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रुपये में गिरावट के दुष्प्रभाव

जागरण मेहमान कोना
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Jayantilal Bhandariइन दिनों रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चिंता बन गई है। भारतीय मुद्रा की कीमत 53.5 रुपये प्रति डॉलर के पार जाना अर्थव्यवस्था की कमजोरियों का नतीजा है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) द्वारा अंतरबैंक विदेशी मुद्रा बाजार में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप और डॉलर की बिक्री के बावजूद रुपये का मूल्य ज्यादा संभल नहीं पा रहा है। देश में डॉलर के मजबूत होने और रुपये के कमजोर होने के कई कारण है। कंपनियां और बड़े-बड़े कई उद्योग-व्यापार संस्थान विदेशी व्यापारिक उधारी निपटाने के लिए डॉलर की खरीदी कर रहे हैं। देश के निर्यात घटने से देश की ओर आने वाले डॉलर का प्रवाह घट गया है। जनरल एंटी अवॉयडेंस रूल (गार) के तहत कराधान के प्रावधानों विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआइ) और देशी निवेशक भी घबराहट में शेयर बाजार से अपना धन निकाल रहे हैं। देश की ओर आने वाले विदेशी उद्योगों के कदम रुक गए हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की गति में ठहराव आ गया है। देश का विदेशी मुद्रा भंडार अपेक्षा से कम हो गया है। ऐसे में यदि अब आरबीआइ डॉलर को बेचने के लिए विदेशी मुद्रा बाजार में अपना हस्तक्षेप और बढ़ाता है तो देश के बैंकिंग सिस्टम में तरलता (लिक्विडिटी) की नई समस्या पैदा हो जाएगी।

 

बढ़ाना होगा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

 

रुपया और ज्यादा असहाय हो जाएगा। आयात और महंगे हो जाएंगे तथा महंगाई और बढ़ जाएगी। हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि रुपये की कमजोरी सिर्फ डॉलर की मजबूती की वजह से नहीं है, बल्कि इसके पीछे बढ़ता व्यापार घाटा, कम निर्यात और अर्थव्यवस्था की अड़चनें प्रमुख कारण हैं। विदेश व्यापार से संबंधित नवीनतम आंकड़े बता रहे हैं कि भारत का विदेश व्यापार घाटा तेजी से बढ़ते हुए चिंताजनक रूप लेता जा रहा है। वस्तुत: वर्ष 2010-11 में भारत का विदेश व्यापार घाटा 132 अरब डॉलर के स्तर पर था, जो वर्ष 2011-12 के दौरान 184 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है। वर्ष 2014 तक व्यापार घाटे के और अधिक 278.5 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंचने की आशंका है। पिछले वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान निर्यात 303 अरब डॉलर रहा। यही नहीं, आगामी वित्त वर्ष 2012-13 भारतीय निर्यातकों के लिए अपेक्षाकृत अधिक चुनौती वाला होगा। इसलिए वर्ष 2013-14 तक निर्यात को 500 अरब डॉलर के निर्धारित लक्ष्य तक ले जाने में भी भारी कठिनाइयां होंगी। वस्तुत: देश की आगे बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के साथ आयात की जरूरत बढ़ती जा रही है।

 

देश में जिस तेजी से तेल का आयात बढ़ रहा है, उसके कारण भारत का तेल आयात बिल चिंताजनक संकेत दे रहा है। भारत में तेल की खपत का तीन चौथाई तेल आयात किया जाता है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है। केवल तेल ही नहीं, बल्कि बीते सालों के दौरान दूसरी चीजों के आयात में भी तेजी दर्ज की गई है। जहां खुली अर्थव्यवस्था के कारण भारत में बढ़ती हुई जरूरतों के लिए उद्योग-व्यवसाय सरलतापूर्वक आयात कर रहे हैं, वहीं भारतीय निर्यात क्षेत्र के सामने कई मुश्किलें हैं। भारत के निर्यात घटने के पीछे अमेरिका और यूरोपीय देशों की आर्थिक बदहाली सबसे प्रमुख कारण है। जब यूरो जोन देशों की अर्थव्यवस्था खतरों का सामना कर रही है तो भारतीय निर्यात का स्त्रोत भी सूखने लगा है। भारतीय निर्यात के जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं, उनमें जेम एंड ज्वैलरी, लेदर, टेक्सटाइल, आइटी, फार्मा और कुछ अन्य सेवा क्षेत्र शामिल हैं।

 

