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संघीय व्यवस्था के खिलाफ है

जागरण मेहमान कोना
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विगत कई वर्षो से देश के विघटनकारी तत्वों ने विदेशी ताकतों के साथ मिलकर छद्मयुद्ध छेड़ा हुआ है। इसके बावजूद आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए वर्तमान संप्रग सरकार का प्रयास बेहद लचीला रहा है। संप्रग सरकार ने वर्ष 2004 में राजनीतिक कारणों से पोटा को निरस्त कर गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम (यूएपीए) में संशोधन किया, जो प्रारंभ से ही आतंकवाद की घटनाएं रोकने के लिए अपर्याप्त था। वर्ष 2008 में मुंबई हमले के बाद यूएपीए में कुछ संशोधन किया गया, जो सिर्फ तात्कालिक सोच का परिणाम था, न कि दीर्घकालिक सोच का। इससे स्पष्ट है कि केंद्र सरकार द्वारा अब तक आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या से निपटने के लिए बिना किसी गहन चिंतन एवं रणनीति के तात्कालिक और आधे-अधूरे प्रयास ही हुए हैं। केंद्र सरकार के इसी ढुलमूल रवैये के कारण आतंकवाद का नासूर और विकराल होता जा रहा है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए आंतरिक सुरक्षा का मजबूत होना अत्यावश्यक है और आंतरिक सुरक्षा सशक्त करने के लिए राज्य पुलिस यूनिटों को प्रभावशाली, व्यावसायिक और दक्ष बनाया जाना महत्वपूर्ण है।

 

एनसीटीसी का औचित्य

 

संप्रग सरकार का एनसीटीसी प्रस्ताव संविधान में परिकल्पित संघीय ढांचे के प्रतिकूल है। जैसे 2008 में यूएपीए में किए गए संशोधनों से पूर्व राज्यों की सहमति नहीं ली गई, उसी प्रकार एनआइए के गठन से पहले भी राज्यों से विचार-विमर्श नहीं किया गया। एनसीटीसी की अधिसूचना भी इसी श्रंृखला की एक कड़ी है। बीएसएफ और आरपीएफ एक्ट में प्रस्तावित संशोधन राज्य के अधिकारों का केंद्र द्वारा अतिक्रमण है। एनसीटीसी मामले में जिस तरह केंद्र सरकार इस समय आतुर है, उसी तरह 2004 में पोटा को निरस्त करने के लिए आतुर थी। आखिर आंतरिक सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दे को ताक पर रखकर पोटा क्यों निरस्त किया गया, जबकि राजग शासनकाल में पोटा कानून राष्ट्र संघ के आतंकवाद विरोधी प्रस्ताव में भारत की भागीदारी के तहत राष्ट्रीय दायित्व निभाने के लिए बनाया गया था। पोटा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसे राज्य सरकारें ही लागू करतीं, न कि केंद्र सरकार द्वारा इसे थोपा जाता। सांप्रदायिकता का रंग देकर पोटा निरस्त करने के बाद जिस प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी हमले हुए, उसने साबित कर दिया कि भारत की आतंक के खिलाफ लड़ाई ढीली पड़ गई है। वर्तमान संप्रग का एक घटक दल एनसीपी उस समय एनडीए की सहयोगी थी, जिसने पोटा का विरोध नहीं किया था। वही एनसीपी आज एनसीटीसी का विरोध कर रही है।

 

आज एनसीटीसी के विरोध में जो तर्क गैर-कांग्रेस शासित राज्य, कांग्रेस के कई सहयोगी दल और स्वयं कांगे्रस की कुछ राज्य सरकारें दे रही हैं, वही तर्क पोटा को निरस्त किए जाने के समय राजनीतिक पूर्वाग्रहों की वजह से कांगे्रस ने दिए थे। आज कांग्रेस एनसीटीसी को लेकर वही दलील दे रही है, जो राजग सरकार ने पोटा के पक्ष में दिया था। वर्तमान में कई राज्य माओवादी उग्रवाद की समस्या का सामना कर रहे हैं। यह केंद्र और राज्य में पारस्परिक सहयोग एवं समन्वय का एक उदाहरण है, जिसके अच्छे परिणाम मिले हैं। इसी मॉडल को आतंकवाद से लड़ाई में भी सफलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है। प्रस्तुत प्रारूप, जिसमें एनसीटीसी द्वारा स्वयं कार्रवाई करने का उल्लेख है, की जरूरत बिल्कुल प्रतीत नहीं होती। वर्तमान में अधिकांश राज्यों में एटीएस दक्षतापूर्वक अपना कार्य कर रही हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए राज्य की इकाइयों की क्षमता में वृद्धि करना केंद्र सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। पंजाब में आतंकवाद का खात्मा और आंध्र प्रदेश में नक्सलवाद को नियंत्रित करने में राज्य पुलिस इकाइयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

 

वर्तमान में आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियां कोई एक संगठन या संस्था अकेले हल नहीं कर सकती है, क्योंकि आतंकवाद के कई आयाम हैं। अत: राज्य और केंद्र के विभिन्न विभागों के समन्वित प्रयास से ही आतंकवाद के विरुद्ध परिणामजनक रणनीति बनाई जा सकती है। एनसीटीसी को आइबी के अधीन रखने से उसके राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका है। भारत में संघीय व्यवस्था ही हमारे संविधान का आधार है। इसके लिए एनसीटीसी का स्वरूप भी संघीय व्यवस्था के अनुरूप होना चाहिए। वर्तमान प्रारूप में एनसीटीसी संविधान की संघीय व्यवस्था के विपरीत है।

 

मिथिलेश झा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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