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यह समझना बेहद कठिन है कि अदालत और जांच एजेंसियों पर भरोसा जताने वाले लोगों की तकलीफें उस वक्त क्यों बढ़ जाती हैं, जब इन्हीं संस्थाओं द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट दी जाती है। पिछले दिनों जब एसआइटी ने गुलबर्ग सोसाइटी दंगों में मुख्यमंत्री मोदी सहित 57 अन्य लोगों की भूमिका से इन्कार किया तो कांग्रेस सहित पंथनिरपेक्षता का ठेका उठा रखे लोगों द्वारा छाती धुनने का क्या मतलब है। विडंबना ही है कि सच के उजागर होने के बाद भी ये लोग मोदी विरोध का राग अलापने से बाज नहीं आ रहे हैं। उचित तो यह होता कि वे सच को ईमानदारी से स्वीकारते और जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता, मोदी को अनावश्यक शूली पर चढ़ाने की जिद से बचते। लेकिन तमाशा कहा जाएगा कि एसआइटी रिपोर्ट में मोदी को निर्दोष करार दिए जाने के बाद भी वे चैन से बैठने को तैयार नहीं। गत दिनों एमिकस क्यूरी यानी न्याय मित्र ने अपना मत क्या दिया, मोदी विरोधियों को एक और मौका मिल गया।
कांग्रेस और उस जैसी मानसिकता वाले समूहों को न तो अदालत पर भरोसा है और न ही उसके निर्देश पर गठित एसआइटी की रिपोर्ट पर। बस उनकी दिलचस्पी मोदी का विरोध कर किसी तरह राजनीतिक लाभ उठाना भर है। राजनीतिक लाभ के लिए न्याय भावना पर उंगली उठाना समाज और राष्ट्र दोनों के साथ छल है। ऐसा भी नहीं है कि एसआइटी का गठन नरेंद्र मोदी के आदेश पर हुआ या उनके इशारे पर रिपोर्ट तैयार की गई। एसआइटी का गठन गुजरात में दंगा भड़कने के बाद गुलबर्ग सोसायटी में मारे गए पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआइ के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में हुआ।
जकिया ने आरोप लगाया था कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी और राज्य के पुलिस अधिकारियों की शह पर दंगा हुआ। लेकिन एसआइटी की रिपोर्ट में आरोपियों के खिलाफ ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है, जिससे साबित हो कि इस दंगे में उन लोगों का हाथ रहा है। अब ऐसे में क्या उचित नहीं होता कि राजनीतिक दलों से लेकर पंथनिरपेक्षता का ठेका उठा रखे लोग अदालत का फैसला आने तक मोदी के खिलाफ आग उगलना बंद करते? किंतु दुर्भाग्य कि वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। मानो उन्होंने ठान लिया है कि मोदी का विरोध हर हाल में करेंगे, चाहे एसआइटी या न्यायालय उन्हें दूध का धुला साबित क्यों न कर दे। दुर्भावना की पराकाष्ठा ही कही जाएगी कि उन्हें यह भी बर्दाश्त नहीं है कि दुनिया मोदी को विकास पुरुष के रूप में देखे और जाने। अभी पिछले दिनों ही प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रिका टाइम ने अपने एशिया संस्करण के मुख पृष्ठ पर मोदी की तस्वीर छापी और उनके बारे में लेख भी प्रकाशित किया। पत्रिका का मानना है कि मोदी ही ऐसे नेता हैं, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को चुनौती दे सकते हैं।
पत्रिका के ब्वॉय फ्राम द बैकयार्ड शीर्षक लेख में मोदी को किसी बड़े घराने का राजनीतिक वारिस नहीं, बल्कि साधारण परिवार का हीरा कहा गया है, जिसकी चमक पूरी दुनिया देख रही है। किंतु मोदी विरोधी जमात को समंदर पार पहुंच चुकी मोदी की लोकप्रियता फूटी आंख नहीं सुहा रही है। देश में अगर कोई मोदी की विकासवादी छवि की तारीफ करता है तो मोदी विरोधी उन्हें सांप्रदायिक घोषित-साबित करने में देर नहीं लगाते हैं। याद होगा जब समाजसेवी अन्ना हजारे द्वारा कहा गया था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के आदर्शो से दूसरे राज्यों को सबक लेना चाहिए तो कांग्रेस ने किस तरह आसमान सिर पर उठा लिया था और ढकोसलेबाज पंथनिरपेक्षतावादियों के बदन में आग लग गई थी। उन्होंने समाजसेवी अन्ना पर चौतरफा हमला बोल दिया। अंत में अन्ना को अपना बचाव करते हुए कहना पड़ा कि मैं किसी के दंगा-फसाद का समर्थन नहीं करता, जिन्होंने अपने यहां जनहित में विकास के कार्य किए हैं, उसका समर्थन करता हूं। लेकिन कांग्रेस अन्ना की इस सफाई से मुतमइन नहीं हुई और अंत तक रट लगाए रही कि अन्ना संघ के इशारे पर आंदोलन चला रहे हैं।
दरअसल, कांग्रेस को 2014 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में अपनी दुर्दशा साफ दिख रही है। ऐसे में वह नरेंद्र मोदी को हौव्वा खड़ाकर देश के लोगों को खासकर अल्पसंख्यकों को गुमराह करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती है। पर वह अपने खेल में कितना कामयाब रहेगी यह वक्त बताएगा। गुजरात में नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए विकास कार्यो को झुठलाना उसके लिए आसान नहीं होगा।
लेखक अभिजीत मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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