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बेसहारा होते वृद्धों की चिंता

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreबीसवीं शताब्दी अगर युवाओं की थी तो वर्तमान इक्कीसवीं शताब्दी वृद्ध लोगों की शताब्दी होने वाली है। दुनिया भर के आंकड़े बता रहे हैं कि अत्यंत पिछड़े हुए देशों को छोड़कर बाकी सभी देशों में वृद्ध लोगों की आबादी दिनोंदिन तेजी से बढ़ती जा रही है। इस संबंध में दुनिया के पिछड़े हुए देशों की मुख्य समस्या यह है कि वहां आर्थिक विकास की गति तेज न होने के कारण स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार उस गति से नहीं हो पा रहा है जिस गति से फिलहाल होनी चाहिए। इन देशों में आम लोगों को मिलने वाले भोजन में पौष्टिकता की प्राय: कमी होती है और जीवन रक्षा के लिए अतिशय श्रम करना पड़ता है, जिस कारण से ज्यादातर लोगों को लंबी उम्र नहीं मिल पाती। इसका एक परिणाम यह भी देखने को मिलता है कि लोग जवानी में ही बूढ़े नजर आने लगते हैं। इसके विपरीत, आर्थिक रूप से विकसित देशों में अधिकतर लोग लंबी उम्र तक जीवित रहते हैं और जो बूढ़े हो जाते हैं, वे भी जवान दिखने और बने रहने में सफल रहते हैं।

 

बावजूद इसके भी उम्र तो उम्र ही होती है और कोई कितनी भी कोशिश क्यों न कर ले, वह खामोश नहीं रह सकती। हम भारतीयों को इस बात पर गर्व करने को कहा जा रहा है कि भारत इस समय दुनिया के युवा देशों में से एक है। अमेरिका, यूरोप और जापान की तुलना में हमारे यहां समाज में युवाओं का प्रतिशत ज्यादा है। मुझे यह दिखाई नहीं पड़ता कि इसमें अभिमान करने की बात क्या है? आर्थिक प्रगति के जो मानक विश्व भर में स्वीकृत हैं, उसके हिसाब से भारत कोई आधुनिक देश नहीं कहा जा सकता है। आधुनिकता की नियामतें लोगों तक पहुंचने जरूर लगी हैं, पर अभी तक तो मुख्यत: सिर्फ बीस-पचीस प्रतिशत आबादी तक ही यह सीमित है। इससे देश भर में जीवन प्रत्याशा की दर में क्रमिक सुधार हो रहा है, लेकिन सुधार की रफ्तार उतनी तेज नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। इसलिए अधिक दिनों तक जीने का सुयोग सब को नहीं मिल पाता है।

 

फलत: भारतीय समाज में युवाओं का प्रतिशत बढ़ गया है। अगर आधुनिक मानकों के हिसाब से प्रगति होती रही तो हमारे यहां भी वृद्ध लोगों का प्रतिशत आने वाले वर्षो में बढ़ने लगेगा, लेकिन एक मामले में हमारे वृद्ध लोगों की स्थिति आर्थिक प्रगति का लाभ उठा रहे देशों के वृद्ध लोगों जैसी ही है। दोनों ही तरह के देशों में वृद्ध लोग अपने परिवार से बिछड़े हुए हैं और दोनों ही के पास करने के लिए कोई ऐसा काम नहीं है जिससे उनका सकारात्मक योगदान लिया जा सके अथवा जिससे उन्हें सुकून मिलता हो। आधुनिक जीवन पद्धति के जड़ जमा लेने से पहले तक कोई रिटायर नहीं माना जाता था।

 

किसान और मजदूर मरते दम तक काम किया करते थे। काम करना जीवन की एक स्वाभाविक स्थिति है। यह इस बात से भी समझी जा सकती है कि निठल्ला बैठे रहना न तो हमारे शरीर को मंजूर होता है और न ही हमारे मन को। व्यवसायी वर्ग तो अभी भी आखिरी सांस तक सक्रिय रहे हैं। जब हमारे यहां अंग्रेजी शासन आया तो रिटायरमेंट की उम्र नाम की एक नई चीज दाखिल हुई। कोई सारी जिंदगी सरकारी नौकरी नहीं कर सकता था। एक उम्र के बाद उसे अपनी जगह खाली कर देनी पड़ती थी, ताकि उसके स्थान पर किसी जवान आदमी को काम पर लगाया जा सके। वही व्यवस्था अब भी चल रही है। सेना को तो नौजवान ही चाहिए।

