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मौजूदा दौर में मंटो का महत्व

जागरण मेहमान कोना
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Uday Bhaskarब्रिटिश भारत में अविभाजित पंजाब प्रांत के लुधियाना जिले के समराला कस्बे के निकट पपरोडी गांव में 11 मई, 1912 को विख्यात कथाकार सआदत हसन मंटो का जन्म हुआ। वह नैसर्गिक प्रतिभा के धनी, लेकिन स्वतंत्र विचारों वाले लेखक थे। उन्होंने अगस्त 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के त्रासद अनुभवों को सीधे-सपाट तेज चुभने वाले शब्दों में अपनी तमाम उर्दू रचनाओं-कहानी, निबंध, अखबार में लिखे लेखों और व्यंग्यात्मक पत्रों में व्यक्त किया है। 1955 में लिखी टोबा टेक सिंह उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है, जिसमें उन्होंने कई चुभती कहानियां लिखी हैं, जो विभाजन के बाद की उजाड़ स्थितियों और लोगों के पागलपन को बखूबी दर्शाती हैं। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में थोड़े समय तक कार्य करने के बाद 1948 की शुरुआत में मंटो ने पाकिस्तान जाकर रहने का निर्णय लिया। पाकिस्तान जाने के बाद भी सच्चाइयों को उघाड़ने और उन पर बोलने से वह कभी नहीं रुके और इन सब पर वह तीक्ष्ण तरीके से अपनी लेखनी के माध्यम से व्यंग्यात्मक प्रहार करते रहे। वह पाकिस्तान में हावी रुढि़वादी विचारों को गलत मानते थे और इस कारण उसका विरोध भी करते रहे। त्रासदीपूर्ण विभाजन के समय में महिलाओं की दलाली, वेश्यावृत्ति और यौन हिंसा एक आम बात थी, जिस पर उन्हें बहुत गुस्सा भी आता था। इन सबको लेकर अपने लेखन में मंटो को कथित आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के कारण प्राय: अदालतों का चक्कर भी लगाना पड़ता था।

 

शराब के प्रति उनकी आसक्ति बहुत ज्यादा थी, जिस कारण लगभग 43 वर्ष की उम्र में 18 जनवरी, 1955 में अकेले पड़ चुके मंटो की दुखद मृत्यु हो गई। विभिन्न मुद्दों पर उनके गंभीर और उत्तेजनात्मक लेखन ने उर्दू साहित्य को विश्व में महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। वर्तमान में दक्षिण पूर्व एशिया के सामने मौजूदा चुनौतियों के संदर्भ में तकरीबन 50 वर्ष पूर्व रखे गए उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। यहां मैं इस बात को जोड़ना चाहूंगा कि मैं उर्दू पढ़ नहीं सकता और मंटो से मेरा परिचय उनके अनुवादित साहित्य की वजह से हो पाया। उनकी शुरुआती कहानियों में ऐसा बहुत कुछ था जो युवाओं को आकर्षित करता था। बाद के वर्षो में मंटो की रचनाओं में काफी अलग तरह का लेखन और विषयवस्तु देखने को मिलता है। मंटो ने जहां पाकिस्तान के कट्टरपंथी वर्ग का भविष्यदर्शी के रूप में चित्रण किया वहीं अपने पत्रों में उन्होंने अमेरिका की अंकल सैम के रूप में बखूबी खबर ली है। दूसरे रूपों में भी मंटो ने पहले ही व्यंग्यात्मक रूप में अमेरिकी मदद पर और पाकिस्तान के इस्लामीकरण और क्षरण पर काफी कुछ बता दिया था।

 

इसके अतिरिक्त 11 मई के जो दूसरे तार जुड़ते हैं वह है मंटो की जन्मशताब्दी। 11 मई, 1998 वह दिन है जब भारत ने अपनी परमाणु क्षमता का प्रदर्शन पूरी दुनिया के सामने किया। पाकिस्तान ने भी बाद के महीनों में इसका अनुसरण किया। पिछले 14 वर्षो में भारत और पाकिस्तान के संबंध बहुत तनावपूर्ण रहे हैं। मई 1999 में कारगिल युद्ध, दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमला और नवंबर 2008 में मंुबई पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद दोनों देशों के बीच संबंध और अधिक खराब हुए। इस दौरान 11 सितंबर की घटना के बाद के घटनाक्रम में जनरल परवेज मुशर्रफ ने सीमा के दोनों ओर आतंकवाद का दोहरा खेल खेला, जो एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के साथ ही अंतत: पूरी दुनिया के सामने उद्घाटित भी हुआ। मैं अपनी पहले की बात को दोहराते हुए कहना चाहूंगा कि पोखरण-2 परमाणु परीक्षण के 14 वर्षो बाद दक्षिण एशिया के इन दो पड़ोसी देशों के बीच डब्ल्यूएमडी यानी व्यापक विनाश वाले हथियारों की मौजूदगी को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। दोनों ही देशों के पास परमाणु हथियार हैं और इन्हें ले जा सकने वाले उपकरण भी। इनमें कम दूरी तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों से लेकर क्रूज मिसाइल तक शामिल हैं, लेकिन यह चीजें स्थिरता के लिए हमें संकट मुक्त होने का आश्वासन नहीं दे सकतीं। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोगों के बीच न केवल इन सबकी जानकारी हो, बल्कि स्वस्थ बहस भी कराई जाए। इस संदर्भ में मंटो काफी प्रासंगिक हैं।

 

विभाजनकारी मानसिकता और सद्भाव के जरिए सहमति वाले बिंदु तक पहुंचने में आने वाली अड़चनें इस क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। मजहबी आधार पर द्वि-राष्ट्र का जो सिद्धांत दिया गया था और जिसके आधार पर पाकिस्तान के निर्माण की मांग मनवाई गई वही पाकिस्तान आज अस्थिरता की चपेट में है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि भारत विभिन्नताओं वाला देश है और उसे अपनी इस विभिन्नता, सहिष्णुता और पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताने-बाने पर नाज भी है। इसके बावजूद 1984 में भड़के सिख विरोधी दंगे और गोधरा कांड तथा उसके बाद हुए गुजरात दंगों की व्यथा को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। ऐसी घटनाएं यह बताती हैं कि असहिष्णुता सामाजिक एकता के ताने-बाने को किस तरह छिन्न-भिन्न कर सकती है। मंटो ने जो कुछ लिखा है वह हमें यह याद दिलाता रहेगा कि इस तरह के पागलपन और खूनखराबे के कितने भयावह परिणाम हो सकते हैं। जब भी ऐसा कुछ होता है तो व्यक्ति, समुदाय, समाज और यहां तक कि राज्य-राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। मई का महीना इस क्षेत्र के लिए विशेष महत्व रखता है। बुद्ध, गुरुदेव टैगोर की जयंती इसी माह मनाई गई तो मंटो की यादें भी ताजा हुईं। यह माह नाभिकीय परीक्षण की यादों का भी है। मौजूदा समय में नाभिकीय क्षमता से परहेज करना भले ही संभव न हो, लेकिन हमें इसके खतरों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

 

 लेखक सी उदयभाष्‍कर  सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

 

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