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एक बालिका वधू की दास्तां

जागरण मेहमान कोना
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हमारे देश में हर साल अक्षय तृतीया यानी तीज के दिन हजारों नाबालिग लड़कियां शादी के मंडप में पहुंचा दी जाती हैं। इन लड़कियों के मां-बाप उनकी मर्जी को जाने बिना उन्हें जबरन शादी के बंधन में बांध देते हैं। कई मामलों में इसकी सजा ये लड़कियां पूरी उम्र भुगतने को बाध्य होती हैं। बाल विवाह न केवल उनकी जिंदगी के लिए अभिशाप बन जाता है, बल्कि हमारे समाज के माथे पर भी कलंक का धब्बा लगा जाता है। बाल विवाह का एक ऐसा ही दर्दनाक मामला हाल के दिनों में मध्य प्रदेश के अनूप पुर जिले से सुनने को मिला है। अनूप पुर जिले की रत्ना राशि का विवाह उसके मां-बाप ने 14 साल की कच्ची उम्र में कर दिया। बहरहाल रत्ना राशि ने अपने बाल विवाह की वजह से आगे की जिंदगी में क्या-क्या झेला, इसे शब्दों में बयां करना नामुमकिन है। यह अलग बात है कि आज भी वह अपने मां-बाप द्वारा किए उस जुर्म की सजा भुगत रही है जो कि उसने किया ही नहीं। रत्ना राशि का विवाह जिस शख्स से हुआ बाद में वह दिमागी तौर पर बीमार निकला। हालांकि वह परिवार चलाने के लायक नहीं था, बावजूद इसके बाद भी रत्ना ने उसके साथ रहने का फैसला किया। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलने के बाद भी वह अपने पति के साथ 13 साल तक दांपत्य जीवन को निभाती रही और वह भी बिना किसी शिकायत के। इस दौरान उसने न केवल अपनी पढ़ाई पूरी की, बल्कि अपना घर चलाने के लिए एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी कर ली।


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तमाम आर्थिक परेशानियों के बाद भी पति ठीक हो जाए इसलिए उसका हरसंभव इलाज करवाया, लेकिन लाख कोशिशें के बाद भी स्थिति में कोई भी सुधार नहीं आया। जब 13 साल बाद भी हालात नहीं सुधरे तो उसने अपने पति से तलाक लेना ही बेहतर समझा। तलाक के बाद रत्ना राशि पर खुद अपने और अपने दो छोटे बच्चों के भरण-पोषण की पूरी जिम्मेदारी आ गई। मानसिक तौर पर बीमार पति से कोई गुजारा भत्ता न मिलने की वजह से उसकी राह और भी दुश्वार थी। बावजूद इसके उसने हिम्मत नहीं हारी। उसके सामने अब न सिर्फ खुद की बाकी बची जिंदगी थी, बल्कि दो बच्चों को पालने और उनके भविष्य का सवाल भी सामने था। स्कूल की नौकरी करते हुए रत्ना राशि वर्ष 2008 में मध्य प्रदेश लोकसेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा में बैठी। जिसमें वह उत्तीर्ण होने में सफल रही। मगर जिंदगी के इम्तिहान अभी बाकी थे। समस्या तब और भी गंभीर हो गई, जब राज्य लोकसेवा आयोग ने मुख्य परीक्षा के उसके फॉर्म को इस आधार पर खारिज कर दिया, क्योंकि उसकी शादी 18 साल से कम उम्र में हुई थी। लिहाजा वह इस नौकरी के लिए पूरी तरह अयोग्य है। लोक सेवा आयोग ने अपना फैसला राज्य के उस बाल विवाह रोकथाम कानून के संदर्भ में सुनाया था जिसमें कहा गया है कि कोई भी उम्मीदवार जिसकी शादी आधिकारिक उम्र से कम में हुई है, वह सरकारी सेवा अथवा किसी भी अन्य पद पर रहने के योग्य नहीं हो सकता। यह बात महत्वपूर्ण है कि मध्य प्रदेश में बाल विवाह कानून में संशोधन कर वर्ष 2005 में अलग से नियम 6(5) जोड़ा गया था।


