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मुस्लिमों को भी चाहिए नई जिंदगी

जागरण मेहमान कोना
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मुल्क में पिछड़े अल्पसंख्यकों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए केंद्र की संप्रग सरकार ने पिछले साल दिसंबर में उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ऐन ठीक पहले अल्पसंख्यकों को केंद्र की नौकरियों और केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्ग के 27 फीसदी आरक्षण में से 4.5 फीसद सब कोटा निर्धारित करने का फैसला किया था। फैसले का उस वक्त मुल्क के सामाजिक और राजनीतिक हलके में स्वागत और विरोध एक साथ हुआ। फैसले का जहां अल्पसंख्यक समुदाय ने स्वागत किया तो भाजपा और समूचे संघ परिवार ने इस आरक्षण की पुरजोर मुखालफत की। बावजूद इसके सरकार अपने फैसले पर पूरी तरह कायम रही और आज भी उसके रुख में कोई तब्दीली नहीं आई है। केंद्र सरकार का कहना है कि वह आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देगी। यह कोई पहली बार नहीं है, जब आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अल्पसंख्यक कोटे पर अपने फैसले से रोक लगाई हो, बल्कि इससे पहले भी वह राज्य में अल्पसंख्यक आरक्षण को गलत ठहराती रही है, लेकिन हर बार उसका फैसला सुप्रीम कोर्ट में जाकर दम तोड़ देता है। सर्वोच्च अदालत अपने एक पूर्व फैसले में साफ-साफ कह चुकी है कि पिछड़ों के लिए आरक्षण में मजहब कहीं से भी रुकावट नहीं।

 

आरक्षण का पैमाना सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन होगा यानी अदालत इस दलील को पहले ही मंजूर कर चुकी है कि आरक्षण के मामले में समान पृष्ठभूमि और पिछड़ेपन की बिना पर ही विचार किया जा सकता है। फिर चाहे इसका फायदा ले रहे समूह का मजहब या पंथ कोई भी क्यों न हो। कमोबेश ऐसा ही मिलता-जुलता ख्याल वेंकटचेलैया कमीशन का भी था कि अगर मुसलमान पिछड़ा वर्ग है तो उसके आरक्षण के लिए संविधान में किसी संशोधन की जरूरत नहीं। सच बात तो यह है कि मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा पहले से ही पिछड़ा वर्ग श्रेणी के अंतर्गत आता है। दीगर समुदायों की तरह उसे भी पिछड़े वर्ग के आरक्षण फायदा मिलता है। तल्ख हकीकत यह है कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुए दो दशक से ज्यादा गुजर गए, लेकिन मुसलमान वहीं का वहीं है। जबकि पिछड़े वर्ग में उसके साथ शामिल कई जातियां तरक्की की दौड़ में उससे कहीं आगे निकल गई। यानी मुल्क में कहीं न कहीं उसके साथ आज भी पक्षपात और सांप्रदायिक भेदभाव है, जो उसकी बदहाल स्थिति के लिए जिम्मेदार है। यही वजह है कि मुसलमानों की दशा सुधारने के लिए बने तमाम आयोगों ने उन्हें इंसाफ दिलाने के वास्ते पिछड़े वर्ग के कोटे में से सब कोटा देने की वकालत की।

 

मुल्क में धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव दूर करने के रास्तों की तलाश के लिए गठित रंगनाथ मिश्र आयोग साफ-साफ कहता है कि अन्य पिछड़े वर्गो की पहचान में बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच धार्मिक आधार पर कोई भेद नहीं किया जाना चाहिए। इस बारे में जो भी मापदंड अपनाएं जाएं, वह पूरी तरह से शैक्षणिक और आर्थिक आधार पर होने चाहिए। यही नहीं, हमारे संविधान में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक होना चाहिए। सच्चर आयोग की तरह मिश्र आयोग ने भी सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में मुसलमानों की कम नुमाइंदगी को तस्लीम किया था। लिहाजा, आयोग ने सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों को पिछड़ा समझा जाए और केंद्र तथा सूबाई सरकारों की नौकरियों में उनके लिए 15 फीसद स्थान चिह्नित किए जाएं। इन 15 फीसद स्थानों में से 10 फीसद स्थान मुसलमानों के लिए और बाकी 5 फीसद स्थान दीगर अल्पसंख्यकों के लिए हों। लेकिन बावजूद इसके सिफारिश को लागू करने में होने वाली व्यावहारिक कठिनाई को देखते हुए आयोग ने विकल्प के तौर पर दीगर पिछड़े वर्गो के कोटे में से 8.4 फीसद सब कोटा अल्पसंख्यकों के लिए चिह्नित करने की सिफारिश की थी। खैर, 8.4 फीसद सब कोटा की सिफारिश के बरक्स केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यकों को महज 4.5 फीसद कोटा ही दिया। यानी सिफारिश का सिर्फ आधा।

 

इसके बावजूद ये विवाद पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रहे। यह बात सच है कि किसी समुदाय को धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, लेकिन जहां तक शैक्षणिक और सामाजिक स्तर पर पिछड़े समुदायों का सवाल है, हमारे संविधान ने इन तबकों को आरक्षण का बंदोबस्त किया है। अब देखना यह है कि आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट क्या रुख अपनाता है?

 

जाहिद खान  स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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