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फेल हुई तुष्टिकरण की एक और युक्ति

जागरण मेहमान कोना
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अल्पसंख्यक आरक्षण को राजनीतिक हथियार बनाने पर आमादा केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट से करारा झटका लगा है। कोर्ट ने केंद्रीय शैक्षणिक संस्थाओं में अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 फीसद आरक्षण के प्रावधान को निरस्त करने के आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इन्कार कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसद आरक्षण धार्मिक आधार पर तय किया गया है, जो असंवैधानिक है। हालांकि सरकार के अटार्नी जनरल जीई वाहनवती ने कोटा को तर्कपूर्ण ठहराने के लिए सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा और मंडल आयोग के सुझाव के अतिरिक्त कोटा का लाभ पाकर आइआइटी परीक्षा में सफल रहे 325 छात्रों के भविष्य का भी हवाला दिया, लेकिन कोर्ट उससे संतुष्ट नहीं दिखा। उसने कोई भी आदेश जारी करने से इन्कार कर दिया है। अब सरकार के पास कोर्ट के फैसले मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। पिछले दिनों आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण के तहत अल्पसंख्यकों के साढ़े चार फीसदी आरक्षण को खारिज किया था। सरकार हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, लेकिन अविवेकपूर्ण रवैये और तर्कहीन आधार के कारण उसे यहां भी मुंह की खानी पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि इस आरक्षण का आधार क्या है? अदालत ने यह भी जानना चाहा है कि उसने अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 फीसदी आरक्षण में से अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 फीसदी आरक्षण किस आधार पर निर्धारित किया है? सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है।


हालांकि सरकार के अटार्नी जनरल ने अल्पसंख्यक आरक्षण के पक्ष में ढेर सारे तर्क गिनाए, लेकिन कोर्ट ने उन तर्को को नकार दिया है। मतलब साफ है, सरकार के तर्क संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल नहीं हैं। केंद्र की नीयत ठीक नहीं सुप्रीम कोर्ट में जाने के पीछे सरकार की मंशा यह साबित करने की थी कि वह अल्पसंख्यक हितों को लेकर कितना संजीदा है? शायद उसे लगा होगा कि ऐसा करने से उसका वोट बैंक मजबूत होगा। सरकार को इस खेल में कितना राजनीतिक फायदा मिला यह तो वही जाने, लेकिन सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या सरकार को वाकई मालूम नहीं था कि धार्मिक आधार पर आरक्षण संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है या सरकार को यह पता नहीं था कि उसकी आधारहीन दलीलें कोर्ट में टिक नहीं पाएंगी? वास्तव में कोर्ट का फैसला देश, संविधान और समाज के हित में है। लेकिन इस बात की उम्मीद कम ही है कि कोर्ट से पराजित होने के बाद भी सरकार अल्पसंख्यक आरक्षण पर शोरगुल नहीं मचाएगी। उसकी भरपूर कोशिश रहेगी कि वह इस मसले को 2014 के लोकसभा चुनाव तक जिंदा बनाए रखे। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अल्पसंख्यक आरक्षण का राग यों ही नहीं अलापा गया था। उसे लगा कि अल्पसंख्यक कार्ड खेलने से यूपी के 18 फीसद मुसलमान उसके पाले में आ जाएंगे, लेकिन दांव उल्टा पड़ गया। भाजपा ने जहां अल्पसंख्यक आरक्षण का विरोध कर ओबीसी के हितों पर हमला बताया, वहीं बसपा-सपा सरीखे दलों ने आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यक आरक्षण की मांग कर एक नया शिगूफा छोड़ा। देश में जो संवैधानिक व्यवस्था है, उसके मुताबिक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग को ही आरक्षण की व्यवस्था है।


