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राष्ट्रपति चुनाव की गरिमा

जागरण मेहमान कोना
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राष्ट्रपति चुनाव के लिए सत्तापक्ष की ओर से प्रणब मुखर्जी का नाम तय हो जाने के बावजूद राजनीतिक सरगर्मियां तेज हैं और विपक्षी खेमे के उम्मीदवार के नाम को लेकर तरह-तरह की अटकलें लग रही हैं। फिर बात चाहे राजनेताओं की हो या मीडिया की, सब के सब केवल इसी आकलन में लगे हुए हैं कि और कौन राष्ट्रपति का दावेदार बन सकता है और किसके पक्ष में कितना समर्थन बल है, लेकिन इस पर शायद ही किसी ने सही ढंग से सोच-विचार किया हो कि राष्ट्रपति का उम्मीदवार कैसा होना चाहिए और यह जिम्मेदारी किसे दी जाए? देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए जिस तरह की जोड़तोड़ देखने-सुनने को मिली और अभी भी मिल रही है वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण, बल्कि लज्जाजनक भी है। राष्ट्रपति का पद शीर्ष संवैधानिक पद होने के साथ ही गरिमा का पद भी है, इसलिए ऐसी कोई भी बात जिससे इस पद की गरिमा प्रभावित होती हो, ठीक नहीं मानी जा सकती। ऐसी किसी भी स्थिति से बचने के लिए ही संविधान में राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए गुप्त मतदान का प्रावधान किया गया है ताकि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राष्ट्रपति का चुनाव बिना किसी भेदभाव आत्मा की आवाज पर निष्पक्ष रूप से कर सकें। इसमें किसी तरह की दलगत राजनीति अथवा पक्षपात के लिए जगह नहीं है। हालांकि वर्तमान परिदृश्य में यही सब देखने को मिल रहा है और विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने राष्ट्रपति के चुनाव को अपना घरेलू मुद्दा बना लिया, जिसमें आम सहमति बनाना जरूरी नहीं दिख रहा।


यह स्थिति किसी के लिए भी ठीक नहीं, न तो देश के लिए, न सरकार और न ही स्वस्थ लोकतंत्र के लिए। राष्ट्रपति का चुनाव सर्वसम्मति से किए जाने की परंपरा ही एक आदर्श स्थिति है, जिसे हर हाल में कायम किया जाना चाहिए। ऐसा न होने का ही खामियाजा है कि आज छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल राष्ट्रपति जैसे पद के लिए अपनी मांगें मनवाते नजर आते दिखे और सरकार मुश्किल में फंसती दिखी। यदि कांगे्रस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार सबसे बड़े विपक्षी दल और गठबंधन राजग के साथ मिल-बैठकर इस मुद्दे पर मशविरा करती और एक आम सहमति वाले उम्मीदवार की घोषणा करती तो वर्तमान संघर्ष की स्थिति पैदा ही नहीं होती। आखिर ऐसा क्यों है कि हमारी लोकतांत्रिक परंपरा में विपक्ष की भूमिका और उसके महत्व को इन्कार किया जा रहा है? क्या यह देश के हित में है? इस संदर्भ में एक और जिस बात पर विचार करना आवश्यक है वह है राष्ट्रपति के उम्मीदवार को तय करने का अधिकार। आखिर राष्ट्रपति का उम्मीदवार किसे तय करना चाहिए, देश की आम जनता अथवा राजनीतिक दलों के प्रमुखों को। याद रहे कि कांग्रेस कार्यकारिणी ने यह अधिकार सोनिया गांधी को सौंपा, पर क्या यह ठीक था और क्या इसे स्वीकार किया जाना चाहिए? वास्तव में यह एक तरह की तानाशाही की स्थिति है कि देश के शीर्ष पद पर बैठने वाले उम्मीदवार का निर्धारण कोई पार्टी प्रमुख करे और इसमें आम जनता सिर्फ दर्शक की भूमिका में हो। कहने को कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल करता है, जिसे जनता का समर्थन हासिल होता है पर यह व्याख्या ठीक नहीं।


