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पाठ्य पुस्तकों से खिलवाड़ एक कार्टून तहलका मचा देता है। पहले पाठ्य पुस्तक में नेहरू और डॉ. अंबेडकर के एक कार्टून पर संसद में खासा बवाल हुआ और अब चेन्नई में हिंदी विरोधी आंदोलन करने वाले तमिलों की कथित तौर पर हंसी उड़ाने वाले एक कार्टून के खिलाफ राजनीतिक दलऔर कई सामाजिक संगठन सड़क पर हैं। दोनों ही मामलों में कठघरे में एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकें हैं। नेहरू-अंबेडकर कार्टून को पाठ्य पुस्तक से हटाने की घोषणा कर दी गई और इस मसले पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने संसद में माफी भी मांग ली। अब ऐसी ही मांग तमिलों का कथित तौर पर उपहास उड़ाने वाले कार्टून के मामले में की जा रही है। इस कार्टून से जुड़ी आग कोयंबटूर तक पहुंच गई है, जहां सामाजिक संगठनों ने विवादास्पद कार्टून वाली किताब की प्रतियां जलाई। एक कार्टून हमेशा बहुत कुछ कहता है और ऐसा ही इस बार हुआ। एक सामान्य टिप्पणी आई-कार्टून तो व्यक्ति देखता है, उसका आनंद लेता है, अनेक बार बनाने वाले की प्रतिभा का कायल हो जाता है। उसके बाद उसे कौन याद रखता है? बहुत हद तक इस तर्क को स्वीकार योग्य माना जा सकता है-तब जब कार्टून अखबारों या पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं। वैसे अखबारों में भी छापने के पहले यह देखा ही जाता है कि कहीं यह संवेदनाओं को आहत न करे-डेनिश अखबार में छपे कार्टून ने जैसा कहर ढाया था उसे न याद करना ही अच्छा होगा।
विश्लेषण इसका होना चाहिए कि जब एक कार्टून पाठ्य पुस्तक में छपता है तब क्या उसका प्रभाव वही होता है जो अखबार में छपने पर होता है? कितने ही माता-पिता वैसे ही परेशान हैं टीवी के कार्टून चैनलों से। बच्चों को कितने कार्टून परोसे जाने चाहिए? इस पक्ष पर विचार तभी हो सकता है जब पाठ्य पुस्तकों की राजनीति पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाए। हर व्यक्ति कम से कम आठ वर्ष की शिक्षा पाता है जीवन में, बड़ी उम्र से स्मृति Oास के बावजूद अनेक पाठ, उनका निहितार्थ तथा कुछ चित्र हमेशा याद रखता है। नेहरू, अंबेडकर तथा गांधीजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे व्यक्तियों के बारे में जो स्कूल में पढ़ाया जाता है वह स्थाई स्मृति में बना रहता है, इससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है। पाठयक्रम निर्माताओं की विशेषज्ञता इसी से आंकी जाती है कि वे बच्चों तक क्या पहुंचाते हैं, किस प्रकार पहुंचाते हैं, उनकी विश्लेषण क्षमता बढ़ाने में तथा घटनाओं और वर्णनों को वस्तुनिष्ठ ढंग से देख पाने में सक्षम बनाने में कितना सफल होते हैं। समस्या तब होती है जब लेखक या संस्था या सरकार अपनी राजनीतिक विचारधारा बच्चों पर थोपने का प्रयास करते हैं। ऐसी स्थिति में पाठ्य पुस्तकों के निर्माण का कार्य उन लोगों को सौंप दिया जाता है जो विचारधारा विशेष के विश्वासपात्र माने जाते हैं। राजनीति शास्त्र की पुस्तक के कार्टून में जो संदेश बच्चों तक पहुंचाने का प्रबल प्रयास लोगों को दिखाई दिया है और जो मानव संसाधान मंत्री के माफी मांगने तक आगे आया वह भी एक राजनीतिक अवधारणा के पक्षधरों के लगातार किए जा रहे प्रयासों का हिस्सा है। उस समय बनी पुस्तकों में अनेक ऐसे कार्टून हैं जो अपनी सारी विशेषताओं के बावजूद पाठ्य पुस्तकों के उपयुक्त नहीं हैं।
सभी जानते हैं कि मई 2004 के बाद पिछली सरकार के समय बनी सभी पुस्तकों को एक राजनीतिक निर्णय के अंतरगत निरस्त कर दिया गया। नई सरकार वामपंथियों के प्रभाव में कार्य कर रही थी तथा उन पर पूरी तरह निर्भर थी। वामपंथी पिछले चालीस वर्षो से शिक्षा पर अधिकार बनाए रखने को अपनी दूरगामी रणनीति का अहम हिस्सा मान कर चल रहे थे। राजग के शासनकाल से पहले जो पुस्तकें बनीं थीं और 30-35 साल चली थीं उनमें विचारधारा का पुट कितना था, उसका एक उदाहरण काफी होगा। इतिहास की एक पुस्तक में एक ही अध्याय में गांधी तथा लेनिन का वर्णन था। लेनिन का पूरे पृष्ठ का चित्र था तथा उसी अध्याय में गांधी का चौथाई पृष्ठ पर दिया गया चित्र था। वर्णन भी इसी अनुपात में था। अनेक बार इस पर ऐतराज किया गया, मगर इतिहासकारों ने कोई परिवर्तन करने से साफ इन्कार कर दिया। जब 1999-2004 के बीच एनसीईआरटी ने इसे बदला तो कुछ वामपंथियों ने भूचाल खड़ा कर दिया। कई तरह के आरोप लगाए गए, जैसे शिक्षा का भगवाकरण, संप्रदायीकरण, देश खतरे में है इत्यादि। मई 2004 के बाद उन्हें फिर मौका मिला और उन्होंने संस्थाओं पर वर्चस्व बनाना ही सबसे पहले अपने पास रखा।
कार्टून प्रकरण पर कपिल सिब्बल से मेरी सहानुभूति है। यह पुस्तकें तो 2005-06 में बनी थी। प्रत्येक पुस्तक के बनाने में एनसीईआरटी के बाहर के लोगों पर विश्वास किया गया, अंदर के लोगों को केवल व्यवस्था का कार्य मिला। इसका संस्था के मनोबल पर प्रभाव पड़ा। स्वयंसेवी संस्थाओं को विशेष प्रमुखता दी गई। इनमें से अधिकांश का परिचय तो पाठ्यक्रम की अवधारणा या पाठ्य पुस्तक लेखन के मूलभूत अवयवों से था ही नहीं। इन पुस्तकों की कोई निष्पक्ष विवेचना करने की आवश्यकता किसी ने नहीं समझी। कार्टून-कांड उसी का परिणाम है। 2005-06 में पुस्तकें प्रतिक्रिया-स्वरूप बनी थीं। कपिल सिब्बल ने क्षमा याचना की, मगर जो अंतरधारा चल रही है उसे या तो वह समझ नहीं पा रहे हैं या उसी प्रवाह में बह रहे हैं। उनका राष्ट्रीय पाठ्यक्रम परिषद बनाने का प्रस्ताव उसी वर्ग के मनमानस की उपज था जो विचाराधारा को बच्चों पर लादना चाहता है तथा पाठ्य पुस्तकों पर एक समान एकाधिकार चाहता है। संतोष का विषय है कि वह प्रस्ताव अब खत्म हो चला है। पाठ्य पुस्तक निर्माण को विचारधाराओं से ग्रसित व्यक्तियों से मुक्त करवाना कठिन है, मगर प्रयास इसी दिशा में होना चाहिए।
जगमोहन सिंह राजपूत एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं
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