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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब सिविल सर्विस दिवस पर नौकरशाहों को सजा के डर से फैसले लेने में कोताही नहीं बरतने की सीख दे रहे थे, लगभग उसी समय नक्सली छत्तीसगढ़ के नवसृजित जिले सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन के अपहरण की रूप-रेखा तैयार कर रहे थे। कहते हैं कि एलेक्स पॉल भी अपने मातहतों को यही कहते रहे हैं कि नक्सलियों के भय से या उसके बहाने कभी भी काम में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। इस घटना के एक ही दिन पहले बीजापुर के विधायक महेश गागड़ा और कलेक्टर रजत कुमार बारूदी सुरंग विस्फोट में बाल-बाल बचे थे, जबकि भाजपा के दो स्थानीय नेता और एक वाहन चालक शहीद हो गए थे। खबर के अनुसार इन लोगों के अपहरण की भी साजिश रची गई थी। अभी छत्तीसगढ़ से लगे ओडिशा में अपहृत किए गए दो इतालवी पर्यटकों को भारी कीमत चुकाकर मुक्त कराया गया है, जबकि वहीं बीजू जनता दल (बीजद) के एक आदिवासी विधायक झिन्न हिक्का अब भी नक्सलियों के चंगुल में ही हैं। जाहिर है, सौदेबाजी चल ही रही होगी। स्थिति इतनी विकराल है कि पिछले चार सालों में ही माओवादियों ने ऐसे 1500 से अधिक लोगों का अपहरण किया और इनमें से 328 को मौत के घाट उतार दिया है यानी माओवादी सामस्या से निपटने में एक बड़ी चुनौती नक्सलियों द्वारा बंधक बनाए जाने के इस तरीकों से निपटना भी है।
महंगी पड़ती ढिलाई हैरत की बात तो यह है कि केंद्र द्वारा विगत 16 अप्रैल को आंतरिक सुरक्षा पर बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में ऐसे हालात से निपटने के तरीकों के बारे में चर्चा तक करना जरूरी नहीं समझा गया। पूरी बैठक से मोटे तौर पर यही निष्कर्ष निकला कि केंद्र सरकार जहां राज्यों के अधिकार हड़प लेना चाहती है, वहीं गैरकांग्रेसी राज्य अपने अधिकार को बचाने के लिए एक हो गए हैं। ऐसा लगा जैसे वह आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों पर बैठक नहीं हो रही है, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों पर कोई सेमिनार हो रही हो। एजेंडा में शामिल 10 मुद्दों में से केवल एनसीटीसी का मुद्दा ही पूरे बैठक में हावी रहा, जबकि वह बैठक विधायक समेत दो विदेशी नागरिकों के हुए अपहरण के सिलसिले में ही हो रही थी। बैठक आंतरिक सुरक्षा के संकट पर हो रही थी, न कि केवल एनसीटीसी पर। तो हर बार कोई घटना हो जाने पर ऐसा ही लगता है मानो हम आग लग जाने पर कुआं खोदने निकले हों। पूर्व की कोई तैयारी न होने के कारण अंतत: हर बार नक्सलियों की ऐसी मांगों को मानना पड़ता है, जो बाद में काफी महंगी साबित हो जाया करती हैं। कम से कम अब नीति निर्धारकों से यह उम्मीद करना उचित होगा कि बंधक समस्या के संबंध में एक बाध्यकारी और सर्व-स्वीकार्य नीति बनाई जाए। इस नीति में हो यह सकता है कि सबसे पहले सरकार यह घोषित कर दे कि किसी भी हालत में अपहरणकर्ताओं से कोई बात नहीं की जाएगी।
