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वर्तमान भारतीय राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था जिन चीजों से त्रस्त-पस्त है उनमें आर्थिक भ्रष्टाचार सर्वप्रमुख है। भ्रष्टाचार से निपटने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सरकार और राजनीतिक पार्टियों की है और इसके लिए उन्हें संवैधानिक, विधिक और अन्य सरकारी संस्थाओं को निष्पक्ष, पारदर्शी और उत्तरदायी बनाना पड़ेगा, लेकिन अफसोस है कि इस मोर्चे पर लगभग सभी सरकारें और पार्टियां एक तरह से उदासीन और नाकाम रही हैं। वर्तमान की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार को 2014 के लोकसभा के चुनाव में अगर फिर से वापस आना है तो महंगाई, गरीबी, रोजगार जैसे अन्य मुद्दों के साथ-साथ भ्रष्टाचार के दानव से भी मुस्तैदी से लड़ना होगा। कम से कम जनता के बीच यह संदेश देना होगा कि इस लड़ाई में वे पूरी तरह ईमानदार हैं, लेकिन न जाने किन सलाहकारों की वजह से वर्तमान सरकार और कांग्रेस, दोनों ही इस अवसर को गंवाते जा रहे हैं। ताजा मामला है मुख्य चुनाव आयुक्त तथा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर मांग की थी कि चुनाव आयुक्तों और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की नियुक्ति के लिए एक कोलेजियम गठित किया जाए, लेकिन सरकार ने वीएस संपत को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त कर इस प्रस्ताव की बिल्कुल अनदेखी कर दी।
वर्तमान व्यवस्था में दरअसल चुनाव आयुक्त, कैग, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सीबीआइ आदि ही वे संस्थाएं हैं जिन पर इस देश को भ्रष्टाचार के त्रास से मुक्त रखने की बड़ी जिम्मेदारी है और इसके लिए जरूरी है कि इन संस्थाओं को स्वतंत्र, निष्पक्ष और जनता और जनप्रतिनिधियों के प्रति ज्यादा उत्तरदायी बनाया जाए। आडवाणी द्वारा कोलेजियम गठित करने की मांग का समर्थन संप्रग के प्रमुख घटक द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि और माकपा नेता सीताराम येचुरी ने भी किया था। यहां तक कि निवर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त वाईएस कुरैशी ने भी इस व्यवस्था का पक्ष लिया है। निश्चित रूप से कोलेजियम का गठन एक बेहतर कदम होगा, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उपरोक्त संस्थाओं के पदाधिकारियों की नियुक्ति के संपूर्ण प्रारूप, प्रक्रिया और सेवा शर्तो में कुछ अन्य बुनियादी सुधार करने की भी आवश्यकता है। शुरुआत सीवीसी से ही करें, जिसके लिए पहले से ही कोलेजियम का प्रावधान है। इस कमेटी में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता होते हैं। यह प्रणाली इस रूप में दोषपूर्ण है कि एक तो इसमें सरकार का बहुमत है और दूसरे, जिन उम्मीदवारों के नामों पर विचार होता है उसकी सूची केंद्र सरकार तय करती है। ऐसे में अनुकूल अधिकारियों को ही पैनल में जगह मिल पाती है। 2010 में एक तो दागी अधिकारी पीजे थॉमस का नाम इस पैनल में शामिल किया गया और दूसरे, विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्ति के बावजूद उन्हें सीवीसी नियुक्त कर दिया गया। ऐसी स्थितियों का निराकरण करने के लिए कोलेजियम को व्यापक बनाते हुए इसे कम से कम पांच सदस्यीय होना चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, एक केंद्रीय मंत्री, लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेता हों। दूसरे, पदाधिकारियों की सूची बनाने का अधिकार केंद्र सरकार का न होकर इसका जिम्मा एक सर्च कमेटी के हाथ में हो। कैग की नियुक्ति में भी यही प्रक्रिया अपनाई जा सकती है।
कैग अगर निष्पक्ष और अप्रभावित रहकर कार्य करे तो कार्यपालिका के आर्थिक क्रियाकलापों पर खासा अंकुश बना रहता है। पिछले वर्षो में कैग द्वारा उजागर घोटाले इस बात का गवाह हैं। वर्तमान विवाद मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर था। विभिन्न चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता और संदिग्ध भूमिका को लेकर पूर्व में खासा विवाद उठता रहा है। अत: चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में भी उपरोक्त तरीके की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त चुनाव आयुक्त आगे भी निष्पक्ष और स्वतंत्र रह सकें, इसके लिए प्रावधान होना चाहिए कि सेवा मुक्ति के बाद केंद्र या राज्य सरकारों में उनकी किसी भी प्रकार की नियुक्ति प्रतिबंधित हो, जैसा कि कैग या संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य या सीवीसी के लिए नियम है। अंत में एक अत्यंत महत्वपूर्ण, लेकिन उतनी ही विवादस्पद सरकारी संस्था सीबीआइ की बात जो इस देश की सबसे प्रमुख जांच एजेंसी है और जिस पर सार्वजनिक मूल्यों के संरक्षण के साथ-साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने की एक विशिष्ट जिम्मेदारी है।
यह अलग बात है कि अनेक हाई प्रोफाइल मामलों में इसकी भूमिका विवादस्पद रही है। इसका मुख्य कारण है सीबीआइ का नियंत्रण कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के अधीन होना, जो सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करता है। कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के पास ही सीबीआइ अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानांतरण, निलंबित करने की शक्तियां हैं। सीबीआइ निदेशक के चयन के लिए जरूर एक सर्च कमेटी संभावित अधिकारियों का पैनल तैयार करती है, लेकिन उस सर्च कमेटी में सरकार का पलड़ा भारी नज़र आता है। ये स्थितियां सीबीआइ के स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से कार्य करने देने में बाधक रही हैं। यह अनायास नहीं कि सीबीआइ के राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप विभिन्न केंद्र सरकारों पर लगते रहे हैं। एक तो सीबीआइ को कैग, सीवीसी जैसी स्वायत्त संस्था बना देना चाहिए और दूसरे, सीबीआइ निदेशक की नियुक्ति भी उपरोक्त व्यापक कोलेजियम और सर्च कमेटी के माध्यम से हो। सेवा मुक्ति के बाद कोई भी सरकारी नियुक्ति उसके लिए प्रतिबंधित हो।
डॉ. निरंजन कुमार दिल्ली विवि में प्राध्यापक हैं
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