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लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन

जागरण मेहमान कोना
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गिलानी मामले में पाक सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अधिकारों के अतिक्रमण के रूप में देख रहे हैं मार्कडेय काटजू


पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को अयोग्य घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अवमानना का दोषी माना, क्योंकि उन्हों ने राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को खोलने के आदेश पर इस आधार पर अमल नहीं किया था कि राष्ट्रपति के रूप में जरदारी को आपराधिक मामलों में अदालती प्रक्रिया से छूट हासिल है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से गिलानी की संसद सदस्यता भी चली गई और वह अगले पांच साल तक चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। गिलानी को अयोग्य ठहराए जाने के बाद पाकिस्तान राजनीतिक संकट की चपेट में आ गया और इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर गंभीर बहस आरंभ हो गई। जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विधि का छात्र था तो मैंने यह ब्रिटिश संवैधानिक सिद्धांत पढ़ा था कि राजा कभी गलती नहीं कर सकता। उस समय मुझे इस सिद्धांत का महत्व नहीं पता था और मैं यह भी नहीं जानता था कि इसका मतलब क्या है? इसके बहुत बाद मुझे इसका असली मतलब समझ आया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस करते हुए मुझे इस सिद्धांत का अर्थ समझ में आया और तब मैंने यह भलीभांति जाना कि इसका असली महत्व क्या है। ब्रिटिश बहुत अनुभवी और दक्ष प्रशासक थे। उन्होंने अपने लंबे, ऐतिहासिक अनुभव से यह समझा था कि कानून की नजर में सब बराबर नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि एक ओर जहां सभी लोग अपने गलत कार्यो के लिए कानूनी प्रक्रिया का सामना करने के लिए बाध्य हैं यानी उन्हें अपने अपराध के लिए अदालतों में कठघरे में खड़ा होना पड़ता है वहीं समूचे संवैधानिक सिस्टम के शीर्ष स्थान पर बैठे व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया से पूरी तरह छूट मिलनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो सिस्टम सही नहीं काम कर सकता है।


लिहाजा इंग्लैंड के राजा को कानूनी प्रक्रिया, अपराध संबंधी न्याय प्रणाली से पूरी तरह छूट मिलनी चाहिए। भले ही राजा किसी की हत्या कर दे, डकैती अथवा चोरी में शामिल हो अथवा किसी अन्य तरह के अपराध में लिप्त हो, उसे अदालत में नहीं घसीटा जा सकता और उस पर किसी मामले में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। किसी के मन में यह सवाल उभर सकता है कि जब दूसरों के लिए यह बाध्यकारी है कि वे अपने किए के लिए अदालती प्रक्रिया का सामना करें तो राजा को यह विशेष अधिकार क्यों मिलना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि व्यावहारिक दुनिया में कोई भी सभी के साथ एकसमान व्यवहार नहीं करता। दुनिया जिनसे भी परिचित है उनमें ब्रिटिश सर्वाधिक दूरदर्शी प्रशासकों में से एक थे। उन्होंने यह महसूस कर लिया था कि यदि राजा को कठघरे में खड़ा किया गया अथवा जेल भेज दिया गया तो सिस्टम काम नहीं कर पाएगा। सिस्टम के उच्चतम स्तर पर एक ऐसी स्थिति होती है जहां शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को न्याय प्रणाली से पूरी तरह मुक्ति मिलनी ही चाहिए। यह केवल एक व्यावहारिक दृष्टिकोण ही है। ब्रिटिश संवैधानिक कानून के इस सिद्धांत का अनुकरण करते हुए दुनिया के लगभग सभी देशों ने अपने संविधान में यह प्रावधान किया है जिसके तहत राष्ट्रपतियों और राज्यपालों को आपराधिक अभियोजन से पूरी तरह मुक्ति प्रदान की है।


पाकिस्तान के संविधान का सेक्शन 248 (2) कहता है-अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के खिलाफ किसी भी अदालत में कोई भी आपराधिक मामला न तो शुरू किया जा सकता है और न ही जारी रखा जा सकता है। इस प्रावधान की भाषा बिल्कुल स्पष्ट है और व्याख्या के लिहाज से एक स्थापित सिद्धांत है कि जब किसी प्रावधान की भाषा एकदम स्पष्ट होती है तो अदालत को उसे तोड़ने-मरोड़ने अथवा व्याख्या के लिए उसे सुधारने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे उसी रूप में पढ़ना और समझना चाहिए जिस रूप में वह है। लिहाजा मैं यह समझने में असफल हूं कि किस तरह पाकिस्तान के राष्ट्रपति के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों (जो कि स्पष्ट रूप से आपराधिक प्रकृति के हैं) पर अदालती मामला शुरू कर दिया गया? इससे भी अधिक, अदालत किस तरह एक प्रधानमंत्री को पद से हटा सकती है? एक लोकतंत्र में ऐसा पहले कभी नहीं सुना गया। प्रधानमंत्री तब तक अपने पद पर काम करता रह सकता है जब तक उसे संसद का विश्वास हासिल है, न कि जब तक उसे सुप्रीम कोर्ट का विश्वास हासिल है। मुझे यह कहते हुए दु:ख है कि पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट और विशेषकर मुख्य न्यायाधीश उस संयम के पूर्णतया अभाव का प्रदर्शन कर रहे हैं जो ऊंची अदालतों से अपेक्षित होता है। सच तो यह है कि पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश एक लंबे समय से अपनी सीमा के बाहर जाकर काम कर रहे हैं। नि:संदेह सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक न्यायशास्त्र की सीमाओं से दो-दो हाथ करने का फैसला किया है, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता। संविधान शासन के सभी अंगों के बीच शक्तियों का एक संतुलित बंटवारा करता है।


शासन के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायापालिका को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए और एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो सिस्टम सही तरह काम नहीं कर सकता है। मुझे ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने खुद अपना संतुलन खो दिया है और वह अपनी सीमा से आगे चला गया है। अगर अब वह विवेक का परिचय नहीं देता तो मुझे भय है कि वह दिन ज्यादा दूर नहीं है जब पाकिस्तान का संविधान भरभरा कर ढह जाएगा और यदि ऐसा होता है तो इसका पूरा दोष पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट, विशेषकर उसके मुख्य न्यायाधीश पर ही मढ़ा जाएगा।


लेखक मार्कडेय काटजू सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष हैं


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