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एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों का विवाद अब भीमराव अंबेडकर वाले कार्टून से आगे बढ़ चुका है। सोमवार को लोकसभा में हुई बहस से साफ हो गया कि अंबेडकर वाला कार्टून तो महज बहाना था, सांसदों की असली परेशानी कार्टूनों में उभरती उनकी खुद की छवि को लेकर है। लोकसभा की बहस में मुद्दा यह था कि इन पाठ्यपुस्तकों में सांसदों, राजनेताओं और राजनीतिक प्रक्रिया पर व्यंग्य करने वाले तमाम कार्टूनों को निकाला जाए। सरकार तुरंत मान भी गई और राजनीतिशास्त्र की तमाम किताबों की पूरी समीक्षा का आदेश दे दिया गया। फिर भी इन बड़े मुद्दों को किनारे रखते हुए एक बार डॉ. अंबेडकर वाले कार्टून पर गौर करना जरूरी है, क्योंकि यह एक राष्ट्रीय महानायक से जुड़ा संवेदनशील मुद्दा है। मैं इस विवाद से जितना परेशान हूं उससे कहीं ज्यादा हैरान। एनसीईआरटी की इन पुस्तकों ने पाठ्यपुस्तकों के इतिहास में पहली बार यह प्रयास किया था कि अंबेडकर के महत्व को ठीक से रेखांकित किया जाए। पहली बात, इन पाठ्यपुस्तकों ने अंबेडकर को गांधीजी और नेहरू के समकक्ष स्थान दिया है। इन पाठ्यपुस्तकों के दर्शन पर अंबेडकर के दर्शन की छाया है। ऐसी पाठ्यपुस्तक के किसी एक अंश पर उंगली रखकर यह कहना कि बाबासाहब का अपमान हुआ है, बहुत दुर्भाग्य की बात है। जिस कार्टून को विवादित कहा जा रहा है उसकी व्याख्या पूरी तरह से तोड़-मरोड़कर की गई है।
कार्टून में डॉ. अंबेडकर का अपमान देखने वाले लोग कम से कम छह बातों को नजरअंदाज कर रहे हैं। पहली गलतफहमी यह कि वे इस कार्टून को ठीक से देख तक नहीं रहे। कार्टून में संविधान सभा का रूपक घोंघा है। उस पर सवार डॉ. अंबेडकर के हाथ में संविधान सभा की नकेल है और उनके दूसरे हाथ में चाबुक है। उनके पीछे खड़े नेहरू भी चाबुक लिए हुए हैं। भला इसमें अपमान की क्या बात है? यह स्पष्ट नहीं है कि वह चाबुक किसलिए है? संविधान के लिए? डॉ. अंबेडकर के लिए या कि चेतावनी के लिए? इस कार्टून का ऐसा पाठ करना कि मानो नेहरू बाबासाहब पर चाबुक चला रहे हों-कार्टून की रेखाओं के अर्थ को उसके रेखांकन से बाहर जाकर समझना है। दूसरी गलतफहमी यह है कि इस कार्टून की आलोचना करने वाले कार्टून की भाषा को समझने से इन्कार कर रहे हैं। कार्टून में हमेशा प्रतीकों का प्रयोग होता है। चाबुक, लगाम जैसे प्रतीकों को ठेठ शाब्दिक अर्थ में समझ लेना बड़ी नासमझी है। इस तर्क से तो हर एक कार्टून अभद्र करार दिया जा सकता है। इस कार्टून की निंदा करने वालों की तीसरी गलतफहमी यह है उन्होंने उसके साथ छपे गद्यांश को पढ़ने की जहमत उठाना भी जरूरी नहीं समझा। कार्टून का मूल उद्देश्य है संविधान निर्माण में हुई अनपेक्षित देरी की ओर विद्यार्थियों का ध्यान आकृष्ट करना। यही बात प्रश्न के रूप में कार्टून के नीचे पूछी भी गई है। साथ के गद्यांश में उसका जवाब भी दिया गया है।
