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राष्ट्रीय संसाधनों की लूट

जागरण मेहमान कोना
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Bharat Jhunjhubalaप्रशासनिक मूल्यों पर राष्ट्रीय संसाधनों की बिक्री पर पूर्ण रोक की वकालत कर रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला


2-जी स्पेक्ट्रम तथा कोयला आवंटन घोटालों एवं भूमि अधिग्रहण कानून से उपजे विवाद की तह में राष्ट्रीय संसाधनों का मूल्य है। कारपोरेट जगत इन संसाधनों को सस्ता खरीदना चाहता है और संप्रग सरकार उनके पक्ष में खड़ी हुई है। आलोचकों का कहना है कि इन संसाधनों का वास्तविक मूल्य अधिक है। स्पेक्ट्रम आवंटन पर विचार करें। वायुमंडल में चलने वाली रेडियो तरंगें विशेष फ्रीक्वेंसी की होती हैं। इनके माध्यम से मोबाइल फोन पर आवाज आती है। इस कार्य के लिए मोबाइल कंपनियों को फ्रीक्वेंसी सरकार से खरीदनी होती है। उस फ्रीक्वेंसी पर दूसरी कंपनी प्रवेश नहीं कर सकती है अन्यथा फोन कालों की खिचड़ी पक जाएगी। ये फ्रीक्वेंसी विशेष सीमा में उपलब्ध होती हैं जैसे ट्रेन में सीट विशेष सीमा में उपलब्ध होती हैं। अत: सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि इस सीमित राष्ट्रीय संसाधन का उचित मूल्य वसूल करे। स्पेक्ट्रम का आवंटन प्रशासनिक स्तर पर तय किए गए मूल्य पर किया गया था। यह प्रशासनिक मूल्य हुआ। कंपनियां इससे अधिक मूल्य देने को तैयार थीं। बाद में नीलामी के माध्यम से अधिक मूल्य वसूल किया गया है। यह वाणिज्यिक मूल्य हुआ, लेकिन स्पेक्ट्रम का आर्थिक मूल्य इससे अधिक है।


स्पेक्ट्रम का उपयोग रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, रिमोट सेंसिंग, सेटेलाइट नियंत्रण आदि के लिए भी किया जाता है। राष्ट्र की रक्षा, रिसर्च आदि के लिए भी इसकी जरूरत है। स्पेक्ट्रम को मोबाइल कंपनियों को बेच देने से दूसरे उपयोगों के लिए उपलब्धता कम हो जाती है। दूसरी गतिविधियों का दाम बढ़ता है, जिसका भार देश को वहन करना पड़ता है। स्पेक्ट्रम के सही मूल्य की गणना करने के लिए दूसरी गतिविधियों को हुई हानि को जोड़ना होगा। यह स्पेक्ट्रम का आर्थिक मूल्य हुआ। स्पेक्ट्रम का सामाजिक मूल्य इससे भी अधिक है। विशेष कंपनियों द्वारा स्पेक्ट्रम पर एकाधिकार स्थापित कर लेने से प्रतिस्पर्धा कम हो जाती है और कंपनियां मोबाइल सेवा को मनमाने ऊंचे मूल्य पर उपलब्ध करा सकती हैं। इससे समाज की हानि होती है। इन प्रभावों को जोड़ लिया जाए तो स्पेक्ट्रम के सामाजिक मूल्य की गणना की जा सकती है। इस प्रकार स्पेक्ट्रम के मूल्य को चार तरह से आंका जा सकता है। पहला प्रशासनिक विक्रय मूल्य जिस पर बिक्री की गई। दूसरा वाणिज्यिक मूल्य जिस पर कंपनियां स्पेक्ट्रम खरीदने को तैयार हैं। तीसरा आर्थिक मूल्य जिसमें दूसरे उपयोगों पर पड़ने वाले प्रभावों को सम्मिलित किया जाये। चौथा सामाजिक मूल्य जिसमें आवंटन का समाज पर समग्र प्रभाव देखा जाए। राष्ट्र की दृष्टि से स्पेक्ट्रम की बिक्री सामाजिक मूल्यों पर की जानी चाहिए, क्योंकि सरकार का उद्देश्य समाज का हित हासिल करना है, परंतु सरकार ने प्रशासनिक स्तर पर सस्ते दाम में स्पेक्ट्रम को बेच दिया था। ऐसी ही परिस्थिति कोयला खनन के लिए जंगल आवंटन की है। सरकार द्वारा बिजली कंपनियों से जंगल से उपलब्ध होने वाली लकड़ी का मूल्य वसूल किया जाता है। यह प्रशासनिक मूल्य हुआ।


