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इंटरनेट का हिंदी युग

जागरण मेहमान कोना
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वर्ष 2013 की शुरुआत के साथ ही व‌र्ल्डवाइड वेब पर किसी हिंदी साइट को खोलते वक्त बहुत मुमकिन है कि आप देवनागरी लिपि में टाइप करें। कम से कम उन वेबसाइट्स को, जिनका उच्चस्तरीय डोमेन नाम डॉट कॉम, डॉट नेट या डॉट ऑर्ग है। डॉट ऑर्ग की जगह संभवत: आपको डॉट संस्थान टाइप करना होगा। दरअसल, इंटरनेट पर वेब पतों का प्रबंधन देखने वाली गैर सरकारी संस्था आइसीएएनएन ने बीते 13 जून को उच्च स्तरीय डोमेन नामों के लिए हुए आवेदनों की सूची जारी की तो इसमें देवनागरी लिपि में इन तीन डोमेन नामों के लिए आवेदन किया गया था। दुनिया की अलग अलग भाषाओं में 1930 आवेदन किए गए, लेकिन देवनागरी में सिर्फ तीन आवेदन होना हैरान करता है। वैसे भारत की तरफ से ही कुल 15 आवेदन हुए जो सवाल उठाता है कि डोमेन नाम हासिल करने के खेल में कहीं हम पिछड़ तो नहीं रहे।


बावजूद इसके देवनागरी को लेकर यह पहल एक नई शुरुआत है। इसका असर इंटरनेट के भावी परिदृश्य को प्रभावित करेगा। बीते साल मई में आइसीएएनएन ने अंग्रेजी से इतर यानी नॉन लैटिन भाषा में तीन डोमेन नामों को मंजूरी दी थी। इसी के साथ वेब पतों पर अंग्रेजी के प्रभुत्व खत्म होने की शुरुआत हो गई थी, लेकिन सही मायने में वक्त अब बदलेगा। आइसीएएनएन ने 2008 में ही इस बाबत प्राथमिक प्रस्ताव पास कर लिया था कि नेट पर एशियाई, अरबी और अन्य भाषाओं में पते लिखे जाने चाहिए। अक्टूबर 2008 में आइसीएएनएन ने डोमेन नेम की बंदिशों को खत्म करने का फैसला लिया था। इसका अर्थ था कि इंटरनेट की जमीन पर कोई भी किसी भी नाम का डोमेन नेम बुक करा सकता है और उसे डॉट कॉम या डॉट नेट जैसे मुहल्ले में रहने की मजबूरी नहीं है। 1980 की शुरुआत में इंटरनेट पर वेब पते का ढांचा तैयार किया गया तो केवल तीन डोमेन नेम थे-डॉट कॉम, डॉट ईडीयू और डॉट जीओवी।


18 सितंबर 1998 को इंटरनेट कार्पोरेशन फॉर असाइन्ड नेम्स ऐंड नंबर के गठन के बाद वेब पते को सरल-सुगम बनाने के लिए उच्चस्तरीय डोमेन नामों को डॉट इन, डॉट टीवी और फिर डॉट बिज, डॉट इन्फो तक विस्तार किया गया, लेकिन इंटरनेट उपभोक्ताओं और वेबसाइटों की तेजी से बढ़ती संख्या के बीच डोमेन नेम की दिक्कत बढ़ती गई। हालांकि डॉट के बाद लगने वाले सफिक्स की संख्या बढ़कर 22 तक पहुंची, लेकिन ज्यादातर फ्लॉप साबित हुए। भारत में देवनागिरी लिपि में वेब पतों की अहमियत को कभी समझा ही नहीं गया। इसकी बड़ी वजह यह है कि अभी इंटरनेट की पहुंच जिस तबके तक है उसे इतनी अंग्रेजी आती है कि वह अपना काम आसानी से चला सके। इंटरनेट के फलक के विस्तार के साथ भारतीयों खासकर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच हिंदी व दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में इंटरनेट की जरूरत दिखाई देने लगी है। अनुमान है कि 2015 में भारत में कुल नेट उपयोक्ताओं में आधे ग्रामीण इलाकों से होंगे। यूनिकोड ने फॉन्ट की समस्या को भी बहुत हद तक दूर किया है। हिंदी में सर्च इंजन वेबसाइट खोजने की सुविधा दे रहे हैं।


देवनागरी लिपि के की-बोर्ड बाजार में मिलने लगे हैं, लेकिन वेब पतों का अंग्रेजी में होना कई लोगों के लिए परेशानी भरा रहा है। अपनी भाषा में लिखे वेब एड्रेस इन समस्याओं के निपटारे की दिशा में बड़ा कदम है। क्षेत्रीय भाषाओं में वेब पते होने के बाद लोकल कंटेंट की मांग बढ़ेगी और देश में ई-कॉमर्स को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि देवनागरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में वेब पते होने से भी ग्रामीणों के बीच नेट की लोकप्रियता अचानक बढ़ जाएगी ऐसा भी नहीं है। इसके लिए सतत प्रयास करने होंगे। देवनागरी के की-बोर्ड की व्यापक उपलब्धता से लेकर क्षेत्रीय भाषा में प्रचुर कंटेंट की आवश्यकता होगी। आपरेटिंग सिस्टम भी क्षेत्रीय भाषा में हों ताकि लोगों को यह लगे ही नहीं कि कंप्यूटर ऑपरेट करने के लिए अंग्रेजी की दरकार है।


इस आलेख के लेखक पीयूष पांडे हैं


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