राष्ट्रपति का उम्मीदवार यदि सभी पार्टियों की सहमति का नहीं है तो पद पर बैठने के बाद वह पूरी क्षमता से देश की सेवा और संविधान की रक्षा करने की शपथ पूरी कैसे करेगा? पूर्व के राष्ट्रपतियों के उदाहरण हमारे सामने हैं कि उन्होंने किस तरह से देश और संविधान की बजाय पार्टी विशेष के हितों का विशेष ख्याल रखा। दरअसल, आज यह मान लिया गया है और प्रचारित किया जा रहा है कि राष्ट्रपति एक रबर स्टैंप से ज्यादा कुछ नहीं है जिस कारण उसकी अहमियत बहुत सीमित हो जाती है, पर यह एक गलत धारणा है। राष्ट्रपति को संविधान के तहत जो शक्तियां दी गई हैं वे काफी अहम हैं, जिस कारण इस पद पर बैठने वाले व्यक्ति का चुनाव भी काफी सोच-समझकर किया जाना चाहिए। इन शक्तियों में सबसे महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री की नियुक्ति। आम चुनाव के बाद जब किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो राष्ट्रपति को अधिकार होता है कि वह किसे आमंत्रित करे-सबसे बड़े दल को अथवा सबसे बड़े गठबंधन को? गठबंधनों में भी चुनाव पूर्व और चुनाव बाद के गठबंधन महत्वपूर्ण होते हैं और कोई स्पष्ट परिपाटी और संवैधानिक प्रावधान न होने के कारण राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होता है, जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। इसके अलावा जब कोई सरकार सदन में अपना विश्वास खो देती है तो राष्ट्रपति के पास ही यह अधिकार होता है कि वह किसे आमंत्रित करे। सशस्त्र बलों का सर्वोच्च कमांडर होने के साथ ही सभी कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होती हैं और उसके नाम पर ही सारे काम होते हैं। इन सबके अतिरिक्त एक और प्रमुख शक्ति किसी विधेयक पर स्वीकृति देने अथवा न देने की भी है। राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद को वापस भेज सकता है। कह सकते हैं कि संविधान ने वास्तविक शक्ति राष्ट्रपति में आरोपित कर रखी है, बावजूद इसके यदि राष्ट्रपति को रबर स्टांप बना दिया गया है तो इसीलिए क्योंकि उसके चुनाव के लिए आम जनता से राय-मशविरा नहीं किया जाता। यहां यह भी एक भ्रांति है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है जबकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में ऐसा नहीं है। वास्तविकता यही है कि अमेरिका में भी राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल करता है और निर्वाचक मंडल का चुनाव जनता करती है। इसलिए भारत में भी परंपरा बननी चाहिए कि राष्ट्रपति के उम्मीदवार का चयन राजनीतिक दलों के प्रमुखों की बजाय आम जनता द्वारा हो।


यदि ऐसा होता है तो राष्ट्रपति की रबर स्टांप वाली छवि भी खत्म होगी और वह संविधान की रक्षा करने और देश की सेवा करने की अपना शपथ भी अधिक सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से निभा सकेगा। संविधान निर्माताओं ने भी राष्ट्रपति के पद को दलगत राजनीति से अलग रखने के लिए हरसंभव प्रावधान किए, लेकिन आज इनका क्षरण होता दिख रहा है। इस बारे में इंदिरा गांधी का उदाहरण याद आता है जब उन्होंने अपनी पार्टी के उम्मीदवार को ही हरवा दिया और बाद में सर्वसम्मति से राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए जिस तरह के अनैतिक समझौते देखने को मिले, वह ठीक नहीं। क्षेत्रीय राजनीति करने वाली पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर के मामलों में अनुचित हस्तक्षेप भी सही नहीं। बेहतर हो कि राष्ट्रपति का चुनाव दलगत राजनीति से परे होकर किया जाए, इसमें पार्टी व्हिप भी आड़े नहीं आ सकता, क्योंकि गुप्त मतदान होने के कारण दलबदल कानून लागू नहीं होता।


लेखक सुभाष कश्यप संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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