विदेशी मुद्रा विनिमय दर में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है। महंगी ब्याज दरों की वजह से निर्यातकों को ऊंची दर पर कर्ज लेना पड़ रहा है। देश में रुपये और बाजार में दुबले होने की जो होड़ दिख रही है, उसके पीछे अर्थव्यवस्था की बाधाएं और आर्थिक सुधारों की धीमी गति जिम्मेदार है। निश्चित रूप से आर्थिक सुधारों के सवाल पर एक ठहराव देखने को मिला है। इंश्योरेंस, पेंशन और दूसरे वित्तीय सुधारों पर गाड़ी आगे नहीं बढ़ी। घरेलू बाजार में ब्याज की ऊंची दरों की वजह से औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई। निवेश और विस्तार रुक गया। कोयले और गैस की सप्लाई में कमी होने से ऊर्जा सेक्टर को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बिजली कंपनियों के सामने तो उत्पादन रोकने की स्थिति आ गई। पूंजी निवेश में गिरावट आई। इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में निवेश की कोई बेहतर नीति नहीं रही। वित्तीय बाजारों में सुधारों के कानूनों को लागू करने में सरकार पीछे रह गई। राजकोषीय घाटे का आकार भी बढ़ता गया। विनिवेश के मोर्चे पर सरकार की रणनीति सफल नहीं दिखी। कृषि सुधारों में कोई नयापन देखने को नहीं मिला। जीएसटी पर सहमति नहीं बन पाई।

 

रिटेल में एफडीआइ का बिल पारित नहीं हो सका गया। स्थिति यह बनी कि ऐसी नीतिगत विफलताओं की वजह से विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास कम हुआ और विदेशी निवेश में कमी आई है। निस्संदेह रुपये की गिरावट को रोकने के लिए हमें बढ़ते हुए विदेश व्यापार घाटे को कम करना होगा। एक ओर जहां मंदी की चुनौतियों के बीच भी निर्यात बढ़ाने होंगे, वहीं दूसरी ओर आयात को नियंत्रित करने की रणनीति भी बनानी होगी। हमें देश के निर्यात को दूसरे देशों में दी जा रही सुविधाओं के मद्देनजर प्रोत्साहित करना होगा। भारतीय निर्यात को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बनाए रखने के लिए निर्यातकों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराए जाने चाहिए। अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों में भारत के निर्यात को बढ़ावा देने के प्रयास तेज करने होंगे। पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, भूटान, थाईलैंड और नेपाल के साथ निर्यात बढ़ाने की नई कोशिशें जरूरी होंगी। भारतीय निर्यातक लैटिन अमेरिकी और ब्रिक्स देशों के साथ कारोबार करने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। ऐसे में स्थानीय मुद्रा में कारोबार करने के फैसले से इसमें काफी मदद मिलेगी। यह जरूरी होगा कि रुपये की मजबूती के लिए आर्थिक सुधारों को गति दी जाए। इस परिप्रेक्ष्य में अब कोयला और गैस नीति में सुधार करना होगा।

 

सरकार को विनिवेश प्रक्रिया में तेजी लानी होगी। खासतौर से सार्वजनिक उपक्रमों में सरकारी हिस्सा खरीदने के लिए बैंकों, एलआइसी एवं विभिन्न सरकारी संस्थानों को आगे बढ़ाना होगा। सरकार को आर्थिक सुधार की दिशा में आगे बढ़ते हुए पेंशन सुधार, कंपनी विधेयक, वित्त एवं अन्य क्षेत्रों में सुधारों के लिए निर्णायक स्थिति में पहुंचना होगा तथा कर सुधारों को लागू करना होगा। निस्संदेह विभिन्न आर्थिक कारणों से रुपये के मूल्य में वर्तमान गिरावट देश के कारोबार और बाजार के लिए घातक सिद्ध हो रही है। इसके कारण पहले से ही घटते उत्पादन और कमजोर ग्राहक मांग से पीडि़त अर्थव्यवस्था और कंपनियां भारी कीमत चुकाते हुए दिखाई दे रही हैं। चूंकि वर्तमान राष्ट्रीय एवं वैश्विक परिदृश्य रुपये के मूल्य में गिरावट जारी रहने के संकेत दे रहे है। लिहाजा, सरकार और रिजर्व बैंक को चाहिए कि वे रणनीतिक प्रयासों से रुपये के मूल्य को और गिरने से बचाए।

 

जयंती लाल भंडारी आर्थिक मामलों के जानकार हैं

 

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