बहरहाल रत्ना राशि ने अपने साथ हुई नाइंसाफी को हाईकोर्ट में चुनौती देना बेहतर समझा और अपने साथ हुए पारिवारिक व सामाजिक अन्याय के खिलाफ अदालती न्याय पाने का भरोसा पाला। हाईकोर्ट ने अपने अंतरिम फैसले में रत्ना राशि को पीसीएस की मुख्य परीक्षा तो देने दी, लेकिन अगला आदेश आने तक उसके परीक्षा परिणाम पर रोक लगा दी। इस बीच रत्ना ने वर्ष 2010 में मुख्य परीक्षा दी। इस परीक्षा का नतीजा अभी आना बाकी है। मुख्य परीक्षा का नतीजा आने से पहले बीते फरवरी में हाईकोर्ट का फैसला आ गया। हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए रत्ना राशि को परीक्षा के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। कोई सामान्य स्त्री होती तो ऐसे हालात में पूरी तरह से टूट जाती। मगर रत्ना ने अदालत का फैसला अपने खिलाफ आने के बावजूद भी अपना हौसला नहीं छोड़ा। उसने इंसाफ की आखिरी गुहार देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में लगाई इस उम्मीद में कि शायद यहां उसके साथ सही न्याय हो पाएगा। खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने रत्ना राशि के पक्ष और उसके दलालारें को सही ठहराया है। सर्वोच्च अदालत ने अपने अंतरिम फैसले में लोकसेवा आयोग से कहा है कि जब तक परीक्षा के नतीजे नहीं आ जाते तब तक आयोग एक सीट खाली रखे। इसके साथ ही अदालत ने मध्य प्रदेश सरकार को भी नोटिस भेजा है कि वह इस कानून पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे।


आखिरी फैसला अभी आना बाकी है। मगर रत्ना राशि के इस पूरे मामले ने हमारे समाज व समूचे तंत्र के सामने ऐसे कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिनके जवाब देना कोई आसान काम नहीं। यहां पहला सवाल है कि रत्ना राशि का बाल विवाह हुआ, जिसमें उसका अपना कोई कसूर नहीं, क्योंकि वास्तविक कसूरवार तो उसके मां-बाप और वह समाज है जो ऐसी शादियों को मान्यता देता है और ऐसी स्थिति पैदा करता है। कच्ची उम्र में उसका ब्याह एक ऐसे शख्स से कर दिया गया, जो मानसिक रूप से बीमार था। दूसरा सवाल यह कि जैसे-तैसे रत्ना जब घुटन और यातना के माहौल से किसी तरह बाहर निकली और अपनी मेहनत व काबिलियत के दम पर ऊंचाई तक पहुंची तो अब कानून उसकी राह में रोड़े अटका रहा है। उसके सशक्तिकरण की राह में रुकावट डाल रहा है। जाहिर है यह उसके साथ दोहरी नाइंसाफी है। वह उस जुर्म की सजा क्यों भुगते जो उसने किया ही नहीं? उसके बाल विवाह के असली कसूरवार उसके अभिभावक हैं, न कि वह खुद। रत्ना राशि और उसके जैसी हजारों लड़कियां बाल विवाह की कुरीति से शिकार होती हैं। वे समाज की उस कुरीति की पीडि़त हैं, जिस पर उनका कोई वश नहीं। वैसे भी किसी पीडि़त को अपराधी मानकर इज्जत की जिंदगी जीने से रोकना न सिर्फ एक और अपराध है, बल्कि मानवाधिकारों का भी हनन है।


रत्ना राशि के मामले में होना तो यह चाहिए था कि उसे बाल विवाह की पीडि़त मानकर सहारा दिया जाता और उसके पुनर्वास व बेहतर जिंदगी के लिए मदद दी जाती। इससे वह खुद भी सक्षम बनती और अपने बच्चों को भी आगे की जिंदगी के लिए तैयार करती। यदि रत्ना को न्याय नहीं मिलता है तो बाल विवाह कानून रत्ना जैसी लड़कियों और उसकी आने वाली पीढ़ी को शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक और सामाजिक विकास के मौके को पाने से रोकना है। लड़कियों के लिए बाल विवाह एक बोझ बन जाता है, क्योंकि विवाह के बाद उन्हें विकास का मौका कम ही मिलता है। कम उम्र में परिवार के लालन-पालन की जिम्मेदारी उन्हें पूरी तरह तोड़कर रख देती है। यदि ऐसी उम्र में वह मां भी बन गई तो उसके सामने और भी नई परेशानियां आ खड़ी होती हैं। अनूप पुर की रत्ना राशि तो सिर्फ एक छोटी सी मिसाल भर है। वरना देश में न जाने ऐसी कितनी रत्नाएं हैं जो बाल विवाह की वजह से घुट-घुटकर जीने को मजबूर हैं।


लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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