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जनता की कसौटी पर संप्रग-2 के तीन साल

जागरण मेहमान कोना
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Awdhesh Kumar

संप्रग सरकार की दूसरी पारी को निराशाजनक बताने से यह ध्वनि निकलती है मानो संप्रग की पहली सरकार समय की आवश्यकताओं और देश की उम्मीदों पर खरी उतरी थी। तथ्यों और विचारों की किसी कसौटी पर इस निष्कर्ष को सही नहीं ठहराया जा सकता है। हां, संप्रग प्रथम के अंत और द्वितीय के तीन वर्ष पूरा होने के समय के पूरे माहौल में अंतर अवश्य है। संप्रग प्रथम की विदाई के वक्त लोगों के जेहन में जुलाई 2008 में वामदलों द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद विश्वासमत प्रस्ताव पर बहस के दौरान सदन पटल पर विपक्षी भाजपा सांसदों द्वारा लहराई गई नोटो की गड्डियां थीं। उस समय सरकार पर प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार का यह सबसे बड़ा आरोप था, जिसे वह आज तक नकार रही है, लेकिन समूचा देश उससे सहमत न तब था और न आज है। सपं्रग-2 के तीन वर्ष पूरा होने पर तो भ्रष्टाचार में आकंठ निमग्नता का ही आलम है। भ्रष्टाचार के जो खुलासे हुए हैं, सिर्फ उनकी सूची और उनमें घोटालों की अनुमानित राशि को जोड़ दिया जाए तो यह हमारे कुल घरेलू और विदेशी कर्ज के आसपास पहुंच जाएगा। सरकार के चेहरे पर लगी कालिमा का यह ऐसा पहलू है, जिसे नजरअंदाज करके हम इसके तीन साल के प्रदर्शन का मूल्यांकन कर ही नहीं सकते। तो भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी सरकार की छवि और उसके संदर्भ में जन मनोविज्ञान क्या हो सकता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं।

 

उथल-पुथल भरा दौर सरकार की छवि और इसके प्रति जन असंतोष का स्वाभाविक उभार केवल भ्रष्टाचार के कारण नहीं हो सकता। आखिर राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारों के नेता भी भ्रष्टाचार के आरोपों में फंस रहे हैं। वस्तुत: संप्रग-2 के तीन साल पूरे होने पर आर्थिक-वित्तीय संकट के साथ सुरक्षा, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी मोर्चो पर जैसी भयावह स्थिति है, वैसी पहली सरकार की विदाई के समय नहीं थी। यह अलग बात है कि इन सारे बहुआयामी संकटों की जड़ संप्रग-1 के दौरान ही पड़ चुकी थी। यह ऐसी स्थिति है, जिसकी थोड़ी बहुत तुलना 1990-91 से की जा सकती है, जब आर्थिक और वित्तीय संकट, राजनीतिक अस्थिरता एवं सामाजिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल का सामना देश कर रहा था। किंतु उस समय तुरत लोगों के हाथों मतदान द्वारा राजनीतिक परिवर्तन का अवसर आया और बड़े वर्ग को उम्मीद थी कि हम इन सारे संकटों से उबर जाएंगे। आज देश घबराहट एवं भविष्य के प्रति अत्यंत ही नाउम्मीदी के सामूहिक मनोविज्ञान के दौर से गुजर रहा है।

 

वास्तव में इस समय समग्र संकटों से भी बड़ा संकट उस किस्म की उम्मीद और आत्मविश्वास का अभाव है। समस्याओं से जूझकर उस पर विजय पाने का आत्मविश्वास लुप्त हो जाने से बड़ा संकट किसी देश के लिए कुछ नहीं हो सकता। इस निष्कर्ष में अगर किसी को अतिवाद की बू आए तो वह अपने आपसे कुछ सवाल पूछे? मसलन, क्या कोई यह विश्वासपूर्वक कह सकता है कि पिछले चार सालों से महंगाई पर नियंत्रण के लिए सारी प्रशासनिक, आर्थिक और मौद्रिक नीतियां अपना लेने वाली सरकार आगे कोई चमत्कार कर देगी? क्या हमारे वित्तमंत्री ने गहराते आर्थिक संकट से निपटने के लिए जिस सख्ती, संयम और मितव्ययिता की बात की है, उसका असर देश पर कहीं दिख रहा है? क्या कोई कह सकता है कि देश या खुद प्रणब मुखर्जी की सरकार उनकी अपील का अनुसरण करेगी? अगर नहीं तो फिर हम आर्थिक एवं वित्तीय संकट से बाहर निकलेंगे कैसे? इसी प्रकार क्या नक्सलियों के नए दौर का शमन करने में सरकार सफल हो पाएगी? क्या आतंकवाद निरोधक केंद्र की स्थापना के विरोध को शांत कर वह शीघ्र इसका गठन करने में सफल होगी? ऐसा कोई भी सवाल आप अपने आप से करिए, उत्तर हमेशा नहीं में ही आएगा। तो फिर आर्थिक और सुरक्षा के मोर्चे पर उम्मीद कहां से पैदा होगी? वर्तमान आर्थिक ढांचे में ही विकास दर एक दशक से ज्यादा के औसत से नीचे जा रही है।

 

