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कठघरे में माकपा की विचारधारा

जागरण मेहमान कोना
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केरल के मा‌र्क्सवादी नेता के एक बयान ने माकपा के चेहरे से नकाब हटा दिया है और पूरी पार्टी को कठघरे में खड़ा कर दिया है। केरल के इडुक्की में माकपा की जिला इकाई के अध्यक्ष और राज्य कमेटी के सदस्य एमएम मणि ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि उनकी पार्टी राजनीतिक विरोधियों की हत्या करवाने में यकीन रखती है। मणि ने ये बातें खुलेआम एक रैली में की। इस बयान को जोश में होश खो देने वाला बयान बताकर खारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मणि ने अपने मरने-मारने वाले बयान के बाद उसके समर्थन में उदाहरण देकर उसी सही भी ठहराया और कहा कि पार्टी को उन हत्याओं की जिम्मेदारी लेने से कोई गुरेज भी नहीं है जो उसने करवाई है। पहले तो मणि ने खुलेआम यह कहा कि हमें मरने और मार डालने की आदत है। इसलिए उनकी पार्टी माकपा और उसके कार्यकर्ताओं को कोई धमकी न दे। उन्होंने सरेआम ऐलान किया कि जो भी पार्टी के खिलाफ काम करेगा उसे रास्ते से हटा दिया जाएगा। मणि के मुताबिक माकपा ने 1982 में तेरह लोगों की सूची बनाई थी जिन्हें कत्ल करना था। इस सूची में से एक की गोली मारकर हत्या कर दी गई। दूसरे की सरेआम पीट-पीट कर हत्या कर दी गई और तीसरे शख्स को तो चाकुओं से गोदकर मार डाला गया। आरोपों के मुताबिक कत्ल किए गए दो लोग कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और एक भाजपा के लिए काम करता था। इनमें से एक हत्या के चश्मदीद का भी कत्ल हो गया। इन हत्याओं के आरोप उस वक्त भी सीपीएम पर लगे थे, लेकिन उन हत्याओं में पड़ताल कहां तक पहुंची, इसका पता ही नहीं चल पाया। मणि के इस बयान के बाद केरल समेत देश की राजनीति में भूचाल आ गया है।


केरल माकपा के वरिष्ठ नेता पी. विजयन ने इस बयान पर सफाई दी और कहा कि मणि ने सार्वजनिक रूप से बयान देकर गलत किया है और यह पार्टी के स्थापित मानदंडों के खिलाफ है। गौर करने लायक है कि विजयन ने मणि के बयान को गलत नहीं ठहराया, बल्कि सार्वजनिक रूप से बयान देने को गलत करार दिया। क्या यह मान लिया जाए कि विजयन की मणि के बयानों से सहमति है? मणि के इस बयान और विजयन की सफाई को केरल में हाल ही में माकपा छोड़कर अपनी पार्टी बनाने वाले टीपी चंद्रशेखरन की हत्या से जोड़कर देखा जाने लगा है। चंद्रशेखरन की हत्या के बाद विजयन के बयान को देखें तो उससे भी हिंसा की इस राजनीति की तस्वीर थोड़ी और साफ होती है। चंद्रशेखरन के कत्ल के बाद विजयन ने कहा था कि वह दलबदलू और विश्वासघाती थे। विजयन के इस बयान के अपने निहितार्थ हैं, जिसको मणि के बयानों ने उजागर कर दिया है। मणि के बयान को माकपा के आला केंद्रीय नेता यह कहकर दबा देने के चक्कर में हैं कि वह पार्टी के एक बहुत छोटे नेता हैं। यह सही भी है कि किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के एक जिले के अध्यक्ष के बयान को पार्टी की विचारधारा नहीं माना जा सकता है, लेकिन अगर उस जिलाध्यक्ष का इतना रुतबा हो कि विधानसभा चुनाव के वक्त अपनी पार्टी के शीर्ष नेता और सूबे के मुख्यमंत्री को प्रचार के लिए अपने इलाके में नहीं आने दे तो उसके रुतबे का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि वामपंथी दलों के शासन वाले राज्यों में पहली बार राजनीतिक हिंसा की बात सामने आ रही है। पश्चिम बंगाल में भी दशकों तक मा‌र्क्सवादियों ने राज किया किया, लेकिन उनका दामन भी सियासी हत्याओं से दागदार रहा है।


ममता बनर्जी की पार्टी के नेता तो उस दौरान पचास हजार से ज्यादा राजनीतिक हत्या का आरोप लगाते रहे हैं। हो सकता है उसमें अतिशोक्ति हो, लेकिन तटस्थ विश्लेषकों की मानें तो वामपंथी शासनकाल के दौरान तकरीबन चार हजार राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई। 1977 से लेकर अब तक 1500 कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई और तकरीबन बीस हजार परिवारों को घर छोड़कर भागना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस के भी दो हजार कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप माकपा पर लगे। जब ममता बनर्जी सूबे में सत्तारूढ़ हुईं तो कई माकपा नेताओं के घर के पिछवाड़े में बने गार्डन से नरकंकाल बरामद होने से इन आरोपों को और बल मिला है। दरअसल मणि के बयानों ने पार्टी की एक सच्चाई उजागर कर दी है। माकपा की बुनियाद और विचारधारा का आधार ही हिंसा रहा है।


1960 में जब कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मा‌र्क्सवादी का गठन हुआ तो उनकी आत्मा और विचारधारा चीन की तरफ झुकी हुई थी। भाकपा तो सिस्टम में बनी रही, लेकिन माकपा सशस्त्र संघर्ष के जरिए भारतीय गणतंत्र को हथियार के बल पर जीतने की ख्वाहिश पाल बैठी। उनके सामने माओवादी चीन का मॉडल था। माओ ने जिस विचारधारा की बुनियाद रखी, चीन कमोबेश उसी पर आगे चलता रहा है। हालांकि माओ की विचारधारा पर देंग जियाओपिंग ने 1970 में लगाम लगा दी थी, लेकिन थ्येन आन मन चौक पर जिस तरह से प्रदर्शनकारियों को टैंकों से कुचल दिया गया वह माओ की ही विचारधारा की परिणति थी। चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में अब खुलेआम अपने राजनीतिक विरोधियों के कत्ल की बात करने लगी है, लेकिन चीन के चेयरमैन माओ की विचारधारा को सही मानने वाले लोग यह भूल गए कि भारत गांधी का देश है और यहां हिंसा और नफरत की राजनीति करने वाले लोग सियासत में ज्यादा दिन टिक नहीं पाते हैं। बंगाल और केरल में हार के बाद माकपा जिस तरह से पूरे देश में सिमट गई है उससे यह लगने लगा है कि हिंसा की बुनियाद पर राजनीति करने वाले कुछ वक्त के लिए तो प्रासंगिक हो सकते हैं, लेकिन फिर जनता उनको नकार ही देती है।


अनंत विजय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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