जवाब यह है कि भारत की संविधान सभा ने दुनिया की अन्य संविधान सभाओं की तुलना में ज्यादा गहरी और विस्तृत चर्चा की थी। इस देरी के कारण ही हमारा संविधान अधिक बेहतर बन सका। चौथी गलतफहमी है कि कार्टून के आलोचक इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि ठीक उसी पृष्ठ पर डॉ. अंबेडकर की कांग्रेस नेतृत्व से असहमति को दर्ज किया गया है। यह साफ-साफ बताया गया है कि अंबेडकर दलित समाज की दशा के लिए कांग्रेस और गांधी को जिम्मेदार मानते थे। मेरे विचार से इससे पहले संविधान पर लिखी गई किसी पाठ्यपुस्तक में इन मतभेदों का इतना स्पष्ट वर्णन नहीं किया गया था। पांचवीं गलतफहमी यह है कि अंबेडकर के कार्टून पर केंद्रित बहस में चर्चा ऐसे हो रही है मानो पुस्तक में एक ही कार्टून छपा है और वह अंबेडकर पर है। हकीकत यह है कि इस पुस्तक में दर्जन से अधिक कार्टून हैं और एनसीईआरटी की राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में सैकड़ों कार्टून हैं। जाहिर है, बीते वक्त के सभी शीर्ष नेताओं के कार्टून इस पुस्तक में हैं, इनमें महात्मा गांधी, बाबासाहब अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण आदि शामिल हैं। इन कार्टूनों में व्यंग्य है, तंज है, चोट है जो हर कार्टून में होनी भी चाहिए। अगर पाठ्यपुस्तक में सभी महत्वपूर्ण नेताओं के कार्टून हों, लेकिन अंबेडकर का न हो तो तो यह बहुत विचित्र लगता। छठवी गलतफहमी कार्टून के विवाद के बीच, इस पुस्तक और एनसीईआरटी की राजनीतिशास्त्र की अन्य पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर और उनके दर्शन के चित्रण को नजरअंदाज करने का है।
एनसीईआरटी की राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों में संविधान निर्माण की प्रक्रिया से विद्यार्थी का परिचय नौवीं कक्षा में होता है। उसमें गांधीजी, बाबासाहब और नेहरू, इन तीनों शीर्ष नेताओं के लंबे उद्धरणों के सहारे संविधान के दर्शन को समझाया गया है। दसवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक के एक अध्याय में सामाजिक गैर-बराबरी और जातिभेद पर चर्चा है जो डा. अंबेडकर के दर्शन से प्रेरित है। ऐसी पाठ्यपुस्तकों को अंबेडकर विरोधी या अंबेडकर का अपमान करने वाली कहने की हिम्मत वही लोग कर सकते हैं, जिन्हें इन पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने का अवसर नहीं मिला। डॉ. अंबेडकर के मान-सम्मान के प्रति चिंतित हर व्यक्ति का दायित्व बनता है कि वह अंबेडकर से कम से कम एक बात सीखे कि ध्यान से पढ़े बिना आलोचना न करें। डॉ. अंबेडकर और दलित समाज की भावनाओं के नाम पर चलाई जा रही इस मुहिम ने दलित आंदोलन का दूरगामी नुकसान किया है। बाबासाहब अंबेडकर की छवि को केवल दलित समाज के मान-सम्मान से जोड़ना इस महानायक की राष्ट्रीय नेता के रूप में बनती हुई छवि को धक्का पहुंचाता है। अगर गांधीजी का मान-सम्मान किसी समाज विशेष की बपौती नहीं है तो बाबासाहब के मान-सम्मान को किसी एक समुदाय तक सीमित क्यों किया जाए? जो बुद्धिजीवी यह कहते हैं कि गांधी, नेहरू और इंदिरा पर तो कार्टून बन सकते हैं, लेकिन अंबेडकर पर नहीं, वे जाने-अनजाने उसी अस्पृश्यता की मानसिकता का हिस्सा बनते हैं जो हिंदू समाज का कलंक रहा है। जो राजनेता भीमराव अंबेडकर के नाम पर फूहड़ और घिनौनी राजनीति करते हैं, वे पूरे देश में दलित आंदोलन और बाबासाहब की छवि को धूमिल करते हैं। डॉ. अंबेडकर जैसे युग परिवर्तक चिंतक और राजनेता के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम किसी बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता या नेता को उस असहिष्णुता का शिकार न बनने दें जिसका सामना डॉ. अंबेडकर को अपने जीवन में करना पड़ा था।
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