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काले धन का उपेक्षित पहलू

जागरण मेहमान कोना
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काले धन पर श्वेत पत्र महज खानापूरी साबित हुआ है। अन्य अनेक पहलुओं के साथ-साथ श्वेतपत्र में चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किए जाने वाली भारी-भरकम रकम पर अंकुश लगाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है। चुनाव में काले धन के बढ़ते इस्तेमाल ने हमारे संसदीय लोकतंत्र को एक मखौल बनाकर रख दिया है। अमीर और ताकतवर उम्मीदवारों और राजनीतिक दल व उद्योग घरानों के घालमेल ने हमारी निर्वाचन प्रक्रिया को ऐसे सस्ते बाजार में बदल दिया है जहां पैसा वोटों के सौदे करता है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ही नहीं, अब तो राज्यसभा में भी पैसा ही उम्मीदवारी और हार-जीत तय करने लगा है। पिछले दिनों झारखंड में राज्यसभा के उम्मीदवार के भाई की गाड़ी से भारी मात्रा में नकदी बरामद होने से पता चलता है कि काला धन हमारे देश की समग्र राजनीतिक तंत्र की रग-रग में समा गया है।


चुनाव आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान 36.17 करोड़ रुपये का काला धन जब्त किया गया, जबकि तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों के दौरान 74 करोड़ रुपये जब्त किए गए। यह चुनावों में काले धन के बढ़ते चलन का स्पष्ट संकेतक होने के साथ इसकी भी पुष्टि करता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को तगड़ी चोट देने वाला काला धन आम लोगों की संपन्नता और विकास पर भी भारी पड़ रहा है। बेहद चिंताजनक पहलू यह है कि करीब-करीब सभी राजनीतिक दल अपने गोपनीय अभियानों और गतिविधियों के लिए अज्ञात लोगों से चंदा वसूल कर रहे हैं। उदाहरण के लिए सत्ताधारी दल ने 2008-09 से पहले के पांच साल में 978 करोड़ रुपये कूपन बेचकर अर्जित किए, जिसके लिए आयोग को किसी दानकर्ता का नाम नहीं बताया गया, जबकि घोषित श्चोत से महज 85 करोड़ रुपये लिए गए। चुनाव आयुक्त के अनुसार लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने वाला सांसद औसतन 7 से 10 करोड़ रुपये तथा सफल विधायक 2-3 करोड़ रुपये खर्च करता है।


ऑपरेशन एमएलए के नाम से किए गए एक टीवी स्टिंग ऑपरेशन में बिजनौर के एक उम्मीदवार ने स्वीकार किया कि उसने जिला पंचायत का चुनाव जीतने के लिए 27 करोड़ रुपये खर्च कर डाले। वोटों का यह व्यापार और उम्मीदवारों की खरीद-फरोख्त हमारे राजनीतिक दलों के लिए आम बात है। यह खुला रहस्य है कि इसके लिए अघोषित दानकर्ताओं से काला धन लिया जाता है। एक पार्टी को चलाने के लिए कितना धन चाहिए? अगर कांग्रेस के 2009-10 वित्तीय वर्ष के परिणाम देखें तो इसका जवाब है 525.97 करोड़ रुपये। इस पार्टी के लाखों कार्यकर्ता हैं और तमाम राज्यों के हर शहर में कार्यालय हैं। कांग्रेस हर साल औसतन सात राज्यों के विधानसभा चुनावों में उतरती है। भारत की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के 2009-10 वित्तीय वर्ष के आडिट नतीजों के अनुसार इसकी आय 261.74 करोड़ रुपये है। इस साल पांच विधानसभा चुनावों में भाजपा-कांग्रेस ने एक हजार से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। एक अनुमान के अनुसार विधानसभा के उम्मीदवार का औसत चुनावी खर्च 2.5 करोड़ से पांच करोड़ रुपये के बीच है, जबकि खर्च का अधिकृत आंकड़ा अधिकतम 25 लाख रुपये है। इसी प्रकार लोकसभा प्रत्याशी का औसत चुनाव खर्च पांच करोड़ से 20 करोड़ रुपये के बीच का है। इसका अधिकतम आंकड़ा 40 लाख रुपये है।

इस प्रकार कांग्रेस और भाजपा के एक हजार से अधिक उम्मीदवारों पर महज दो महीने के भीतर 2500 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। अगर इसमें संगठनात्मक खर्च भी जोड़ लिया जाए तो दोनों दलों के लिए यह रकम पांच-पांच हजार करोड़ रुपये बैठती है। यह इन पार्टियों के बैलेंस शीट का दस गुना है। इससे पता चलता है कि घोषित और वास्तविक खर्च में भारी अंतर है। आमतौर पर इस अंतर की भरपाई उद्योग घरानों से चंदे, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाओं से घूस आदि के माध्यम से की जाती है। वास्तव में चुनाव लड़ना बहुत खर्चीला होता है, जिसके लिए राजनीतिक पार्टियां अपने उम्मीदवारों का हरसंभव काले धन आदि के माध्यम से मदद करती हैं। जनप्रतिनिधि कानून के मुताबिक किसी व्यक्ति अथवा कंपनी से 20 हजार से अधिक राशि चुनावी चंदा मिलने पर जानकारी दी जानी अनिवार्य है, लेकिन इसका पालन शायद ही होता है।


जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों और बाहुबलियों में एक तरह का गठबंधन हो गया है जो भारतीय लोकतंत्र को हाइजैक कर रहा है। दलों को मिलने वाले 90 फीसद चंदे का श्चोत अस्पष्ट होता है। इस बारे में 1975 में तारकुंडे समिति, 1990 में गोस्वामी समिति, 1998 में चुनाव आयोग के सुझाव और इंद्रजीत गुप्ता आदि समितियों की रिपोर्ट में भी काफी विस्तार से उपाय सुझाए गए ताकि काले धन और अनाम धन वालों की भूमिका को खत्म किया जा सके। आम लोगों की जागरूकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इन सुझावों पर अमल नहीं हो सका। इस बारे में चुनाव आयोग की भूमिका भी बहुत उत्साहजनक नहीं है। आज चुनाव आयोग पोस्ट ऑफिस की भूमिका निभा रहा है जिसका काम महज आयकर विभाग को सूचनाएं उपलब्ध कराना और छोटी-मोटी कार्रवाइयों तक सीमित है। यदि इन कार्रवाइयों का थोड़ा बहुत भी वास्तविक प्रभाव पड़े तो यह भविष्य के लिए एक प्रतिरोधक का काम कर सकती हैं।


जसवीर सिंह आइपीएस अधिकारी हैं और ये उनके निजी विचार हैं


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