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ओलेंड के सिर कांटो भरा ताज

जागरण मेहमान कोना
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फ्रांस के भावी राष्ट्रपति को लेकर मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच जो तस्वीर गढ़ने की कवायद लंबे समय से चल रही थी, वह निकोलस सरकोजी की हार के साथ ही खत्म हो गई। वैसे तो चुनाव के प्रथम चरण में आए नतीजों ने ही एक नया इतिहास लिखने का संकेत दे दिया था, लेकिन बीच-बीच में ऐसी अटकलें थी कि अगर दक्षिणपंथियों को पटाने में सरकोजी कामयाब हो जाते हैं तो पासा पलट सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब सवाल उठता है कि आखिर क्यों? क्या सरकोजी की निजी जीवनशैली इसके लिए जिम्मेदार रही या उनका नस्लवादी सांस्कृतिक रवैया या फिर यूरो जोन संकट का दलदल उन्हें ले डूबा? चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद पहले भाषण में फ्रांसुआ ओलेंड का कहना था, लोगों ने मुझे अपने भरोसे के काबिल समझा। इस पर मुझे गर्व है। पूरा यूरोप हमें देख रहा है..। इसमें कोई शक नहीं कि यूरोप पूंजीवादियों के विपरीत नियंत्रित अर्थव्यवस्था वाले नुमाइंदों की ओर देख रहा है, लेकिन क्या इस स्वप्नदर्शी वाक्यांश में निहित इच्छाओं को वह पूरा करने में सफल भी हो पांएगे? पिछले दिनों हुए मतदान में समाजवादी नेता ओलेंड को 51.9 प्रतिशत मत प्राप्त हुए, जबकि इसके विपरीत यूनियन फॉर पॉपुलर मूवमेंट के उम्मीदवार सरकोजी को 48.1 प्रतिशत मत हासिल हो सके। इस नतीजे से न तो यह कहा जा सकता है कि मतदाता पूरी तरह से सरकोजी के विरोध में थे और न ही यह कि वे ओलेंड के लिए पलकें बिछाए बैठे थे। दरअसल, यह एक तरह से यूरो जोन की आर्थिक रणनीति पर जनमत संग्रह था, जिसने सरकोजी की नीतियों को खारिज करते हुए ओलेंड को भावी रणनीति तय करने का अवसर दिया। ऐसा लगता है कि फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव में फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था और यूरो जोन संकट ने असली भूमिका निभाई।


पहले अमेरिका और फिर यूरोजोन संकट ने पूंजीवादी दुनिया में ही पूंजीवाद के प्रति दृष्टिकोण को काफी बदला है। फ्रांस में 80 से 95 प्रतिशत पत्रकार वामपंथी या धुर वामपंथी हैं, जिन्होंने सरकोजी के निजी जीवन की बुराइयों पर ही ध्यान केंद्रित करते हुए उसी एजेंडे को आगे बढ़ाया था। शायद यही कारण है कि निकोलस सरकोजी के हाथ से सत्ता छटक गई। दरअसल, निकोलस सरकोजी ने पिछले चुनाव में फ्रांस की जनता को बहुत सारे सब्जबाग दिखाए थे। दूसरे शब्दों में कहें तो पिछली बार जब फ्रांस की जनता ने उन्हें चुना था तो उसे लगा था कि वह राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन लाएंगे। लेकिन सरकोजी फ्रांस की जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। कुछ विश्लेषकों को सरकोजी की निजी जीवनशैली भले ही हार के लिए ज्यादा जिम्मेदार लग रही हो, लेकिन उसे पूरी तरह से जिम्मेदार मान लेना अतार्किक होगा। व्यक्तिगत जीवन में तो ओलेंड भी कुछ वैसी ही समानताएं रखते हैं। सामान्यतया जब तक लोगों का जीवन शासक वाली की जीवनशैली से प्रभावित नहीं होता, तब तक वे उसकी निजी जिंदगी को अपनी वोट शक्ति का निशाना नहीं बनाते। असल बात तो यह है कि यूरोपीय संकट का प्रभाव फ्रांस पर भी दिख रहा है और फ्रांस इस समय कमजोर अर्थव्यवस्था तथा अत्यधिक बेरोजगारी से जूझ रहा है। फ्रांस के आम मतदाताओं की सुनी जाए तो वेतन, कर और बेरोजगारी उनके लिए सबसे बड़ी समस्याएं हैं, जिनका वे निदान चाहते हैं।


फ्रांस में विदेशियों के गैरकानूनी प्रवास की समस्या विकराल रही है। दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल फ्रंट की उम्मीदवार मैरीन ली पेन ने तो इसकी तुलना सूनामी से की है। इसके साथ ही इस समय अंतरराष्ट्रीय राजनीति और यूरोप में भी फ्रांस की हैसियत पहले के मुकाबले कमजोर दिख रही है। इसके लिए भी सरकोजी को ही जिम्मेदार माना जा रहा है। बहरहाल, फ्रांस की जनता ने ओलेंड में देश को आर्थिक संकट से निकाल सकने वाले नायक की छवि देखकर उन्हें सत्ता सौंपी है, जिसे ओलेंड ने सरकार की ओर से प्रोत्साहन पैकेज आदि के वादों के जरिये खुद ही पेश किया था। अब ओलेंड जनआंकाक्षाओं के साथ सत्ता संभालेंगे। लेकिन जिन जनआकांक्षाओं को उभारकर वे सत्ता पर काबिज होने जा रहे हैं, क्या उनपर खरे उतर पाएंगे? ओलेंड को विरासत में कर्ज में डूबा हुआ और आर्थिक संकट से ग्रस्त फ्रांस मिला है, जिसे चुनाव जीतने के ठीक बाद ओलेंड यह कहते हुए स्वीकार रहे हंै, समस्या अब शुरू होती है। अब देखना यह है कि ओलेंड किस तरह से अपनी राह बनाएंगे। वैसे तो फ्रांस में वामपंथ बहुत दिन तक टिक नहीं पाया है।


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