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सपनों को मत तोडि़ए

जागरण मेहमान कोना
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आइएससी, 12वीं व आरसीएसई 10वीं के नतीजे बता रहे हैं कि एक बार फिर से लड़कियों ने लड़कों को पीछे छोड़ दिया है। यह सफलता आज की नहीं है। आज से सात दशक पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम ग‌र्ल्स स्कूल और कॉलेज की छात्राओं ने बीटी परीक्षा को छोड़कर शेष सभी परीक्षाओं में शत प्रतिशत अंक लिए थे, जबकि छात्रों का परिणाम इतना शानदार नहीं था। इस देश की बेटियां विपरीत परिस्थितियों और कमतर सुविधाओं के बीच अपना मुकाम न केवल ढूंढ़ रही हैं, बल्कि यह भी सिद्ध कर रही हैं कि उनकी प्रतिभा किसी से कम नहीं। वहीं दूसरी ओर आइआइटी की प्रवेश परीक्षा में 150431 लड़कियों में से 2886 ने सफलता हासिल की। लड़कियों का उच्च शिक्षा से दूर रहना भारतीय समाज की दोहरी सोच की परिणति है। आज भी जब बात पढ़ाने-लिखाने की हो तो बेटे और बेटियों के बीच अंतर साफ देखा जा सकता है। बेटों को सुविधाएं देने के लिए माता-पिता अपनी इच्छाओं और जरूरतों को खत्म करने से भी गुरेज नहीं करते। परंतु बेटियों से बिना किसी शिकायत के जीवन जीने की अपेक्षा की जाती है। बदलते परिवेश में, लड़कियां भी लड़कों की भांति, बेहतर से बेहतर पदों पर आसीन होना चाहती हैं। परंतु उनके सपने परंपरागत भारतीय समाज में दम तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं है कि बच्चियों को शिक्षा दी ही नहीं जा रही। पिछले कुछ दशकों में माता-पिता अपनी बच्चियों की शिक्षा के प्रति जागरूक हो गए हैं, परंतु वह जागरूकता बेटियों को बेटों के समकक्ष मानने की पहचान नहीं है। असल में सच इसका उलटा है। दरअसल, महानगरों से लेकर छोटे शहरों में सर्वथा दो तरह की धाराएं बहती दिख रही हैं।


पढ़े-लिखों की नासमझी


उच्च-मध्यमवर्गीय परिवार में ग्रेजुएशन की डिग्री एक सर्टिफिकेट का काम करती है। उच्च पदस्थापित मोटी तनख्वाह पाते वर की तलाश के लिए वहीं निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसी बहुओं की मांग बढ़ गई है जो घर को संभालने के साथ-साथ उनकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने में सहयोग दें। परंतु यहां भी एक शर्त यही रहती है कि काम ऐसा हो जिससे परिवार को पूरा समय दिया जा सके। इस पूरे गठजोड़ के बीच अगर कुछ दरक रहा है तो वह है हमारी बेटियों के सपने जो उनकी आंखों ने बिना यह जाने बुन लिए थे कि समाज कभी भी उनका नहीं हुआ है। कमोबेश हर भारतीय परिवार में लड़कियों को उन्हीं विषयों को लेने के लिए बाध्य किया जाता है, जिसमें घर पर ही रहकर पढ़ाई की जा सके। कभी आर्थिक तो कभी सामाजिक दुहाई दे कर उन्हें पेशेवर शिक्षा लेने से रोक दिया जाता है। पर हां अगर बात घर के बेटे की हो तो कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती। यह समाज बड़ी ही चतुराई से लड़कियों को येन-केन प्रकारेण वह करने के लिए विवश करता है जो वह चाहता है।


1964-66 के नेशनल कमीशन ऑन एजुकेशन की 1968 की रिपोर्ट की अनुशंसा से पूर्व लड़कियों के लिए गणित और विज्ञान की शिक्षा जरूरी नहीं थी और इस रिपोर्ट की अनुशंसा के बाद भी कार्यरूप में इसे तब्दील होने में लंबा समय लग गया। आज भी बेटी को बेसिक विषयों को लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिससे वह उन्हीं पेशे को चुने, जिन्हें उनके लिए निर्धारित किया गया है। भारतीय परिवार चाहे कितना भी धनाढय और शिक्षित हो उसका अंततोगत्वा लक्ष्य बेटी का ब्याह होता है और यह आंकने के बाद कि विवाह के बाजार में दूल्हे किस पेशे की अपेक्षा अपनी पत्नी से कर रहे हैं, बेटियों को उन्हीं मापदंडों के अनुरूप विषय चुनने के लिए विवश किया जाता है। बीए, बीएड मानक बन चुके हैं सहज वर उपलब्धता के और जब तक ये मानक बने रहेंगे तब तक बेटियों को, उनकी इच्छा के विपरीत विषय लेने के लिए विवश किया जाएगा। और यह तब तक चलता रहेगा जब तक हमारे मन-मस्तिष्क में बेटे और बेटियों के प्रति भेदभाव कायम रहेगा।


लेखिका डॉ. ऋतु सारस्वत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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