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स्त्री, जो गढ़ी जा रही है

जागरण मेहमान कोना
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स्त्री की स्वतंत्रता से जुड़ा संघर्ष लंबे समय से जारी है। इसके लिए समाज और सरकार की ओर से कई तरह के प्रयास किए गए हैं। खुद महिलाएं भी अपने स्तर पर संघर्षरत रही हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिमी ही है कि क्या महिलाओं की स्थिति वास्तव में बदली है? बदलाव की प्रक्रिया क्या इतनी शक्तिशाली है कि वह परंपरागत अवरोधों पर भारी पड़ सके? महिलाओं की स्थिति में सुधार या अच्छे हालात की बात पर सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, किरण बेदी, कल्पना चावला और टीवी अभिनेत्रियों जैसी गिनी-चुनी महिलाओं की तस्वीर हमारे जेहन में उभरती है, लेकिन दूसरी ओर महिलाओं का एक बड़ा तबका है, जिनके शोषण, अत्याचार, मारपीट, गैरबराबरी की अनगिनत कहानियां हमारे आस-पास बिखरी पड़ी हैं। एक ओर चंद महिलाएं परंपराओं, वर्जनाओं को खारिज करती आगे बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर एक बड़ा तबका दहेज, सती और पुरुष-निर्भरता के इर्द-गिर्द चक्कर काटता नजर आता है। कहने को चिंता सभी को है। सरकार ने महिलाओं पर हो रहे अतिक्रमण को रोकने के लिए कई प्रावधान किए हैं। कई अभियान भी चलाए गए हैं, लेकिन इसका फायदा कितनों को मिल रहा है? शायद दस प्रतिशत महिलाओं को भी नहीं। बहुत-से लोगों की राय है कि महिलाएं इसलिए पीछे हैं कि पुरुषों ने उन्हें आगे आने नहीं दिया, बल्कि वे इसलिए पीछे हैं कि वे खुद आगे आना नहीं चाहतीं। उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। वे मुकाबला करना नहीं चाहतीं। यह बात सच्ची लग सकती है, लेकिन सतही तौर पर ही।


थोड़ी गहराई में जाकर विचार करने का कष्ट करें तो यह हकीकत सामने आती है कि महिलाओं की इस स्थिति के लिए वे स्वयं नहीं, बल्कि वह वातावरण जिम्मेदार है, जिसमें वे पैदा होती हैं, बड़ी होती हैं और जीवनयापन करती हैं। बच्चियों को जब ठोंक-पीटकर लड़की के रूप में और लड़कियों को डरा-धमका कर महिला के रूप में परिवर्तित किया जाता है तो कभी उनसे उनकी इच्छा नहीं पूछी जाती कि वे क्या चाहती हैं और क्या नहीं? बल्कि स्त्री बनाने की प्रक्रिया में उन्हें यह समझाया जाता है कि उन्हें क्या करना है और कैसे करना है, ताकि उनके भीतर स्ति्रयोचित गुण पनप सकें। बच्ची को स्त्री बनाने की रवायत में उसके आसपास का परिवेश, परिवार, समाज सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उसे स्त्री बनने के गुर सिखा रहे होते हैं। इस बीच वह बच्ची कभी भी खुद से अपना निर्णय नहीं लेती। उसका कर्तव्य सिर्फ दूसरों के बताए रास्ते पर चलना बना रहता है। चूंकि बचपन में बच्चे जो कुछ सीखते हैं, उसे ताउम्र याद रखते हैं। लिहाजा, उन्हें अपनी समझ के आधार पर परिपक्व नहीं होने दिया जाता। लड़की को बनाने का लक्ष्य रहता है। इसके लिए उसे बचपन से ही परिवार के संरक्षण में (शुरू में पिता और भाई के संरक्षण में, फिर पति के और उसके बाद पुत्र के संरक्षण में) रहने और उन्हीं की इच्छानुसार जीवन यापन करने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार किया जाता है। लिहाजा, महिलाएं अपनी व्यक्तिगत जरूरतों और अपेक्षाओं को नजरअंदाज कर अपने सभी पारिवारिक कर्तव्यों की पूर्ति में जुटी रहती हैं। उनके लिए यही स्त्रीत्व का मतलब हो जाता है।


विडंबना यह है कि इसके बाद भी उन्हें घर और बाहर दोनों जगह आदर और सम्मान नहीं मिलता। ग्रामीण परिवेश में तो आज भी महिलाओं के खुलकर हंसने-बोलने पर प्रतिबंध है। यहां तक के उनकी सोच पर भी पाबंदी लगाई जाती है। यह कहां तक जायज है कि जिस महिला को सोचने तक का अधिकार नहीं दिया गया, जिसे शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित रखा गया, जिसे घूमने-फिरने की सुविधा से महरूम रखने की कोशिश की गई, उसकी काबिलियत पर वे ही लोग उंगली उठाएं, जो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। शिक्षा के प्रसार तथा सामाजिक परिवर्तन से इस रूढि़वादी मानसिकता और पराधीनता के हालात में थोड़ा अंतर जरूर आया है, लेकिन इसमें क्या शक है कि आज भी महिला को शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तर पर पुरुषों से कमतर आंका जाता है? समाज का एक बड़ा तबका ऐसा है (जिसमें शिक्षित वर्ग भी शामिल है), जो महिलाओं को परिवार तक ही सीमित रखना चाहता है। ऐसे लोग मानते हैं कि महिलाएं न सिर्फ पुरुषों से शारीरिक बल में कमजोर, बल्कि प्राकृतिक रूप से ही मानसिक स्तर पर कमतर होती हैं। निर्णय लेने और जोखिम भरे कामों में उनकी कोमलता और भावुकता सामने आती है। वह कभी निष्पक्ष होकर या संकल्प शक्ति के साथ निर्णय नहीं ले सकती। वहीं इस पूरी मान्यता को उलटते हुए हाल के एक अध्ययन ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भले ही महिलाओं की शारीरिक क्षमता पुरुषों की अपेक्षा कम हो, लेकिन शारीरिक रूप से वे बेहद सख्त और मानसिक रूप से दृढ़ होती हैं।


इन खूबियों के बावजूद अगर महिलाएं आज पिछड़ी हुई हैं या जिम्मेदारी के साथ अपनी जिंदगी जीने से झिझकती हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या स्ति्रयों का अपना स्वभाव या उनके आस-पास का वातावरण और पारिवारिक हालात, जो कदम-कदम पर उनकी सीमा तय करते रहते हैं और उनके मार्ग में अवरोध बने रहते हैं? पुरुष स्ति्रयों की प्रगति में बाधक हों या नहीं, पर उनके द्वारा संचालित व्यवस्थाएं जिस तरह की स्त्री गढ़ रही हैं, वह अपनी मुक्ति के लिए वास्तव में कितना संघर्ष कर पाएगी, यह जरूर विचारणीय है।


सीत मिश्रा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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