संविधान के अनुच्छेद 15 व 16 (4) में स्पष्ट उल्लेख है कि शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन ही आरक्षण का आधार हो सकता है, न कि मजहब। समझना यह भी जरूरी है कि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में मुसलमानों को जो आरक्षण का लाभ मिल रहा है, वह उन्हीं मुसलमानों को मिल रहा है, जो राज्य के पिछड़ा वर्ग की सूची में हैं। उन्हें अलग से धर्म के नाम पर आरक्षण नहीं दिया गया है। इन राज्यों ने पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित कोटे में ही पिछड़े मुसलमानों का कोटा तय कर रखा है। समझना यह भी जरूरी है कि पिछड़ा वर्ग के लिए केंद्र की अपनी सूची है और राज्यों की अपनी सूची। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह मसला फिर ठंडे बस्ते में चला गया है, लेकिन राजनीतिक दल अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के मतों को झटकने के लिए इस मसले को गरमाने की कोशिश कर सकते हैं। यह खेल शुरू भी हो गया है। सेक्युलर कहे जाने वाले राजनीतिक दलों ने कहना शुरू कर दिया है कि संविधान में संशोधन करके अल्पसंख्यकों को आरक्षण से लैस किया जाना चाहिए, लेकिन सवाल फिर उठेगा कि यह कैसे संभव होगा? क्या सरकार आरक्षण की परिधि 50 फीसदी को भी पार करेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट इसकी इजाजत देगा? ढेरों ऐसे सवाल हैं, जिनका उत्तर मिलना अभी कठिन है। कोटे में कोटा पर कोर्ट का तर्क आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 28 मई के अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि केंद्र ने ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षित कोटे में अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान बेहद लापरवाही से किया गया है। कार्यालय ज्ञापन पत्र के जरिये आरक्षण उप-कोटे का जो प्रावधान किया गया, वह धार्मिक आधार पर है। उसमें अन्य किसी चीज पर स्पष्ट ढंग से सोच-विचार नहीं किया गया है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि इसमें अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े या अल्पसंख्यकों के लिए जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। इससे पता चलता है कि आरक्षण का यह उप-कोटा केवल धार्मिक आधार पर तय हुआ है।


हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि सहायक सॉलिसिटर जनरल ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के एक ही वर्गीकरण को सही ठहराने के लिए हमें कोई सबूत नहीं दिया। इसलिए हम मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों और पारसियों को एक समूह का नहीं, अलग-अलग मानते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी है। अब सवाल उठता है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाने से पहले आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा उठाए गए उन बिंदुओं पर गौर क्यों नहीं फरमाया? अगर उसने गौर किया होता तो उसे सुप्रीम कोर्ट जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। लेकिन सरकार ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाकर इस अवधारणा की पुष्टि की है कि वह अल्पसंख्यक आरक्षण पर सियासी बढ़त हासिल करना चाहती थी। इतना तय है कि इस मसले पर राजनीतिक दल सियासत करने से बाज नहीं आएंगे। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने मांग की है कि संविधान संशोधन के जरिये अल्पसंख्यक आरक्षण को लागू किया जाना चाहिए। आबादी के हिसाब से मुसलमानों के लिए 4.5 फीसदी आरक्षण कम है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने मुस्लिम आरक्षण के लिए विधानसभा के चालू या अगले सत्र में एक अलग प्रस्ताव लाने की बात कही है। मतलब साफ है कि अल्पसंख्यक आरक्षण के मसले पर कोई भी राजनीतिक दल पीछे रहना नहीं चाहता है।


यही कारण है कि अल्पसंख्यकों का वाजिब मुद्दा बर्फखाने में चला जा रहा है। यह किसी से छिपा नहीं है कि मुस्लिम समुदाय की बदहाली का समाधान खोजने के लिए जस्टिस राजेंद्र सच्चर और रंगनाथ मिश्रा के नेतृत्व में जो दो आयोग गठित किए गए, उनकी रिपोर्ट में मुसमानों की योग्यता, उनकी क्षमता और उनका आत्मविश्वास बढ़ाने के कई उपाय सुझाए गए हैं। लेकिन इनमें से किसी भी बिंदु पर केंद्र सरकार और अल्पसंख्यक आरक्षण पर साझा बाजा बजाने वाले गंभीर नहीं हैं। इस दिशा में ठोस पहल की गई होती तो यकीनन मुसलमानों का पिछड़ापन दूर होता। केंद्र सरकार ने तो वोट युक्ति के लिए अपना पूरा ध्यान अल्पसंख्यक आरक्षण पर केंद्रित कर लिया है, जो सैद्धांतिक तौर पर संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत है।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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