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शिक्षा में वैचारिक प्रभाव

जागरण मेहमान कोना
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S. Shankarकार्टून विवाद के संदर्भ में शिक्षा को वैचारिक प्रभावों से मुक्त बनाने की जरूरत जता रहे हैं एस. शंकर


बच्चों की पाठ्य पुस्तक में कार्टून विवाद डॉ. अंबेडकर के प्रति आदर-अनादर या आम तौर पर कार्टूनों की सैद्धांतिक उपयोगिता में सिमट कर रह गया। अधिक महत्वपूर्ण बात उपेक्षित सी रह गई कि राजनीति विज्ञान की औपचारिक शिक्षा का उद्देश्य और कथ्य क्या होता है? फिर बच्चों, किशोरों के लिए यह शिक्षा कैसी होनी चाहिए? कुछ सांसदों ने यह बात उठाई, पर बहस में इसे महत्व नहीं मिला। इससे दिखा कि राजनीति और बच्चों की शिक्षा के प्रति बौद्धिक समझ कितनी अधकचरी है। बड़ा प्रश्न यह है कि क्या पाठ अपने पाठकों को राजनीति, कानून, संविधान, राज्यतंत्र की प्राथमिक जानकारी देते हैं या नहीं? उसे पढ़कर क्या विद्यार्थी जान सकेगा कि संविधान होता क्या है? संविधान, कानून और दूसरे राजकीय नियम-कायदों में क्या अंतर है? संसद या न्यायतंत्र की संरचना और उनके प्रमुख कार्य क्या हैं? यदि चित्रों, कार्टूनों, पोस्टरों और नारों की भरमार और बहस में आनंदित उत्तेजित होने में यह बातें रह जाएं तो निश्चय मानिए कि हमारे बुद्धिजीवी स्वयं भारी अज्ञान में हैं। कई बुद्धिजीवियों ने दोहराया है कि लोगों ने उन कार्टूनों का अर्थ नहीं समझा। तब उन अबोध पाठकों से क्या आशा थी जिन्हें अभी जीवन का वह अनुभव ही नहीं जिससे वे राजनीतिक प्रसंगों के उचित-अनुचित की पहचान कर सकें? फिर तो मानना पड़ेगा कि लोग बच्चों की चिंता के बदले आपसी पार्टी बहस और सार्वजनिक मंच पर अंक अर्जन को महत्व देने की फिराक में रहते हैं। यदि ऐसा नहीं तो फिर यह आरोप सही बैठेगा कि नेताओं के प्रति दुर्भाव भरने के लिए ही सब कुछ लिखा बोला जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उभरता है कि यह राजनीति की शिक्षा है या शिक्षा का राजनीतिकरण? किसी विषय के व्यवस्थित ज्ञान को शिक्षा कहते हैं, जबकि मतवादीकरण किसी को एक विशेष नजरिए में फांसना, किसी राजनीतिक मताग्रह का समर्थक बनाना है।


कार्टून विवाद – राजनीतिक पैंतरेबाजी या महापुरुषों की अस्मिता का सवाल ?


संसद और सांसदों के कार्य, अधिकार आदि व्यवस्थित रूप से बताना शिक्षा है। इसका इससे कोई संबंध नहीं कि अमुक नेता कैसे हैं, लेकिन यदि संसद, सरकार, न्यायपालिका की संरचना आदि के सरल, सुबोध, तथ्य विवरण के बदले नेताओं, न्यायाधीशों, किन्हीं विशेष समूहों, समुदायों की खिल्ली उड़ाने वाली चीजें दें तो यह नि:संदेह मतवादीकरण होगा। दुर्भाग्यवश यही विचारधारा हमारे बौद्धिक वर्ग पर हावी है। अभी चर्चित एक प्रोफेसर के शब्दों में सांसदों की असली परेशानी कार्टूनों में उभरती उनकी खुद की छवि को लेकर है इसलिए कि वे कार्टून नेताओं और राजनीतिक प्रक्रिया पर व्यंग्य करते हैं। लेकिन वे भूलते हैं कि ठीक इन्हीं कारणों से वैसी चीजें शिक्षाप्रद नहीं, बल्कि मतवादी सामग्री हो जाती हैं। पाठक को बुनियादी जानकारी देने के बदले पहले से एक विशेष वितृष्ण मनोभाव पैदा करती हैं। यह राजनीतिक प्रचारकों की चाह होती है, किसी अच्छे शिक्षक या सच्चे विद्वान की नहीं। अपने राजनीतिक विचार के अनुरूप चित्रण करने के लिए किसी मतवादी को सच-झूठ और संतुलित-असंतुलित के भेद की चिंता नहीं रहती। उसका लक्ष्य ही होता है लोगों को किसी तरह अपने गुटीय मतवाद में लाने का जतन करना। यदि समाज विज्ञान विषयों की औपचारिक शिक्षा में वही नारेबाजी हो तो वह शिक्षा की ओट में मतवादीकरण है।


