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लगभग पचास साल पहले विख्यात अर्थशास्त्री और चिंतक दत्तोपंत ठेंगड़ी का लेख संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में पढ़ने को मिला था। ठेंगड़ी ने लिखा था कि यदि कार्ल मार्क्स जीवित होते तो वह स्वयं ही मार्क्सवाद की निरर्थकता स्वीकार कर लेते। चौबीस वर्ष पूर्व नागपुर के एक समागम में उन्होंने कहा था कि अगले दस वर्ष में सोवियत संघ का अस्तित्व मिट जाएगा और इसी के साथ मार्क्सवादी आस्था का अंत हो जाएगा। सोवियत संघ को बिखरने में पांच वर्ष से अधिक समय नहीं लगा और उसने सर्वहारा क्रांति के नाम पर जिन देशों को गुलाम बना रखा था वे स्वतंत्र हो गए। सोवियत संघ का अस्तित्व समाप्त हो गया। निधन से कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की थी कि 2025 तक अमेरिका और पाश्चात्य देशों के आर्थिक शोषण से दुनिया मुक्त हो जाएगी और भारतीय जीवनशैली के प्रभाव से विश्व सभी प्रकार के शोषण और प्रदूषण से मुक्त होकर वसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओतप्रोत हो जाएगा। भारत में ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद ने आक्रांता के रूप में प्रवेश किया। बौद्ध विचारधारा के देशों को छोड़कर इन तीनों ही विचारधाराओं ने जिस देश की धरती पर कदम रखा उसके लोगों को अपने अतीत और परंपरा से सर्वथा अलग कर दिया।
भारत में तीनों ही विचारधाराओं को हजार वर्ष से अधिक प्रयास के बाद भी आंशिक सफलता ही मिली। अस्सी प्रतिशत भारतीय समाज जिसे हम हिंदू के नाम से पहचानते हैं, आज भी अपने अतीत से और ऋषियों द्वारा दी गई विचारधारा से आबद्ध है। इसका कारण समझने के लिए हमें सबसे पहले आक्रांताओं की विचारधारा के मूल में जाना पड़ेगा। ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद, तीनों ही में इस बात का समान आग्रह है कि उनकी विचारधारा के अलावा किसी अन्य विचारधारा को अस्तित्व में रहने का अधिकार नहीं है। ईसाइयत की इस विचारधारा का उदाहरण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं, जहां इस विचारधारा के लोगों ने पहुंचकर वहां के मूल निवासियों को नेस्तनाबूद कर दिया। यही नहीं बाद में ये विचारधाराएं आपस में ही टकराने लगीं। अन्य विचारधाराओं का अस्तित्व मिटाते-मिटाते अपनी ही विचारधारा वालों से टकराने के मूल में है एकाधिकारवादी भावना, जिसकी छाया में ये विचारधाराएं पनपी हैं। इस एकाधिकारवादी आस्था की सबसे निचली श्रेणी में मार्क्सवाद आता है।
भारत में मार्क्सवाद के उदय और अस्त की अवधि सबसे कम रही है। पिछले दिनों केरल में आयोजित मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि सोवियत या चीन, दोनों का ही पथ भारत के लिए अनुकूल नहीं है। हमें अपनी शक्ति को पुन: स्थापित करने के लिए भारतीय पृष्ठभूमि के अनुरूप वैचारिक और व्यावहारिक दिशा पकड़नी होगी। भारत की दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टियां इस बात की उदाहरण हैं कि उन्होंने भारत के अतीत और संस्कृति से परहेज कर अपने अस्तित्व को संकट में डाला है। बंगाल की पराजय के बाद साम्यवादी या मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति आस्था रखने का दावा करने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच मंथन चल रहा है। पिछले दिनों हिंदी के प्रख्यात समालोचक नामवर सिंह ने घोषणा की कि विचारधाराएं निरर्थक साबित हो चुकी हैं। इस पर कुछ लोग हंगामे पर उतर आए। मार्क्सवादी साहित्यकारों में अब वह दम नहीं रहा जो भारत सोवियत संस्कृति संगठन के जमाने में हुआ करता था। क्यों इन लोगों में उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो सैद्धांतिक प्रतिबद्धता छोड़कर अमेरिकी दूतावास या उससे पोषित संस्थानों के समर्थक बन गए हैं। नामवर सिंह का कथन आयातित विचारधाराओं के संदर्भ में ही सही है। ये विचारधाराएं समाज को अतीत से काट देती हैं, लेकिन जो भारतीय विचारधारा अपने अतीत पर गर्व के साथ सनातन रूप से चली आई आध्यात्मिकता पर आधारित है वह कभी भी निरर्थक नहीं हो सकती। यह ठीक है कि शोषण का साम्राज्यवादी तरीका अब बदल कर आर्थिक शोषण के रूप में उभरा है, लेकिन दोनों में एक मायने में समरूपता ही है-कमजोर को मत जीने दो।
प्रलोभन भी शोषण का एक स्वरूप बन गया है। भारतीय संस्कृति अथवा जीवनशैली के चार पायदान हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसी कारण वह शोषण विहीन है। भारत में बाहर से आई विचारधाराओं में धर्म और मोक्ष की बाड़ नहीं है। उनमें सिर्फ अर्थ और काम की ही प्राथमिकता है। उनमें न तो पूर्वजों की धरोहर के प्रति आस्था है और न भविष्य की पीढ़ी के लिए चिंता। भारतीय जीवन मूल्य न तो किसी संप्रदाय के लिए हैं और न ही किसी वर्ग अथवा वर्ण के लिए। उपनिषद में भारतीय विचारधारा को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास किया गया है-इस संसार में जो कुछ भी है सब ईश्वर द्वारा बनाया गया है। उसका त्यागपूर्वक भोग करो तो कोई भी दुखी नहीं होना पड़ेगा। यह विचारधारा सनातन है। यह न तो कभी नष्ट हो सकती है न ही कालवाह्य। मार्क्सवादी विचारधारा के अनुयायियों का वर्चस्व इसलिए समाप्त हो गया, क्योंकि वह भोग पर आधारित है। कुछ इसी प्रकार की अभिव्यक्ति सभ्यताओं के बीच संघर्ष के विचार के जरिए की गई थी। 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि सभ्यताओं में नहीं असभ्यताओं में संघर्ष होता है। विचारधाराओं की निरर्थकता उनके संदर्भ में सुनिश्चित है जो द्वंदवाद या संघर्ष के सिद्धांत पर आधारित है, लेकिन भारतीय विचारधारा सनातन काल से समभाव पर आधारित है। इसीलिए वह सनातन है। विचारकों को उसके मूल में जाकर अपनी भूल का सुधार करना अधिक सार्थक साबित होगा, न कि किसी विचारधारा की निरर्थकता पर प्रलाप करने से।
राजनाथ सिंह सूर्य राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं
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