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अन्ना आंदोलन में भटकाव

जागरण मेहमान कोना
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लोकपाल को ठंडे बस्ते में डालने और व्यक्तिगत निशाना साधने पर टीम अन्ना से असहमति जता रहे हैं प्रकाश सिंह


अन्ना हजारे के आंदोलन से देश में एक आस जगी थी। जनसाधारण को लगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन उन्हें एक लक्ष्य की ओर ले जाएगा और राहत मिलेगी। छोटे-बड़े शहरों में लोग खुलकर आंदोलन के समर्थन में आए, परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक गया है और इसके नेतृत्व में भी अंतर्विरोध उत्पन्न हो गए हैं। किसी राजनीतिक आंदोलन की सफलता के लिए तीन बातें आवश्यक होती हैं। पहली यह कि इसके प्रमुख व्यक्ति जनता की नब्ज पर हाथ रखते हुए सही मुद्दों को उठाएं। दूसरे यह कि सही रणनीति अपनाई जाए और तीसरे, आंदोलन के समर्थन के स्रोत किसी विशेष वर्ग तक सीमित न हों और इसके निशाने पर भी किसी एक वर्ग या पार्टी के लोग नहीं होने चाहिए। अन्ना आंदोलन ने जनता की नब्ज तो पकड़ी, जनलोकपाल बिल का मुद्दा उठाया, परंतु उसे 2014 तक ठंडे बस्ते में डाल दिया है। ऐसा किस कारण से किया स्पष्ट नहीं है, परंतु जनसाधारण में इसको लेकर निराशा अवश्य है। रणनीति शुरू में तो ठीक रही परंतु पिछले कुछ महीनों से पटरी से उतर गई है।


वर्तमान में अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आर-पार लड़ाई की घोषणा की है। उनके अनुसार प्रधानमंत्री सहित 15 केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप हैं और ये लोग कभी भी सख्त जनलोकपाल बिल पारित नहीं होने देंगे। इसलिए 25 जुलाई से जंतर-मंतर पर अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसौदिया और गोपाल राय अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठेंगे। कहा गया है कि अन्ना का स्वास्थ्य ठीक नहीं है इसलिए उनको अनशन पर बैठने से मना किया गया है। देश के युवाओं से अपील की गई है कि इस आर-पार की लड़ाई में वे कुर्बानी देने के लिए तैयार रहें। केजरीवाल ने तीन मांगें रखी हैं-पहली यह कि सरकार इन 15 मंत्रियों की जांच एक विशेष जांच दल (एसआइटी) से कराए और एसआइटी में देश के जाने-माने ईमानदार रिटायर्ड जज हों जो सभी आरोपों की छह महीने में जांच पूरी करें। दूसरा यह कि जिन पार्टी अध्यक्षों (जैसे मायावती, मुलायम सिंह, लालूप्रसाद यादव, जयललिता आदि) के खिलाफ सीबीआइ में मामले चल रहे हैं, वे सीबीआइ से वापस लेकर स्वतंत्र जांच दल को सौंप दिए जाएं।


तीसरा यह है कि देशभर में उचित संख्या में स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं और दागी सांसदों के सभी मामले इन अदालतों में छह महीने में निपटाए जाएं। सही रणनीति यह होती कि सरकार पर लोकपाल बिल पास करने के लिए दबाव बनाया जाता और मानसून सत्र में इसे पास करने का नोटिस दे दिया जाता। ऐसा करने के लिए अन्ना समूह के लोगों को भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। दुर्भाग्य से अन्ना समूह के लोग न तो व्यावहारिक हैं और न ही वह जनलोकपाल या लोकपाल बिल की बात कर रहे हैं। केजरीवाल की तीसरी मांग तो एकदम तर्कसंगत है और दूसरी भी सही है, परंतु पहली मांग जो प्रधानमंत्री को लेते हुए 15 केंद्रीय मंत्रियों के विरुद्ध है, वह आपत्तिजनक कही जा सकती है। केजरीवाल ने सारे दागी व्यक्ति संप्रग सरकार के ही कैसे चुन लिए यह औचित्यपूर्ण नहीं प्रतीत होता? क्या बाकी गठबंधन या पार्टियों में सब दूध के धुले हैं? अन्ना समर्थक किसी राजनीतिक पार्टी का खेल तो नहीं खेल रहे हैं? इसके अलावा, इंडिया अगेंस्ट करप्शन को किसी के विरुद्ध आरोप लगाकर एसआइटी की मांग करने का संवैधानिक अधिकार किसने दिया है? देश में हजारों समाजसेवी संस्थाएं हैं। थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि 10 समाजसेवी संस्थाएं अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग 15 लोगों के विरुद्ध आरोप लगाती हैं और एसआइटी के गठन की मांग करती हैं तो क्या सब मामलों में 150 व्यक्तियों के विरुद्ध जांच के लिए 10 एसआइटी गठित की जाएंगी? यह तो अराजकता की स्थिति होगी। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिकायत करने, रिपोर्ट दर्ज कराने आदि की वैधानिक प्रक्रिया निर्धारित है।


इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पास अगर 15 मंत्रियों के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य हैं तो वह उपलब्ध वैधानिक मशीनरी का सहारा ले सकते थे। इस तरह हम देखते हैं कि अन्ना आंदोलन अपने मूल लक्ष्य से भटक गया है। लोकपाल बिल पारित कराने की कोई बात ही नहीं कर रहा है। रणनीति में ऐसी खामियां हैं कि जनता का आंशिक समर्थन ही प्राप्त होगा। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि अन्ना आंदोलन एकपक्षीय हो गया है। सभी पार्टियों के भ्रष्ट व्यक्तियों पर प्रहार करने की बजाय उसने एक गठबंधन के लोगों को ही निशाना बनाया है। अन्ना समूह के प्रवक्ता जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसे सुनकर भी हैरत होती है। देश के प्रधानमंत्री कितने भी कमजोर हों और उनके नेतृत्व में भ्रष्टाचार कितना ही फला-फूला हो, उनकी सत्यनिष्ठा पर अन्ना ने भी उंगली नहीं उठाई। ऐसी हालत में अन्ना समर्थकों को प्रधानमंत्री के लिए मर्यादित भाषा का प्रयोग करना चाहिए था। दुर्भाग्य से अन्ना समर्थकों में जो व्यक्ति सबसे समझदार है और हमेशा संतुलित भाषा का ही प्रयोग करता है, वह बेंगलूर में अलग-थलग पड़ गया है। आज देश के हर कोने में भ्रष्टाचार के भस्मासुर पैदा हो गए हैं। एक जमाना था जब रामनाम की लूट की बात कही जाती थी। आज तो देश की संपदा को लूटने में क्या नेता, क्या अधिकारी, क्या व्यापारी सभी लिप्त हैं। आवश्यकता है इन भस्मासुरों को ठिकाने लगाने की। इसके लिए देश का जनमानस सड़क पर उतरने के लिए तैयार है, परंतु उसे कोई सही नेतृत्व तो दिखे। एक ऐसा संस्था या एक ऐसा व्यक्तित्व तो सामने आए जो दूरदर्शी हो और जनता के दर्द को समझते हुए भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करे। अन्ना समर्थक भस्मासुरों को छोड़कर छुटभैयों को निशाना बना रहे हैं। प्रधानमंत्री के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने में कोई संकोच नहीं करता है क्योंकि वह शरीफ आदमी हैं और उलटवार नहीं करेंगे। आज प्रदेशों में ऐसे-ऐसे नेता बैठे हैं जिनके खिलाफ यदि आपने आवाज उठाई तो वे फर्जी आरोप लगाकर आपको जेल भेज देंगे। ऐसे तत्वों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा रहा है। आज आवश्यकता है भस्मासुरों पर कड़ा प्रहार करने की। दुर्भाग्य से एक तरफ तो देश के राजनीतिक नेतृत्व की नीयत सही नहीं है और वह भ्रष्ट व्यक्तियों को हर तरीके से बचाने की कोशिश करता है, दूसरी तरफ अन्ना आंदोलन की निगाह मछली की आंख से हट गई है और वह अव्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए छोटे निशानों पर तीर चला रहा है।


लेखक प्रकाश सिंह पूर्व पुलिस अधिकारी हैं


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