 यूपीए 2 के तीन साल: सवालों से भरा समय

 

औद्योगिक उत्पादन मंदी के दौर में पहुंच चुका है। सरकार का कर्ज बढ़ता जा रहा है। राजकोषीय घाटा कम होने के बजाय उछल रहा है। व्यापार घाटा सारे रिकॉर्ड को लांघ चुका है। बेरोजगारी बढ़ रही है। बैंकों की माली हालत खराब हो रही है और जले पर नमक रगड़ते रहने के लिए महंगाई का राक्षस अपना बदन फुलाए हुए है। ये सारी चुनौतियां आर्थिक आपात स्थिति की द्योतक हैं। यह कहने भर से तो इनका समाधान नहीं हो जाएगा कि सारी दुनिया आर्थिक संकट से जूझ रही है और हमारा उन पर कोई वश नहीं। उल्टे इससे यह ध्वनि निकलती है कि वैश्विक मंदी के प्रभाव से हमारी समस्याएं बढ़ रही हैं और चूंकि यह हमारे वश में नहीं, इसलिए हमारे पास इसके दुष्परिणामों को झेलने के अलावा और कोई चारा नहीं। इससे तो भय और नाउम्मीदी का आयाम और फैलता है। यह पूछा जा सकता है कि मंदी की मार तो अमेरिका और यूरोप पर ज्यादा है, लेकिन हमारा रुपया अमेरिकी डॉलर की तुलना में रिकॉर्ड स्तर पर क्यों गिर गया? पिछले एक वर्ष में ही इसमें करीब 24 प्रतिशत की गिरावट आई है। यह असाधारण स्थिति है।

 

दुनिया को कोसना ठीक नहीं माना कि वैश्विक पूंजीवाद के नृशंस भूमंडलीकरण ने इस समय दुनिया को संकट की जिन अंधेरी सुरंगों में फंसा दिया है, उससे बाहर निकलना मुश्किल है। पर इस नीति की पैरोकार सरकार अगर इसका आभास नहीं कर पाई या कर पा रही है और इससे बचाव के लिए वित्तीय प्रबंधन का बांध नहीं खड़ा कर पाई तो इसका दोष किसके सिर जाएगा? सच यह है कि सरकार आर्थिक और वित्तीय चुनौतियों को महसूस करते हुए भी कुछ कारगर कदम नहीं उठा पाई। गठजोड़ की मजबूरी का रोना रोया जा रहा है। ऐसा लगता है, जैसे खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश, पेंशन सुधार या ऐसे एक-दो कदमों को राजनीतिक समर्थन मिल जाता तो देश का कायाकल्प हो जाता। जिन देशों के खुदरा बाजार ढांचे का हम अनुसरण करना चाहते हैं, वे खुद संकट में हैं। अगर विरोध हुआ भी तो सरकार ने तत्काल संभावना नि:शेष दिखने के बावजूद पहले से व्याप्त खुदरा कारोबार को और बेहतर और शक्तिशाली बनाने का कोई कदम नहीं उठाया है। सुरक्षा के मोर्चे पर भी गठजोड़ एवं प्रदेशों की सरकारों को जिम्मेवार ठहराया जा रहा है। एक हद तक यह बात सही है, पर राजनीतिक परिदृश्य जो है और जैसा है, उसी में काम करना है। किस पर करें भरोसा कुल मिलाकर संप्रग-2 सरकार के तीन वर्ष पूरा होते-होते देश ऐसी अवस्था में पहुंच गया है, जहां एक साथ बहुआयामी संकट, समस्याएं और चुनौतियां गहरा चुकी हैं। पर किसी को यह विश्वास नहीं कि इससे हम उबर पाएंगे। प्रकारांतर से यह राजनीतिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास का द्योतक है।

 

शासन की किसी भी व्यवस्था में चुनौतियों का सही आकलन कर देश के सामने प्रस्तुत करने, उनके समाधान के लिए रास्ता निकालने एवं देश को उस दिशा में अग्रसर करने का दायित्व राजनीतिक नेतृत्व का ही है। ऐसा राजनीतिक नेतृत्व ही लोगों में चुनौतियों पर विजय पाने का आत्मविश्वास पैदा कर सकता है। आप पूरे संप्रग पर नजर दौड़ा लीजिए, इस एक स्वाभाविक कसौटी पर किसी नेता के खरे उतरने की बात तो दूर, उस दिशा में विचार करने वाला भी कोई नजर नहीं आएगा। यह स्थिति केवल संप्रग तक सीमित नहीं है। विपक्ष में भी किसी नेता या नेताओं के समूह में ऐसी काबिलियत नहीं दिखाई देती। संसदीय लोकतंत्र वाले देश के लिए इससे बुरा समय और कुछ नहीं हो सकता है। इसलिए संप्रग-2 की तीन वर्षीय जीवन लीला पूरी होने का क्षण हमारे लिए कहीं ज्यादा गंभीर चिंता और डर का कारण बन रहा है। अंदर से यह डरावना प्रश्न बार-बार उभर रहा है कि आखिर हमारे देश का होगा क्या? जितना इसका उत्तर तलाशने की कोशिश करता हूं, उतना अंधियारा और डर बढ़ता जाता है।

 

अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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