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सभ्य समाज पर कलंक

जागरण मेहमान कोना
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हाल ही में पटना में मामूली सी बात पर एक नौकर की हत्या कर दी गई। पिछले दिनों दिल्ली में भी डॉक्टर दंपती के घर से एक नाबालिग बच्ची को मुक्त कराया गया था। डॉक्टर दंपती द्वारा घर के कामकाज के लिए रखी इस बच्ची पर वषरें से जुल्म किए जा रहे थे। इसे न ही तो ढंग से खाना दिया जाता था और न ही उसके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। हद तो तब हो गई जब घूमने के लिए विदेश जाते वक्त बच्ची को घर में बंद कर दिया गया। घरेलू नौकरों के शोषण की ये एक-दो कहानियां नहीं है। इससे पहले भी इस तरह के मामले प्रकाश में आते रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शिक्षित समाज में इस तरह की घटनाएं ज्यादा घट रही हैं। यह वही शिक्षित समाज है जो बालश्रम को बढ़ावा देने का अपराध तो करता ही है, साथ ही घरेलू नौकरों के रूप में काम कर रहे बच्चों के प्रति जरूरी मानवीय संवेदना भी नहीं दिखाता है। कभी घरेलू नौकरों के यौन शोषण की घटनाएं सामने आती हैं तो कभी उनके साथ मारपीट की घटनाएं सभ्य समाज पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। विडंबना यह है कि शिक्षित समाज में इस दोहरे अपराध के लिए शर्म का भाव नहीं है। दिन-प्रतिदिन ऐसी घिनौनी घटनाएं सामने आने के बाद भी हमारी चेतना जागती नहीं है। हम भाषणों एवं लेखों में बालश्रम के विरोध में अपने विचार प्रकट करते रहते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से स्वयं ही बालश्रम जैसे अपराध को बढ़ावा देने में भी पीछे नहीं रहते। इसी खोखले आदर्शवाद के कारण इस दौर में ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही है। यह हमारे पढ़े-लिखे समाज का वह चेहरा है जिस पर न जाने कितने मुखौटे हैं। इन मुखौटों के पीछे हमें अनेक भयावह चेहरे दिखाई देंगे जो पढ़ाई-लिखाई के मेकअप से भी निखरते नहीं हैं।


सवाल यह है कि पढ़ाई-लिखाई हमारी मानवीय संवेदनाओं को जगाती है या फिर हमारे अंदर केवल स्वार्थपरक समझ विकसित कर बची-कुची मानवीयता को भी खत्म कर देती है? सवाल यह भी है कि हम पढ़ते-लिखते क्यों हैं? एक बेहतर इंसान बनने के लिए या फिर केवल डॉक्टर, इंजीनियर और मैनेजर बनकर पैसा कमाने के लिए? पढ़े-लिखे समाज पर लगे कलंक को मिटाने के लिए हमें इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं खोजने होंगे। कभी-कभी हम मानवीयता भूलकर जरूरत से ज्यादा उग्र हो जाते हैं। अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए भी हम कामवाली या फिर अपने घरेलू नौकरों को डराते-धमकाते हैं। ऐसे समय हमारी पढ़ाई-लिखाई कहां चली जाती है? दरअसल, प्राचीन समय से ही शिक्षा को मनुष्य के संपूर्ण विकास के लिए जिम्मेदार माना गया। बुद्धि के आधार पर ही मनुष्य को जानवरों से अलग माना गया।


इंसान ने पढ़ाई-लिखाई के माध्यम से ही अपनी बुद्धि के द्वार खोलकर इतिहास रचा। यह सर्वविदित है कि शिक्षा ने इंसान को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इस दौर में हमने शिक्षा का उपयोग अपना हित साधने के लिए करना शुरू कर दिया। इसीलिए शिक्षा के माध्यम से एक बेहतर इंसान बनने की लालसा हमसे दूर होती जा रही है, जबकि ज्यादा पैसा कमाने की लालसा बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि आज शिक्षित समाज भी सही और गलत का फर्क नहीं कर पा रहा है। इस दौर में शिक्षित समाज आपराधिक समाज में तब्दील हो रहा है। दोहरा मापदंड भी इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। जिस तरह की भावनाएं हम अपने बच्चों के लिए रखते हैं उस तरह की भावनाएं घरेलू नौकरों के रूप में काम कर रहे बच्चों के लिए नहीं रखते हैं। दोहरे मापदंड का यह अंकुर ही भविष्य में शोषण की मानसिकता को पुख्ता करता है। यही कारण है कि आज समाज में इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। लोकतंत्र में सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। किसी से काम कराते समय हमें अपने अधिकार तो याद रहते हैं, लेकिन काम करने वाले के अधिकारों को हम महत्व नहीं देते। मानवाधिकारों की हत्या करके हम एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज नहीं बना सकते। इस शिक्षित समाज में शिक्षा कहां है यह हम सभी को सोचना होगा।


लेखक रोहित कौशिक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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