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भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस और भाजपा को एक श्रेणी में रख रहे हैं कुलदीप नैयर
भ्रष्टाचार अगर किसी को परखने का पैमाना है तो मुझे भारत की सबसे बड़ी दो पार्टियों-कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में कोई अंतर नहीं दिखता। अनेक घोटालों से दोनों का चेहरा बार-बार बदरंग हो चुका है। इन घोटालों और उनमें उनके शामिल होने का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। दोनों शीशे के महल में हैं और अंग्रेजी साहित्यकार जार्ज बर्नाड शॉ कहते हैं कि ऐसे लोगों को रोशनी में कपड़े नहीं बदलने चाहिए। कांग्रेस के सामने 25 साल बाद बोफोर्स दलाली का भूत फिर से आ खड़ा हुआ है। दूसरी ओर हथियार सौदे से जुड़े मामले में कभी भाजपा के अध्यक्ष रहे बंगारू लक्ष्मण को दोषी करार दिए जाने से भाजपा की कलई खुल गई है। फिर भी कांग्रेस या भाजपा में कोई संवेदनशीलता नहीं दिख रही है। कांगेस का तर्क है कि मामला बंद हो चुका है तो दूसरे की दलील है कि भाजपा ने तो कम से कम भ्रष्ट सौदे पर कोई पर्दा नहीं डाला। भाजपा की इस दलील के निशाने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी हैं। आरोप है कि राजीव गांधी ने सब कुछ इस कदर छुपा डाला कि बिचौलिये को दिए गए 65 करोड़ रुपये से जुड़ा कोई सबूत ही नहीं बचा।
किसके पास नहीं हैं भ्रष्ट किरदार
सच्चाई यह है कि सत्ता में रहते हुए इन दोनों पार्टियों ने अपना मकसद साधने के लिए सरकारी मशीनरी और खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल किया और इसमें नाम मात्र के लिए भी कानून या नैतिकता को बचने नहीं दिया। भाजपा नेता जसवंत सिंह ने बोफोर्स दलाली की सीबीआइ जांच कराने की मांग की है। उन्हें इससे थोड़ा आगे बढ़कर इस जांच में बंगारू लक्ष्मण के मामले को भी शामिल करने और साथ ही साथ उनके पीछे कौन लोग या संगठन थे, इसका पता लगाने की मांग करनी चाहिए, लेकिन अगर जांच आयोग बना भी दिया जाए तो वह सच्चाई का पता नहीं लगा पाएगा, क्योंकि झूठा रिकार्ड तैयार कर लिया गया है और सारे सबूत नष्ट कर दिए गए हैं। हालांकि जांच आयोग की जो रिपोर्ट होगी उससे भविष्य में यह पता लगाने में मदद मिलेगी कि सत्ता में रहने वाले लोग व्यवस्था में हेराफेरी कर किस तरह सबूतों को मिटा देते हैं। बोफोर्स घोटाला छुप-छुपा कर हुआ। अगर डीप थ्रोट ने इसका खुलासा नहीं किया होता तो इसके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। मीडिया की भाषा में डीप थ्रोट उस व्यक्ति को कहा जाता है जो खुद सामने आए बिना अंदर की जानकारियां देता है।
25 साल पहले जब बोफोर्स सौदे से जुड़ी कहानी का खुलासा हुआ तो इसने देश को झकझोर कर रख दिया, क्योंकि डीप थ्रोट ने आरोप लगाया था कि इस सौदे को हासिल करने के लिए स्वीडिश कंपनी बोफोर्स ने राजीव गांधी की तत्कालीन सरकार को कमीशन दिया था। डीप थ्रोट ने एक बार फिर देश को झकझोरा है। इस बार उसने अपनी पहचान का खुलासा किया है और बताया है कि वह स्वीडिश पुलिस का पूर्व प्रमुख स्टेन लिंडस्ट्रोम है। उसका आरोप है कि राजीव गांधी ने खुद तो कोई रिश्वत नहीं ली थी, लेकिन उन्होंने घोटाले को दबाने की हरसंभव कोशिश की थी। मुझे इस बात में जरा भी संदेह नहीं कि वह सच बोल रहे