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केकेआर की जीत में ममता के जश्न का मतलब

जागरण मेहमान कोना
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Satyedra Ranjanममता बनर्जी यह अधिकार किसी को नहीं देतीं कि वह उनसे सवाल करे, यह बात हाल में कई घटनाओं से जाहिर है। इसलिए इस लेख में उठाए गए प्रश्न अगर उनके सामने रखे जाएं तो हो सकता है कि वह उन्हें सीपीएम या माओवादियों के सवाल बताकर पूछने वाले के इरादे पर ही प्रश्न खड़े कर दें। बहरहाल, इन सवालों का संबंध सिर्फ कोलकाता या ममता बनर्जी से नहीं है। इसलिए इन पर अवश्य चर्चा होनी चाहिए। मुद्दा यह है कि इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) में खिताबी जीत आखिर किसी शहर या राज्य की कितनी बड़ी उपलब्धि है? रविवार को कोलकाता नाइट राइडर्स (केकेआर) चेन्नई सुपर किंग्स को हराकर आइपीएल-5 का चैंपियन बना। उसके बाद केकेआर टीम कोलकाता पहुंची तो ममता बनर्जी की सरकार ने उसे एक तरह से राजकीय जश्न का मौका बना दिया। ममता बनर्जी विजय यात्रा में शामिल हुई। उनकी पार्टी के नेता, उनकी सरकार के मंत्री, रेलमंत्री मुकुल रॉय आदि ने टीम के स्वागत समारोह में मौजूद होकर इस मौके की गरिमा बढ़ाई। इतना ही नहीं, राज्यपाल एमके नारायणन ने भी इस अवसर पर उपस्थित रहना उचित समझा। कोलकाता और केकेआर का फर्क हकीकत यह है कि केकेआर के सिर्फ नाम से ही कोलकाता जुड़ा है। वरना, इसके मालिक शाहरुख खान, जय मेहता या जूही चावला का इस शहर से कोई जैविक संबंध नहीं है।

 

 टीम के कप्तान गौतम गंभीर ने भले आमी कोलकातार चेले (मैं कोलकाता का बेटा हूं) कहकर लोगों की हर्षध्वनि प्राप्त कर ली, लेकिन वे कहां के बेटे हैं, यह बात सारा भारत जानता है। दरअसल, आइपीएल की टीमों में अधिकांश खिलाडि़यों का उन शहरों से कोई नाता नहीं है, जिनके नाम पर ये टीमें बनी हैं। अगली नीलामी के बाद उनमें से कौन-सा खिलाड़ी किस टीम में होगा, आज यह उसे भी नहीं मालूम है। बहरहाल, हम इस चर्चा को इस संकीर्ण सोच में कैद नहीं करेंगे। आज की दुनिया में खिलाडि़यों का मूल्य उनके जन्मस्थल या देश से नहीं, बल्कि उनके हुनर से बनता है। इसलिए आज अगर कोलकाता के नाम पर बनी टीम जीती है तो उस महानगर के लोगों को उस पर खुश होने और जश्न मनाने का पूरा अधिकार है। राजनेता जनभावनाओं की लहर पर सवाल होने के मौके की ताक में रहते हैं। ऐसे में ममता बनर्जी ने भी कोलकाता के फील गुड की गंगा में हाथ धो लिए तो उस पर उन्हें घेरने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्य से बात इतनी आसान नहीं है।

 

आइपीएल अगर सामान्य टूर्नामेंट होता, जो बहुत सारे दूसरे सवालों के कठघरे में नहीं होता तो इस चर्चा की कोई जरूरत ही नहीं होती। मगर पिछले तीन वर्षो में जो तथ्य और आरोप सामने आए हैं, उन्होंने हमें यह सोचने को मजबूर किया है कि आइपीएल एक खेल टूर्नामेंट है या नाटकीय मनोरंजन? दरअसल, अब सवाल तो यह भी है कि यह आयोजन आखिर किस स्तर का मनोरंजन पेश कर रहा है? दो साल पहले ललित मोदी-शशि थरूर के टकराव से आइपीएल के आयोजन में कानूनों की अनदेखी, टीमों की निवेश सरंचना में मनी लॉन्डिं्रग जैसी गतिविधियों के शक और मैच के नतीजों को गलत ढंग से प्रभावित करने के आरोप सामने आए थे। उनकी जांच केंद्रीय एजेंसियों को सौंपी गई थी। उस सिलसिले में कई ठिकानों पर छापेमारी भी हुई। खुद को आइपीएल का जनक मानने वाले ललित मोदी ऐसे संगीन आरोपों से घिरे कि आज तक विदेश में डेरा डाले हुए हैं। इस वर्ष कुछ नए आरोपों ने आइपीएल के दामन को दागदार किया। एक टेलीविजन न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में इस टूर्नामेंट में भाग ले रहे खिलाडि़यों ने राज खोला कि कैसे फ्रेंचाइजी टीमों के मालिक खिलाडि़यों को फीस की तय रकम से अधिक का भुगतान कर रहे हैं और यह लेनदेन कालेधन से हो रहा है। उसी स्टिंग ऑपरेशन में स्पॉट फिक्सिंग (पैसा लेकर नो बॉल फेंकने) की बात भी एक खिलाड़ी ने मानी। उसके बाद अब चैंपियन हो चुकी टीम के मालिक मशहूर फिल्म अभिनेता शाहरुख खान ने मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में बदसलूकी और बदमिजाजी का वह नजारा पेश किया, जिससे उस संस्कृति का भौंडा प्रदर्शन हुआ, जो आइपीएल पर छाई हुई है। अभी इतना ही काफी नहीं था।

