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राजनीतिक नेतृत्व की शून्यता

जागरण मेहमान कोना
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आजाद भारत के इतिहास में शायद यह पहली बार है कि राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी राजनीतिक दल में एक सर्वस्वीकृत राजनीतिक नेतृत्व दिखाई नहीं पड़ता। सबसे बुरी हालत में दो प्रमुख दल-कांगे्रस और भाजपा हैं। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है और हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक भी। ऐसा नेतृत्व स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री ही होता है, मगर मौजूदा माहौल में मनमोहन सिंह पर कमजोर प्रधानमंत्री होने के सबसे अधिक आरोप लग रहे हैं। मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वह राजनेता हैं ही नहीं। वर्षो वह नौकरशाह रहे। कुछ दिनों पहले तक मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर विरोधी भी शक नहीं करते थे, पर टीम अन्ना ने उनके सहित एक दर्जन से अधिक मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर मनमोहन सिंह को भी कठघरे में ला खड़ा किया है। टीम अन्ना ने इस संबंध में एक पत्र के साथ दस्तावेज प्रधानमंत्री को भेजे हैं। ये आरोप सही हैं या गलत, यह तो बाद में तय होता रहेगा, मगर मनमोहन सिंह की जनता में जो एक साफ सुथरे नेता की छवि थी वह तो धूमिल हो ही गई है। राष्ट्रीय नेतृत्व की शून्यता के कारण ही बिल गेट्स सीधे उत्तर-प्रदेश चले जाते हैं और वहां मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर उत्तर-प्रदेश में निवेश की चर्चा करते हैं। कदाचित इसी शून्यता के कारण हिलेरी क्लिंटन विकास के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए प्रधानमंत्री से मिलने के बजाय सीधे कोलकाता चली गईं तथा वहां उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से विस्तृत चर्चा की। विचारणीय बात यह है कि आज नेहरू-इंदिरा गांधी या वाजपेयी जैसा नेतृत्व होता तो क्या ऐसी स्थिति निर्मित होती? पिछले आम चुनाव के बाद लगने लगा था कि भले ही राहुल गांधी फिलहाल कोई सरकारी जिम्मेदारी न संभालें, पर वह जल्दी ही राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरेंगे। आश्चर्यजनक रूप से ऐसा कुछ नहीं हुआ।


उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के लिए राहुल गांधी करीब तीन साल से मेहनत कर रहे थे, लेकिन मतदाताओं ने उन्हें अस्वीकार कर क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी को प्रदेश की गद्दी सौंप दी। यह एक तरह से कांग्रेस की राष्ट्रीय हार ही थी। ऐसा माना जा रहा था कि पिछले आम चुनाव की तरह भविष्य में भी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी का जादू चलेगा, मगर पंजाब, गोवा एवं उत्तराखंड के चुनाव परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि सोनिया गांधी में नेशनल अपील नहीं है। पार्टी स्तर पर ही वह इतनी कमजोर हो गई हैं कि उत्तराखंड के पिछले विधानसभा चुनाव में जीतकर आए विधायकों ने पहले तो मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार सोनिया गांधी को सौंप दिया, पर जैसे ही विजय बहुगुणा का नाम चला, वैसे ही एक बड़ी संख्या में विधायक बगावत पर उतर आए और वे हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाने की बात पर अड़ गए। इन बागी विधायकों को किसी तरह समझा-बुझाकर बहुगुणा के पक्ष में किया गया। हद तो तब हो गई जब तेलंगाना के मुद्दे पर सोनिया गांधी के निर्देशों के विरुद्ध जाकर पार्टी सांसदों ने लोकसभा में खड़े होकर नारे लगाए। भाजपा ने नितिन गडकरी को राहुल गांधी की टक्कर में खड़ा करने की कोशिश की है। खबरें आने लगी हैं कि नितिन गडकरी लोकसभा का चुनाव भी लडे़ंगे, पर उनका जनाधार कहां है, यही स्पष्ट नहीं है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि पूरी पार्टी उन्हें अध्यक्ष के रूप में स्वीकारती ही नहीं। नितिन गडकरी से ज्यादा भाजपा के क्षेत्रीय क्षत्रपों की चलती है। हाल में मुंबई कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी ने खुद के उपस्थित होने के लिए शर्त लगा दी थी कि पहले संजय जोशी का कार्यकारिणी से इस्तीफा हो। मोदी अपनी बात मनवाने में सफल रहे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा नरेंद्र मोदी का नाम भी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर सकती है। मोदी में राष्ट्रीय नेता बनने की संभावनाएं उनके गुजरात में किए गए विकास कार्यो के कारण है, लेकिन उनका कट्टरवादी होना और उग्र हिंदू विचारधारा उनके रास्ते में बड़ी बाधाएं डाल सकती हैं। लालकृष्ण आडवाणी से भी राष्ट्रीय नेता बनने की आशाएं थीं, मगर पिछले चुनाव में मतदाताओं ने उन्हें सिरे से अस्वीकार कर दिया, जबकि भाजपा ने उन्हें आगामी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया था। उनकी लौहपुरुष की इमेज ध्वस्त हो गई। हाल में आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी तथा संघ पर अपने ब्लॉग से हमला बोल दिया। उन्होंने भ्रष्टाचार तथा भाजपा की मौजूदा क्षमता पर गंभीर सवाल उठाए। उन्होंने यहां तक कह डाला कि यदि जनता संप्रग से नाराज है तो राजग से भी निराश।


भाजपा के पास एक अच्छी वक्ता के रूप में सुषमा स्वराज जैसी नेता जरूर हैं, लेकिन उनकी भी पकड़ हिंदी प्रदेशों तक ही है। ममता बनर्जी भी एक ऐसा नाम है जो भविष्य की राष्ट्रीय नेता हो सकती थीं, लेकिन पश्चिम बंगाल में शासन के उनके तौर-तरीके आलोचना का विषय बन गए हैं। अनेक ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिससे ममता बनर्जी का लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आ रहा है। यहां वामदलों का जिक्र एक तरह से बेमतलब है, क्योंकि ज्योति बसु के बाद उनके पास ऐसा कोई नेता नहीं रहा है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर पेश किया जा सके।


नवीन जैन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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