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हम लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था में रह रहे हैं, लेकिन जो घटनाएं घट रही हैं उनसे तो कभी-कभी यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या लोकतंत्र के पावन मंदिर में बैठे हुए सांसद संवेदना शून्य हो गए हैं। जिस संसद में एक नेता विशेष के कार्टून को लेकर हंगामा हो गया और राष्ट्र के करोड़ों रुपये खर्च करके यह विचार होता रहा कि जिन्होंने कार्टून बनाया उन्हें क्या दंड दिया जाए और भविष्य में कार्टून बनाने की आज्ञा दी जाए अथवा नहीं तथा जिन किताबों में कार्टून बने हैं उन्हें शिक्षालयों से वापस ले लिया जाए अथवा पढ़ाने दिया जाए, उसी संसद के समक्ष कुछ दिन पूर्व भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने यह दुखद रिपोर्ट भी रखी थी कि भारत में सन 2009 से लेकर 2011 के बीच 1 लाख 77 हजार 660 बच्चे लापता हुए और इनमें से अभी तक 55 हजार 470 बच्चों का कोई सुराग नहीं मिला। लापता बच्चों में 60 प्रतिशत लड़कियां हैं। ध्यान रहे कि अभी पंजाब और जम्मू-कश्मीर सरकार ने गुमशुदा बच्चों की संख्या नहीं बताई है।
आज का सच यह है कि पूरे देश में रोजाना करीब 162 बच्चे लापता होते हैं। कटु सत्य यह भी है कि गायब हुए बच्चों में से अधिकतर गरीबों के बच्चे हैं। कौन नहीं जानता के देह व्यापार के धंधे में जो लड़कियां धकेली जाती हैं और जीवन भर नारकीय यातना तथा समाज का तिरस्कार सहती हैं, उनमें अधिकांश यही बच्चियां हैं, जिन्हें उठाया, बेचा जाता है और जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। हर चौक-चौराहे पर भिक्षा मांगते बच्चे मिलते हैं, कुछ कारों के शीशे चमकाने के बाद हाथ फैलाते हैं। इनमें कुछ विकलांग होते हैं। इन्हें देखते ही बहुत से लोगों का पर्स खुलता है और उनका हाथ कार के बाहर जाकर इन बच्चों पर रहम करके धन्य हो जाता है। अपने ही देश में मानव अंगों का व्यापार और दूसरे देशों में तस्करी भी जोर-शोर से हो रही है। सैकड़ों बच्चे मैं भी देखती हूं, आप भी देखते हैं, शायद सरकारी नहीं देखतीं।
पूरे देश में बाल कल्याण मंत्रालय हैं, बाल संरक्षक आयोग हैं, बाल कल्याण समितियां हैं और केंद्र में मंत्री और आयोग हैं, पर उनकी किताब में इन बच्चों के लिए कोई स्थान नहीं। इन बच्चों को ढूंढ़ लेना, उन्हें माता-पिता के पास पहुंचा देना अथवा सरकार एवं समाजसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित बाल संरक्षण गृहों में उनका पालन-पोषण कर देना कोई कठिन काम नहीं, केवल हृदय चाहिए, जो संवेदनापूर्ण हो। क्या भारत का गृह मंत्रालय यह बताएगा कि देश के किस-किस प्रांत में इन लापता बच्चों को खोजने और उनको बसाने के लिए कोई अलग विभाग है? पुलिस का कोई विंग लापता बच्चों के लिए विशेष रूप में बनाया गया है? क्या किसी महिला आयोग ने वेश्यालयों में जाकर उन महिलाओं की पीड़ा सुनी है, उनके माता-पिता के बारे में जानकारी ली है? मैंने स्वयं हैदराबाद में एक समाजसेवी महिला की छाया में बचाई हुई उन सैकड़ों लड़कियों को देखा है जो अब देह व्यापार के नर्क से निकलकर समाज की मुख्यधारा में आ गई हैं और दूसरों को भी रास्ता दिखा रही हैं। क्या यही काम भारत सरकार और प्रदेशों की सरकारों के मंत्री और अधिकारी नहीं कर सकते? गृह मंत्रालय केवल इतनी ही जानकारी दे दे कि देश के केंद्रीय आयोगों समेत कितने प्रांतों में महिला और बाल संरक्षण आयोग के अध्यक्ष राजनेता नहीं अपितु सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
कौन नहीं जानता कि इन आयोगों की अध्यक्षता राजनीतिक तुष्टिकरण और रिश्तेदारियां निभाने के लिए की जाती हैं। क्या भारत सरकार एक शपथ पत्र जारी करेगी कि इन आयोगों में केवल देश और देशवासियों का दर्द दिल में लिए कार्य करने वाले व्यक्तियों को ही महिला और बाल कल्याण का काम सौंपा गया है? अभी तो मेरा सवाल देश के सांसदों से है कि इस रिपोर्ट को वे कैसे कॉफी और चाय के साथ पी गए और पचा गए?
लेखिका लक्ष्मीकांता चावला पंजाब की पूर्व मंत्री हैं
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