 

बेंगलूर रॉयल चैलेंजर्स के ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ल्यूक पॉमर्सबैक एक महिला का शीलभंग करने के आरोप में पुलिस हिरासत की हवा खा आए। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) द्वारा स्टिंग ऑपरेशन के आरोपों की जांच के ऐलान, अपनी टीम के विजेता हो जाने के बाद शाहरुख खान द्वारा माफी मांग लेने और पॉमर्सबैक द्वारा आरोप लगाने वाली महिला से कोर्ट के बाहर समझौता कर लेने से इन घटनाओं से उठे सवाल खत्म नहीं हो गए हैं। इसलिए कि ये कोई अलग-थलग या इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं, बल्कि घटनाओं के एक पूरे सिलसिले का हिस्सा हैं। इनका अनिवार्य संबंध धन और ताकत के उस प्रदर्शन से है, जो आइपीएल की पहचान बना हुआ है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि आइपीएल इसी की बुनियाद पर खड़ा है। क्रिकेट पर कई बेहतरीन किताबों के लेखक एवं मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने हाल में एक लेख में लिखा कि आइपीएल का संबंध निश्चित रूप से पूंजीवाद के रचनात्मक रूप से नहीं, बल्कि उस पूंजीवाद से है, जिसे क्रोनी कैपिटलिज्म कहा जाता है। टीमों की प्रथम नीलामी गोपनीयता से घिरी रही।

 

आवंटन का आधार पारदर्शी ढंग से हुई बोली और मूल्याकंन नहीं रहे। खिलाडि़यों की कीमत क्रिकेट संबंधी क्षमता से तय नहीं होती। भारतीय खिलाडि़यों को जितना पैसा दिया जाता है, उतनी ही क्षमता वाले विदेशी खिलाडि़यों को उसका बहुत छोटा हिस्सा दिया जाता है। क्रोनिज्म का सबसे बुरा रूप तो यह है कि आइपीएल की एक टीम के मालिक बीसीसीआइ के मौजूदा अध्यक्ष (और पूर्व सचिव) हैं। भारतीय टीम की चयन समिति के मौजूदा अध्यक्ष बीसीसीआइ अध्यक्ष की टीम के ब्रांड अंबेसडर हैं। मशहूर पूर्व क्रिकेटरों को, जो टीवी पर भारतीय क्रिकेट को कवर करते हैं, आइपीएल का सलाहकार बना दिया गया है। अन्य कमेंटेटरों ने आइपीएल की टीमों की जिम्मेदारियां स्वीकार कर ली हैं। अगर बेलाग ढंग से कहा जाए तो इस (और कुछ अन्य) मुद्दे पर चुप रहने की कीमत उन्हें दे दी गई है। दागदार टूर्नामेंट को सरकारी वैधता! इस क्रम में बतौर खेल क्रिकेट की अहमियत को हाशिये पर पहुंचा दिया गया।

 

1983 में भारत के विश्व विजेता बनने और टीवी के प्रसार के साथ यह खेल आम जन का शौक बना था, लेकिन आइपीएल के साथ इसे फिर से समृद्ध शहरों और समृद्ध लोगों तक समेटने का प्रयास किया गया। लेकिन पांचवें संस्करण तक आते-आते इस पर से पर्दा काफी हट चुका है। लोग न सिर्फ इसकी संस्कृति को समझने लगे हैं, बल्कि अब इसके मैचों की साख भी संदिग्ध हो चुकी है। इस बार लगातार जैसी कड़ी टक्कर अधिकांश मैचों में देखने को मिली और फाइनल से एक मैच पहले जिस तरह डेल्ही डेयरडेविल्स टीम चेन्नई से हारी, उसको लेकर आम चर्चाओं में कयास और शक हावी रहे। अफवाहों का बाजार गर्म रहा। ये चर्चाएं निराधार हो सकती हैं, लेकिन ये आइपीएल टूर्नामेंट को लेकर बनती जनभावना की निशानी हैं। इसीलिए जब एक राज्यपाल, एक मुख्यमंत्री, एक केंद्रीय मंत्री और एक राज्य सरकार के कई मंत्री इस टूर्नामेंट की विजेता टीम के जश्न में उत्साह से शामिल हुए तो यह प्रश्न प्रासंगिक हुआ कि क्या उन्हें इस बात का अहसास है कि ऐसा करके वे संगीन आरोपों से घिरे एक टूर्नामेंट को वैधता और प्रतिष्ठा प्रदान कर रहे हैं? ऐसा करके क्या उन्होंने लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया? ममता बनर्जी इनके जवाब नहीं देंगी, लेकिन क्रिकेट प्रेमी और आम नागरिक इन सवालों को नजरअंदाज नहीं कर सकते।

 

सत्येंद्र रंजन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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