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कांग्रेस में इन दिनों हड़कंप मचा हुआ है। बाहर से इस पार्टी की हालत कमोबेश सामान्य तथा शांत नजर आ रही है, लेकिन जानने वाले कहते हैं कि यह हड़कंप अराजकता की स्थिति तक पहुंच सकता है। कांग्रेस की ऐसी हालत न 1969 में हुई थी और न 1975 में। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ था तथा 1975 में वह जनता पार्टी से लोकसभा का चुनाव बुरी तरह से हार गई थी । विभाजन के समय इंडिकेट एवं सिंडीकेट बन गए थे। सिंडीकेट से इंडिकेट इसलिए बाजी मार ले गया कि उसके पास इंदिरा गांधी जैसी लौह महिला थीं। आज वैसा नेतृत्व कांग्रेस में कहीं नजर नहीं आता। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्णय लुंज-पुंज नजर आने लगे हैं। यही कारण है कि सोनिया के मना करने के बावजूद पार्टी के चार सांसदों ने तेलंगाना के मुद्दे पर सदन में खड़े होकर नारे लगाए। सोनिया की पकड़ पार्टी से ढीली होती जा रही है, यह तभी लगने लगता था जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के चुनाव में मुख्यमंत्री चुनने का अंतिम अधिकार सारे नवनिर्वाचित विधायकों ने सोनिया गांधी को दे दिया था, पर जैसे ही विजय बहुगुणा का नाम आया, इनमें से अधिकांश विधायक बगावत पर उतर आए । उन्होंने सांसद हरीश रावत का नाम आगे कर दिया। ऐसी स्थिति में तीन-चार दिन तक भारी राजनीतिक गतिरोध बना रहा।
आखिरकार गुलाम नबी जैसे नेताओं के समझाने पर बागी विधायक शांत हुए और बहुगुणा की मुख्यमंत्री की कुर्सी सलामत रही । सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस की यह हालत कैसे हुई? वजह साफ है उत्तर प्रदेश का हाल का विधानसभा चुनाव। कांग्रेस अपने सहयोगी दल रालोद के साथ मिलकर मानने लगी थी कि वह इस प्रदेश में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत लेगी, जिससे राहुल गांधी को 2014 में प्रधानमंत्री बनाना और आसान हो जाएगा, लेकिन यह पार्टी और ज्यादा सिमट गई, जबकि समाजवादी पार्टी को एकतरफा बहुमत मिला। हालांकि इस हार की जिम्मेदारी राहुल ने स्वयं ली, मगर वह भी तब समझ नहीं पाए कि वास्तव में यह संगठन की हार थी। राहुल ने हालांकि चुनाव के पहले महीनों तक उत्तर प्रदेश की खाक छानी, लेकिन वह ऐसा संगठन खड़ा नहीं पाए जो चुनाव जितवा सके।
नतीजतन उनके पुश्तैनी चुनावी क्षेत्र अमेठी तथा रायबरेली से भी कांग्रेस के पैर उखड़ गए। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि अब राहुल को 2014 नहीं, बल्कि 2019 तक इंतजार करना पड़ेगा। पार्टी को फिर से मजबूती से उठ खड़ा करने के लिए कांग्रेस के भीतर कामराज योजना पर विचार मंथन तेजी से होने लगा है। इसी के तहत पिछले दिनों खबर आई कि चार केंद्रीय मंत्रियों सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, जयराम रमेश एवं वी. रवि ने सोनिया गांधी को मंत्री पद से इस्तीके की पेशकर कर संगठन के लिए काम करने की इच्छा बताई थी। जान लेना बेहतर होगा कि कामराज वैसे तो तमिलनाडु के कांग्रेसी नेता थे, मगर दिल्ली में आकर वह खासे दमदार पार्टी अध्यक्ष साबित हुए। उस वक्त तमाम मंत्रियों तथा पार्टी पदाधिकारियों से इस्तीफे ले लिए गए थे। आज कांग्रेस यह योजना लागू कर ही नहीं सकती, क्योंकि एक तो उसके मंत्रिमंडल में कांग्रेस के अलावा दूसरी पार्टियों के मंत्री भी हैं। फिर संगठन के स्तर पर भी मजबूत दूसरी लाइन पार्टी में नहीं है। पार्टी को दिग्विजय सिंह और अहमद पटेल जैसे नेताओं से काम चलाना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में कहा यह तक जाने लगा है कि कांग्रेस अपनी स्थापना एवं आजादी के बाद सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। इस स्थिति से कांग्रेस के विरोधी दल के कुछ समझदार नेता भी चिंता में पड़ गए है। ऐसे नेता मानते हैं कि कांग्रेस की यह स्थिति काँग्रेस एवं देश के हित में नहीं है। संगठन की बात अलग रखकर सत्ता के मुद्दे पर आएं तो भी गहरी निराशा हाथ लगती है। कहने वाले कहते ही हैं कि आजाद भारत की यह सबसे भ्रष्ट तथा अकर्मण्य सरकार है। आए दिन नए-नए घोटाले तथा दलाली के किस्से सामने आ रहे हैं। हाल में एक हेलीकॉप्टर खरीद में 350 करोड़ रूपए की दलाली का मामला सामने आया। उधर बोफोर्स तोप दलाली में कुछ नए तथ्य सामने आ रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि केंद्र और कांग्रेस संगठन में तालमेल न होने के कारण केंद्र सरकार नीतिगत अनिर्णय की शिकार है तो संगठन राजनीतिक अनिर्णय का। नक्सली और आतंकवाद जैसे मुद्दे सरकार के लिए चुनौती बने हुए हैं, पर उसे रास्ता दिखाने में संगठन नितांत कमजोर नजर आ रहा है। भले कांग्रेस कामराज योजना लागू कर ले, लेकिन इसके परिणामों को लेकर कई कांग्रेसी खुद दुविधा में हैं। स्थिति ऐसी है जिसमें अपने को मजबूत करने के लिए कांग्रेस को नए प्रयोग करने पड़ेंगे। पार्टी को मान लेना चाहिए नेहरू-गांधी परिवार के तिलस्म के दिन अब तेजी से लद रहे हैं। सत्ता के स्तर पर भी कांग्रेस की हालत बेहद खस्ता है। महंगाई की समस्या सुलाझाए नहीं सुलझ रही है, जबकि मनमोहन सिंह एवं वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं। इस साल देश में गेहूं की बंपर फसल हुई है, मगर लगता नहीं कि इससे गेहूं के बाजार भाव कम होंगे। महंगाई का मुद्दा जब भी उठता है तब-तब चलताऊ अंदाज में घिसे-पिटे बयान सरकार की तरफ से आ जाते हैं। कहने वाले यहां तक कह रहे हैं कि अंतत: महंगाई एवं भ्रष्टाचार के मुद्दे इस सरकार को ले डूबेंगे। संप्रग सरकार का सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस उसे खासा तंग किए हुए है। ममता बनर्जी यह जरूर कहती रही हैं कि वह संप्रग सरकार को नहीं गिराएँगी, पर सरकार विरोधी बयान देने से वे खुद को रोक नहीं पातीं। ऐसे में केंद्र में समर्थन के लिए कांग्रेसी नेताओं को कभी समाजवादी पार्टी तो कभी बहुजन समाज पार्टी की ओर दौड़ना पड़ता है।
नवीन जैन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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