कंपनियां जंगलों के लिए इससे अधिक वाणिज्यिक मूल्य अदा करने को तैयार हैं। जंगल द्वारा फल, बाढ़ नियंत्रण, कार्बन को सोखना आदि कार्य संपन्न किए जाते हैं। इन्हें जोड़ लिया जाए तो जंगल की आर्थिक कीमत की गणना की जा सकती है। जंगल के आवंटन से गरीब आदिवासी परंपराएं नष्ट होती हैं। समाज में असमानता बढ़ती है। इन पक्षों को जोड़ लिया जाए तो जंगल का सही सामाजिक मूल्य आंका जा सकता है। भूमि अधिग्रहण की कहानी भी ऐसी ही है। भूमि अधिग्रहण अधिकारी द्वारा प्रशासनिक स्तर पर भूमि का मूल्य तय कर दिया जाता है। सिंगुर में टाटा तथा नोयडा में बिल्डर इससे अधिक मूल्य अदा करने को तैयार हैं। यह वाणिच्यिक मूल्य हुआ। भूमि अधिग्रहण से भूमिगत जल का पुनर्भरण, बाढ़ नियंत्रण एवं देश की खाद्य सुरक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इन्हें जोड़ लिया जाए तो आर्थिक मूल्य आंका जा सकता है। भूमि अधिग्रहण से बढ़ने वाली असमानता, भोगवाद, शराब की खपत आदि सामाजिक दुष्प्रभावों को जोड़कर भूमि के सामाजिक मूल्य की गणना की जा सकती है। सरकार इन राष्ट्रीय संसाधनों को सस्ते प्रशासनिक मूल्य पर बेचना चाहती है और इसके वाणिज्यिक, आर्थिक तथा सामाजिक पक्ष को नजरअंदाज कर रही है।


ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि भूमि के अधिग्रहण से केवल कंपनियों को लाभ नहीं होता है, बल्कि संपूर्ण समाज को लाभ होता है। विकास दर बढ़ती है, रोजगार उत्पन्न होते हैं, उपभोक्ता को सस्ता माल मिलता है इत्यादि। भूमि अधिग्रहण के ये सुप्रभाव स्वीकार्य हैं, परंतु इनका हवाला मात्र देकर दूसरे आर्थिक और सामाजिक दुष्प्रभावों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। सरकार को चाहिए कि इन सभी अच्छे और बुरे प्रभावों का आकलन कराए और उनके आधार पर भूमि का सामाजिक मूल्य तय करे। सरकार ने राष्ट्रीय संसाधनों के सामाजिक मूल्य की गणना करने को स्वीकार किया है। गत वर्ष पूर्व वित्त सचिव अशोक चावला की अध्यक्षता में प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, मूल्य एवं आवंटन पर कमेटी बनाई गई थी, परंतु कमेटी की संस्तुतियों को सार्वजनिक नहीं किया गया है। गत वर्ष ही जी-8 मंत्रियों द्वारा प्रकृति एवं जैव विविधता के अर्थशास्त्र पर अध्ययन प्रारंभ कराया गया है। जयराम रमेश के कार्यकाल में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस अध्ययन में भागीदारी स्वीकार की थी और 2015 तक देश के सकल घरेलू उत्पाद में प्राकृतिक संसाधनों की कीमत जोड़ने का लक्ष्य रखा था। वैश्विक स्तर पर भी संसाधनों का सामाजिक मूल्य आकलन करने पर सहमति बन रही है। विश्व बैंक ने प्राकृतिक संसाधनों के खाते तैयार करने पर बल दिया है। कहा है कि जंगलों का मूल्य तय करने में लकड़ी की मात्रा की गणना की जाती है, परंतु कार्बन सोखने तथा वायुमंडल स्वच्छ करने जैसी सेवाओं के मूल्य की गणना नहीं की जाती है। चीन में बीजिंग नगरपालिका के जंगलों के अध्ययन में आंका गया कि जंगलों द्वारा लकड़ी 104 करोड़ डालर की उत्पादन की जाती है, परंतु दूसरी सेवाओं जैसे बाढ़ नियंत्रण, कार्बन सोखने आदि के माध्यम से 526 करोड़ डालर की सेवा उपलब्ध कराई जाती है। यानी जंगल का सामाजिक मूल्य आर्थिक मूल्य से पांच गुना था। स्पष्ट होता है कि प्राकृतिक संसाधनों को वाणिज्यिक मूल्यों पर बेचना अनुचित है। प्रशासनिक स्तर पर सस्ता बेचने का कोई भी औचित्य नहीं है। संप्रग सरकार को चाहिए कि प्रशासनिक मूल्यों पर राष्ट्रीय संसाधनों की बिक्री पर पूर्णतया रोक लगा दे। कम से कम वाणिज्यिक मूल्य पर बिक्री की जाए। सर्वश्रेष्ठ है कि संसाधनों के सामाजिक मूल्य के चिट्ठे को सार्वजनिक किया जाए और इस पर ही बिक्री की जाए।


लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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