हैं। इसके उलट राजीव गांधी को देखिए, जिन्होंने रिश्वत पाने वाले की पहचान छिपाने की पूरी कोशिश की थी। उन्होंने ऐसा क्यों किया, बिल्कुल साफ है। कहा जाता है कि जिस जगह दलाली का धन पहुंचाया जाना था वहां पैसा पहुंचाने के लिए बिचौलिए का इस्तेमाल किया गया। यह समझने वाली बात है कि बिचौलिए ने भी रिश्वत का एक अंश बतौर कमीशन अपने पास रख लिया, क्योंकि उसने जोखिम उठाया था। किसी भी तरह राजीव गांधी ने इस बात की पूरी व्यवस्था की कि संदेह के घेरे में आए लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। मेरा मानना है कि बोफोर्स घोटाले में सबसे बड़ा नुकसान जांच एजेंसियों, खासकर सीबीआइ की विश्वसनीयता को हुआ।
कांग्रेस का यह कहना सही हो सकता है कि राजीव गांधी ने कोई रिश्वत नहीं ली, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री तय कर लें तो वह व्यवस्था से जो चाहे सो करा सकते हैं और उन्होंने सीबीआइ के साथ वही किया। यह समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ? सीबीआइ केंद्र सरकार का महज एक विभाग है। सीबीआइ के अनेक प्रमुखों ने अवकाश ग्रहण करने के बाद किताबें लिखी हैं तथा भाषण दिए हैं। इन सभी ने स्वीकार किया है कि सरकार मनमाने तरीके से काम करवाने के लिए उन पर दबाव डालती रहती थी। इतालवी नागरिक क्वात्रोची को दोषमुक्त करार देना सीबीआइ पर काला धब्बा है। इस बात में कोई शक नहीं कि सरकारी अधिकारियों, और खासकर विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को घोटाले की जानकारी थी, लेकिन जब कभी कुछ बोलने का वक्त आया तो वे दूसरी ओर देखते रहे। वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार भी गुनाह से मुक्त नहीं हो सकती। आखिर वाजपेयी सरकार क्यों नहीं कोई सबूत एकत्र कर पाई? दूसरे मामले में बंगारू लक्ष्मण को एक जाली हथियार सौदा दिलाने में मदद करने के लिए हथियारों के एक फर्जी व्यापारी से रिश्वत लेने का दोषी पाया गया है। असली बात यह है कि नौकरशाही इस कदर लचर हो गई है कि सत्ता में रहने वाली हर पार्टी उसे मनमाफिक तरीके से मोड़ सकती है। इसका प्रतिकूल असर हुआ है कि नौकरशाही किसी कानून का पालन नहीं करती, क्योंकि उसके पास जवाबदेही नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। साफ है कि इसमें शामिल किसी अधिकारी के खिलाफ कांग्रेस सरकार कोई कार्रवाई नहीं करेगी और न ही भाजपा ऐसा करेगी, जबकि संभवत: अगली सरकार या तो कांग्रेस की या फिर भाजपा की ही बनेगी।
प्रेस को भी बहुत कुछ सफाई देनी है। लिंडस्ट्रोम से जानकारी मिलने के बाद चित्रा सुब्रहमण्यम की रिपोर्ट छपी। लिंडस्ट्रोम कहते हैं मीडिया समाज का वाचडॉग है, लेकिन मीडिया पर कौन नजर रखता है? यही सवाल बंगारू लक्ष्मण के मामले में भी उठता है। तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन कर भ्रष्टाचार को उजागर किया, लेकिन उसे सरकार के गुस्से का शिकार बनना पड़ा। हथियार के डीलर के रूप में जिस पत्रकार ने खुद को पेश किया था उसे परेशान किया गया। ऐसा ही तहलका की पूरी टीम के साथ हुआ। कोई पत्रकार तहलका की मदद में आगे नहीं आया, क्योंकि इन्हें तहलका का तरीका मंजूर नहीं था।
लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं
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