विद्यार्थियों और उनके माता पिताओं के साथ छल है। इसलिए जब समाज विज्ञान विषयों की पाठ्य सामग्री की चर्चा हो रही हो तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेना असली बात से ध्यान बंटाने जैसा है। निजी विचारों, टीका-टिप्पणियों सत्ताधारी या विरोधी नेताओं, संस्थाओं की आलोचना करने के लिए अखबार, पार्टी से लेकर टीवी चैनल तक बहुतेरे मंच हैं, जबकि पाठ्य पुस्तक मानक संदर्भ ग्रंथ होते हैं। शब्द कोष की तरह उसमें किसी विषय की प्रामाणिक निर्विवाद प्रस्तुति रहती है। यदि उसमें लिखी बातें राजनीतिक फुटबॉल जैसी उछलने लगें तो चिंता होनी चाहिए। बुद्धिजीवियों को केवल अपनी राजनीतिक पंथीय मनोभावना की तुष्टि से बचना चाहिए। असंख्य पुस्तकों, लेखों, टीका टिप्पणियों में यही भावना झलकती है। उसमें शिक्षा की चिंता से अधिक अपनी-अपनी राजनीतिक झक फिर से दोहराने, विरोधियों को पीटने की प्रवृत्ति साफ दिखती है। इसी मनोभावना में विचारधारा ग्रस्त प्रोफेसरों, लेखकों ने लंबे समय से विश्वविद्यालय से लेकर स्कूली शिक्षा तक को अपनी राजनीतिक झक फैलाने का औजार बना लिया है। असली चिंता इसी पर होनी चाहिए। हमें सोवियत अनुभव से सीखना चाहिए कि सात दशकों तक रूस में मतवादीकरण को ही समाज विज्ञान शिक्षा मानने के क्या-क्या बौद्धिक, राजनीतिक दुष्परिणाम हुए। उसी रूसी मतवाद से घोर सहानुभूति रखने वाले लोग ही हमारे प्रमुख विश्वविद्यालयों, अकादमिक संस्थानों का दुरुपयोग करते हैं।


आखिर किसी विषय की सम्यक जानकारी के बदले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ओर बहस क्यों घुमा दी जाती है, जबकि परख इसकी होनी चाहिए थी कि किसी पाठ्य पुस्तक से पाठकों ने क्या सीखा और क्या नहीं सीख सकते? समाज शिक्षण विषयों में राजनीति विज्ञान और भी कठिन विषय है। कई लोग राजनीतिक प्रचार को राजनीतिक ज्ञान समझ लेते हैं। मगर टिप्पणियां करने वाले चुनावी विश्लेषक और यहां तक कि असंख्य नेता व प्रचारक भी सदैव कोई राजनीति विज्ञान के ज्ञाता नहीं होते। कौटिल्य, प्लेटो, मा‌र्क्स के दर्शन चिंतन से प्राय: वे वैसे ही कोरे होते हैं जैसे दूसरे लोग। यही बात विदेश नीति, फासिज्म, मानवाधिकार, सेक्युलरिज्म, न्याय आदि अवधारणाओं और विविध समस्याओं की समझ के प्रति भी सच है। इन्हें गंभीर अध्ययन करके ही जाना जा सकता है। टीका टिप्पणियां करने या मजाक बनाने से इसका कोई संबंध नहीं। टिप्पणियां और कार्टून किसी व्यक्ति या समूह की समझ की अभिव्यक्ति हैं। वह स्वत: कोई ज्ञान नहीं है। वस्तुत: प्रामाणिक शोध, ठोस तथ्यों और विश्वस्त आंकड़ों के आधार पर निकलने वाले निष्कषरें को ही किसी पाठ्य पुस्तक में स्थान देने का चलन रहा है। अनुमान, दलगत विश्वास या लोग कहते हैं के आधार पर नहीं। जैसे लोकतांत्रिक देशों के स्वतंत्र न्यायालयों में ठोस सबूतों के आधार पर ही किसी को दोषी या निर्दोष ठहराया जाता है। समाज विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में विशेषकर कम उम्र विद्यार्थियों की पुस्तकों में उसी कड़ाई से केवल तथ्य और प्रामाणिक निष्कर्ष देने चाहिए। ताकि विद्यार्थी की स्वतंत्र चिंतन शक्ति विकसित हो। हमारे नेता ऐसे हैं, न्यायाधीश ऐसे हैं, अमेरिका ऐसा है, इस तरह के खास मनोभाव वाले बने-बनाए पक्षपाती निष्कर्ष शिक्षा नहीं, वरन राजनीतिक प्रचार हैं। उसमें कोई बात सच भी हो तो उसे लिखने की जगह पत्र पत्रिकाएं हैं, मगर औपचारिक शिक्षा में वैसी मताग्रही बातों से बचना जरूरी है।


लेखक एस. शंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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