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जटिल कूटनीतिक तस्वीर भारत और अमेरिका पिछले दस दिनों से तीव्र उच्च स्तरीय राजनीतिक संपर्क और संवाद में व्यस्त हैं और यह सिलसिला आगे भी जारी रहना है, क्योंकि विदेश मंत्री एसएम कृष्णा 13 जून को मंत्रियों की एक बड़ी टीम को लेकर वाशिंगटन जा रहे हैं। इस दौरे में कृष्णा की टीम अगली सामरिक-कूटनीतिक बातचीत में हिस्सा लेगी। जून की शुरुआत में रक्षा मंत्री एके एंटनी वार्षिक शांगरी-ला बातचीत के लिए सिंगापुर में थे। यह वार्ता क्षेत्र के रक्षा मंत्रियों को हर साल एक मंच पर लाती है। इसके तत्काल बाद अमेरिकी रक्षा मंत्री लियोन पेनेटा भारत के दौरे पर आए। रक्षा मंत्री के रूप में पेनेटा की यह पहली भारत यात्रा थी। इसके साथ ही भारत शंघाई सहयोग संगठन वार्ता के अंग के रूप में चीन के नेतृत्व के साथ भी बातचीत में व्यस्त रहा। इसके अतिरिक्त विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने 6 जून को चीन का दौरा किया। चीन के नेताओं के साथ उनकी बातचीत खासी संतोषजनक रही। महत्वपूर्ण यह है कि वह उन नेताओं से भी मिले जिनके बारे में माना जा रहा है कि इस वर्ष के अंत में वे चीन की सत्ता संभालेंगे। यह गौर करने लायक है कि शांगरी ला वार्ता के केंद्र में चीन रहा, खासकर दक्षिण चीन सागर का मसला और क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने की बीजिंग की नीतियों ने खासा ध्यान और प्रतिक्रिया आमंत्रित की। इस बातचीत में भाग के लिए चीन के नेतृत्व ने अपने उच्च स्तर के नेताओं को न भेजने का फैसला किया और इसके स्थान पर बीजिंग से खासे कनिष्ठ प्रतिनिधि बातचीत में हिस्सा लेने के लिए आए।
अमेरिका ने सिंगापुर में हुई बातचीत को खासा महत्व दिया और अपनी नीतियों को लेकर काफी दृढ़ रवैये का परिचय दिया। स्पष्ट है कि अमेरिका एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीजों को नए सिरे से संतुलित करना चाहता है। उसकी यह घोषणा महत्वपूर्ण है कि वह अपने 60 प्रतिशत युद्धपोत एशिया प्रशांत महासागर में तैनात करेगा। अमेरिका ने यद्यपि यह दोहराया कि उसका चीन को सीमित करने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन उसने समुद्रों की स्वतंत्रता के विचार का समर्थन किया है। इसके साथ ही उसने अंतरराष्ट्रीय समुद्री नियम-कायदों का सम्मान करने की अपनी प्रतिबद्धता भी दोहराई है। इसका स्पष्ट इशारा बीजिंग की ओर है, जो दक्षिण चीन सागर में अपना हक जता रहा है। समुद्री स्वतंत्रता पर भारत का दृष्टिकोण भी इससे मिलता-जुलता है यानी समुद्री क्षेत्र से संबंधित अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों का सम्मान किया जाना चाहिए। इसमें निहित संदेश यह है कि कोई एक देश समुद्र में अपनी विशिष्ट संप्रभुता का दावा नहीं कर सकता और न ही दूसरे देशों के अधिकारों से इन्कार कर सकता है।
लिहाजा जब तक पेनेटा दिल्ली पहुंचे, भारत और अमेरिका के संबंधों की प्रकृति पर व्यापक प्रतिक्रिया भी सामने आई और उनका गहन विश्लेषण भी किया गया। इसके तहत अमेरिका की नई रक्षा रणनीति में भारत की भूमिका धुरे की कील के रूप में देखी गई। इसका अर्थ है कि चीन पर अंकुश लगाने के लिए भारत अमेरिका के साथ जुड़ रहा है। हालांकि इस नजरिए से पेनेटा और उनके भारतीय समकक्ष ने इन्कार किया, बावजूद इसके चीन दबे शब्दों में संदेह जताना जारी रखे हुए है। चीन, अमेरिका और भारत के त्रिकोणीय रिश्तों की जटिल प्रकृति एससीओ बैठक के लिए बीजिंग गए कृष्णा के स्वागत से भी समझी जा सकती है। चीन के उप प्रधानमंत्री ली कियांग, जिन्हें प्रधानमंत्री का पद संभालना है, ने कृष्णा के साथ अपनी बातचीत में कहा कि चीन-भारत के रिश्ते 21वीं शताब्दी में सबसे महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंध होंगे। संक्षेप में कहें तो भारत ने अमेरिका और चीन के बीच जटिल और विवादास्पद होते संबंधों के बीच न केवल एक महत्वपूर्ण देश का दर्जा हासिल कर लिया है, बल्कि मास्को के साथ भी अपनी विशिष्ट सामरिक साझेदारी का फायदा उठाने की स्थिति में है। यह कुछ वैसी ही स्थिति है जो शीत युद्ध के अंतिम चरण में चीन की थी। उस समय चीन ने रूस की अपेक्षाओं के विपरीत अमेरिकी नेतृत्व के पक्ष में जाना पसंद किया था। तमाम चुनौतियों के बीच संप्रग-2 सरकार के लिए यह कूटनीतिक तस्वीर एक बड़ी राजनीतिक विसंगति है, जिसका भारत को सामना करना है।
बढ़ती वैश्विक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में आने वाले तीन दशकों में तीन द्विपक्षीय सामरिक मोर्चे काफी जटिल होंगे। इनमें अमेरिका-चीन, अमेरिका-रूस और रूस-चीन शामिल हैं। वर्तमान परिदृश्य में प्रथम दो मोर्चो की धुरी काफी उथलपुथल भरी, जटिल और विवादास्पद है। अपनी सामरिक पृष्ठभूमि के कारण अमेरिका चीन और रूस, दोनों को पछाड़ रहा है, हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका वर्तमान में अपनी राजकोषीय और आर्थिक दिक्कतों के कारण काफी उलझा हुआ है। यहां यह भी एक विरोधाभास है कि मास्को और बीजिंग अब एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक आ रहे हैं। इससे शीत युद्ध समय के संबंधों में एक बदलाव आता दिख रहा है, जो एक नई भूमिका निभा सकते हैं। भारत को इन नई जटिल स्थितियों को ठीक तरह से समझना होगा और अपने परस्पर द्विपक्षीय संबंधों को व्यावहारिक धरातल पर खड़ा करना होगा। हालांकि भारत ने खुद के लिए सामरिक स्वायत्तता की नीति को चुना है, लेकिन वर्तमान हालात में हमारी नीति परस्पर सहयोग और प्रतिस्पर्धा की होनी चाहिए ताकि स्थिति कभी भी खराब न होने पाए और किसी भी तरह के संघर्ष की स्थिति से बचा जा सके। वैश्वीकरण की वर्तमान व्यवस्था ने अपने आपको एक अलग रूप में प्रस्तुत किया है। इस नई व्यवस्था में बड़े देशों का जोर छोटे गैर प्रमुख देशों पर गया है, जहां परस्पर विवादास्पद विवादों को सुलझाया जाता है। इस संदर्भ में भारत और अमेरिका के बीच संबंधों की चुनौतियां एक बानगी हैं।
सी उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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