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प्रदूषित होता भूजल

जागरण मेहमान कोना
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हमारे देश में भूजल के गिरते स्तर और उसके बढ़ते प्रदूषण पर समय-समय पर चिंता जतलाई जाती रही है। पर्यावरण संबंधी तमाम सरकारी, गैर सरकारी अध्ययन हमें लगातार आगाह करते रहे हैं कि जल प्रदूषण की समस्या इतने भयानक स्तर तक पहुंच गई है कि यदि समय रहते इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो निकट भविष्य में हमारे लिए पीने के पानी के भी लाले पड़ जाएंगे। अब खुद जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़े इन तथ्यों की पुष्टि कर रहे हैं। देश के करीब 650 जिलों के 158 इलाकों में भूजल खारा हो चुका है, 267 जिलों के विभिन्न क्षेत्रों में फ्लोराइड की अधिकता है और 385 जिलों में नाइट्रेट की मात्रा तय मानकों से काफी ज्यादा है। इसी तरह कई इलाकों के पानी में आर्सेनिक, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम और लौह तत्वों की भारी मात्रा मौजूद है, जो आदमी की सेहत को नुकसान पहुंचा रही है। ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें नजरअंदाज करना खतरे से खाली नहीं। सच बात तो यह है कि स्थिति खतरे के निशान के बिल्कुल करीब पहुंच गई है। यदि समय रहते इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाए गए, तो हमारी आने वाली पीढ़ीयां इसका खामियाजा भुगतेंगी। अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे हैं, जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में जल प्रदूषण की भयावह स्थिति के लिए सरकार को फटकारा था। सीएजी ने रिपोर्ट में जल प्रदूषण पर विस्तार से चर्चा करते हुए सरकार को आगाह किया था कि वह इस दिशा में जल्द ही कुछ कारगर कदम उठाए।


सीएजी रिपोर्ट के अनुसार हमारे घरों में नल के जरिए जिस पानी की आपूर्ति की जाती है, वह आम तौर पर प्रदूषित और कई बीमारियों को पैदा करने वाले जीवाणुओं से भरा होता है। यही नहीं खतरा सिर्फ पेय जल तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि हमारी नदियां भी प्रदूषित होते-होते जहरीली हो गई हैं। विभिन्न तरह के रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधंुध इस्तेमाल ने खेतों को इस हालत में पहुंचा दिया है कि उनसे रिसने वाला बरसात का पानी जहरीले रसायनों को नदियों में पहुंचा रहा है, जो प्रदूषण की बड़ी वजह बनते हैं। यही नहीं, औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला कचरा और गंदगी भी जल प्रदूषण का वाहक बनती है। भूजल में मौजूद मैगजीन, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम आदि मानवजनित संदूषण के अलावा खनन कायरें और दीगर औधोगिक कचरे के रिसाव से भी प्रदूषण फैल रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में सीवर लाइन के अभाव में सैप्टिक टैंकों का अधिक निर्माण, भूमि के नीचे आहिस्ता-आहिस्ता प्रदूषण की वजह बनता है। हालत यह है कि देश में 14 बड़ी, 55 लघु और कई छोटी नदियों में मल-जल और औद्योगिक कचरा लाखों लीटर पानी के साथ छोड़े जाते हैं। विडंबना की बात यह है कि गंदे पानी के सिर्फ 10 फीसद हिस्से का शोधन हो पाता है। बाकी को उसी रूप में विभिन्न नदियों-तालाबों में छोड़ दिया जाता है।


केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक अध्ययन के मुताबिक देश भर में 90 से ज्यादा शहरों-कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेय जल के प्रमुख श्चोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है। चमड़ा, कागज और चीनी समेत रासायनिक कारखानों के कचरे के अलावा शहरों की जल-मल की निकासी का रुख आम तौर पर नदियां ही होती हैं। नतीजतन, आज कई नदियां जहरीले नालों के रूप में तब्दील हो चुकी हैं। जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़े जल समस्या के और गहराते जाने की पुष्टि करते हैं। अफसोस की बात यह है, सरकार के लिए आज भी जल प्रदूषण कोई बड़ी समस्या नहीं। सरकार के विकास के एजंडे में लोगों को शुद्ध पानी मुहैया कराना शामिल नहीं। सरकार इस दिशा में कभी कुछ सोचती भी है, तो सिर्फ यहां तक सोचती है कि पानी की कीमत अनिवार्य कर दी जाए। मानो पानी की कीमत चुकाना अनिवार्य कर देने भर से ही समस्या का समाधान हो जाएगा।


लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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