 

सरकारी मानकों को प्राइवेट नौकरियों में लागू करने के बाद यहां भी वृद्ध लोगों की एक खासी जमात तैयार हो गई है। यद्यपि इसके ज्यादातर सदस्यों को बुढ़ापे में भी काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, क्योंकि प्राइवेट रोजगार में पेंशन नाम की सहूलियत नहीं होती है। जिन्हें हर महीने पेंशन मिलती है, वे यह कल्पना तक नहीं कर सकते कि बिना पेंशन के जीना कितना कष्टदायक होता है। रिटायरमेंट की उम्र बीच-बीच में बढ़ाई जाती रहती है, फिर भी देश के सभी शहरों, कस्बों और गांवों में वृद्ध लोगों की भारी संख्या दिखाई देती है जिनके पास करने को कुछ नहीं होता है। पेंशन से, अपने संचय से या बेटे-बेटियों के कारण इनके सामने भोजन, वस्त्र या आवास की समस्या नहीं होती है। दवा-दारू का इंतजाम भी हो ही जाता है, लेकिन परिवार के भीतर या समाज में इनकी कोई भूमिका नहीं रहती है। बहुत-से तो अच्छे ढंग से समय काटने तक के लिए तरसते रहते हैं। कोई कब तक ताश खेलेगा, टीवी देखेगा या नजदीक के पार्क में पहुंचकर अपना समय काटने के लिए खाली बैठे लोगों के साथ गप मारेगा या योग-व्यायाम करने में समय बिताएगा। ये चीजें तब भली लगती हैं जब आदमी कम से कम चार घंटे कुछ उत्पादन करे या समाज के लिए उपयोगी काम करे।

 

सार्थक जीवन श्रृंखला से बाहर कर दिए जाने के बाद आदमी तरह-तरह से समय जरूर काट सकता है, पर सोने के लिए बिस्तर पर जाने से पहले एक अच्छा दिन बीतने की तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकता। यह भी एक तरह की सामाजिक बेरोजगारी है, जिसकी ओर हमारा ध्यान शायद ही कभी जाता है। ऐसा शायद इसलिए भी है, क्योंकि हम जवान लोगों को ही कहां रोजगार दे पा रहे हैं? इसके अलावा अच्छे रोजगार की समस्या करोड़ों युवाओं के जीवन को लगातार डस रही है और इस समस्या से हजारों-लाखों की तादाद में लोग परेशान हैं। ऐसी स्थिति में वृद्ध लोगों को सार्थक रोजगार में लगाने की आकांक्षा कैसे पैदा हो इस पर विचार किया जाना आवश्यक है, लेकिन रोजगार की दोनों किस्म में एक बुनियादी फर्क भी है। जहां युवाओं को रोजगार देने के लिए आर्थिक निवेश करना होगा जबकि वृद्ध लोगों के लिए असंख्य रोजगार मौजूदा व्यवस्था में ही पैदा किए जा सकते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें पारिश्रमिक नहीं चाहिए या चाहिए भी तो बहुत ज्यादा नहीं चाहिए। इन्हें सम्मान और कृतज्ञता चाहिए।

 

इन्हें कुछ चाहिए तो वह है काम करने का सुख और संतोष। हमारे वृद्ध लोग बहुत से ऐसे काम कर सकते हैं जिसकी समाज को सख्त जरूरत है। ये लोग बच्चों को पढ़ा सकते हैं, पुस्तकालय और वाचनालय चला सकते हैं, स्वास्थ्य केंद्रों में काम कर सकते हैं, स्थानीय पार्को की देखभाल कर सकते हैं, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र बनवाने में मदद कर सकते हैं, ट्रैफिक का संचालन कर सकते हैं, डाक पहुंचा सकते हैं, लिखा-पढ़ी का बहुत सा काम कर सकते हैं, दूध का बूथ चला सकते हैं और भी पता नहीं क्या-क्या काम कर सकते हैं। पर क्या सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं, सामाजिक संगठन और राजनीतिक दलों के स्थानीय नेता इस पर विचार करने की उदारता दिखाएंगे?

 

राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं

 

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