साथ ही परिस्थिति कितनी भी विषम क्यों न हो, किसी भी कीमत पर और किसी भी रूप में कोई फिरौती नहीं दी जाएगी। जब भी आतंकी या अपराधियों द्वारा किए गए किसी भी अपहरण की खबर मिलेगी, बिना किसी नुकसान की परवाह किए सीध आक्रमण किया जाएगा। एक नजर में भले ही यह नीति जरूरत से ज्यादा कड़ी लगे, लेकिन परिस्थितियां जिस तरह की होती जा रही हैं, वहां सॉफ्ट स्टेट बनकर ऐसे संकटों का सामना नहीं किया जा सकता है। कल देर न हो जाए लोकतंत्र में कोई भी सरकार जनता को नाराज नहीं करना चाहती। यह उचित भी है, लेकिन कई बार तो यह तुष्टिकरण की हद तक चला जाता है। यह सही है कि अपने परिजनों को खोना या खोने की आशंका भी कितना त्रासद होती है। इसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है, लेकिन जैसा कि हाल ही में गृहसचिव ने कहा, वह जले पर नमक छिड़कने जैसा है। गृहसचिव का कहना था, लाख आतंकी कार्रवाइयों के बावजूद आज भी आतंकी हमलों में हताहत लोगों से ज्यादा सड़क दुर्घटनाओं में जानें जाती हैं। ईश्वर करे सुकमा के कलेक्टर और ओडिशा के विधायक नक्सलियों के चंगुल से सकुशल वापस लौट आएं। केंद्र समेत सभी संबंधित सरकारों की एकमात्र प्राथमिकता यही होनी भी चाहिए और है भी, लेकिन इस प्रकरण के निपटारे के फौरन बाद केंद्र को चाहिए कि आगामी 5 मई को फिर आंतरिक सुरक्षा पर आयोजित बैठक में बिना किसी भेदभाव के भविष्य में बंधक संबंधी मामलों से कैसे निपटा जाए, इस पर मतैक्य स्थापित करें।
अगर संभव हो तो यथाशीघ्र कानून बनाकर फिर उसी आधार पर लोकमत के निर्माण के लिए पहल करें। इस मामले में अभी सही समय है। कल को काफी देर हो जाएगी। राज्य सरकारों द्वारा की जा रही लगातार कारवाई, आंध्र प्रदेश में आजाद से लेकर झारखंड में किशनजी तक बड़े-बड़े नक्सलियों के मारे जाने, छत्तीसगढ़ में कुछ मास्टरमाइंड के गिरफ्तार होने और उन्हें सजा मिलने के बाद ऐसा लगता है कि नक्सल गिरोहों की हालत अभी लौटती हुई सेना जैसी है। तो ऐसे बिखरे गिरोह ज्यादा खतरनाक होते हैं। सबल नीति जरूरी बंधकों को छुड़ाने के लिए अनिवार्य बातचीत के अलावा इनसे किसी भी तरह की बातचीत निष्फल ही साबित होनी है। जाहिर है, माओवादियों से किसी भी तरह की बातचीत करने का हमेशा यही मतलब निकलता है कि हम इन्हें एक पक्ष के रूप में मान्यता दे रहे हैं, जबकि सीधे तौर पर देश-दुनिया को यह संदेश देने की जरूरत है कि नक्सली हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं और इनसे हमें उसी तरह निपटना है, जैसे बाहरी दुश्मनों से निपटा जाता है।
समाज के मुख्यधारा में शामिल होने का विकल्प एक कल्याणकारी राज्य में भले हर वक्त खुला रखना चाहिए, लेकिन साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि ऐसा न करने वाले समूहों से सीधे आर-पार की लड़ाई लड़ी जाए। सरकारों को एक बार यह तय कर लेना ही होगा कि हालात चाहे कैसे भी हों, हम किसी भी कीमत पर इस तरह अपने लोकतंत्र को ब्लैकमेल बिल्कुल नहीं होने देंगे। ध्यान रखें, केवल तात्कालिक संकट से पार पा लेना ही अपेक्षित नहीं है, बल्कि आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़े संकट के रूप में चिह्नित किए गए माओवाद को सख्ती से कुचलने के लिए दीर्घकाल की सुस्पष्ट और सबल नीति की जरूरत ज्यादा है।
लेखक पंकज झा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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