम इच्छा थी कि मरने के बाद उन्हें हिंदुस्तान की मिट्टी में ही सुपुर्द-ए-खाक किया जाए। ताज्जुब की बात है कि जिन नायकों के बारे में हमारे बच्चे इतिहास की किताबों में पढ़कर गर्व महसूस करते हैं, लेकिन जब उन्हें यह एहसास होता है कि उनकी निशानी आज बदहाली की शिकार हैं तो उनकी गर्दन शर्म से झुक जाती है।
लेखक अभिषेक रंजन सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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