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जन्म की स्वतंत्रता!

जागरण मेहमान कोना
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वैज्ञानिकों की मानें तो गर्भस्थ शिशु के डीएनए को बदलने की तरकीब उनके हाथ लग गई है। डीएनए वे तत्व हैं जो शरीर के बुनियादी ढांचे का निर्णय करते हैं। जैसे त्वचा का रंग, आंखों का रंग, गंजापन, बौद्धिक स्तर, अभिरुचियां आदि। अब इस पर बहस चल रही है कि क्या मनुष्य के डीएनए को बदलने की आजादी होनी चाहिए? रोग दूर करने के लिए मानव भ्रूण की बनावट में हस्तक्षेप करना एक बात है और भ्रूण को अपनी अभिरुचि के अनुसार ढालना बिल्कुल दूसरी बात। अगर सभी माता-पिता अपनी-अपनी अभिरुचि के अनुसार अपने बच्चों की शक्ल तय करने लगेंगे तो यह ईश्वर के प्रति अपराध होगा और प्रकृति की व्यवस्था से बगावत। मनुष्य को इतनी स्वाधीनता नहीं होनी चाहिए कि वह अपनी प्रजाति का नक्शा ही बदल दे। साथ ही यह गर्भ में पल रहे भ्रूण के प्रति भी गैर-जिम्मेदार हरकत है। विज्ञान और तकनीक का विकास होने के पहले मनुष्य की एक सीमा थी। आज यह सीमा बहुत परे धकेल दी गई है और कुछ मामलों में आदमी ईश्वर-ईश्वर खेल सकता है। आज ऐसा बहुत कुछ है जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।


ब्रिटिश संसद के अधिकारों के बारे में कहा जाता था कि स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनाना छोड़कर वह कुछ भी कर सकती है, लेकिन अब पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष बनाना भी संभव हो गया है। नई क्षमताएं और नई संभावनाएं नए सवाल भी पैदा करती हैं। ईश्वर या प्रकृति की व्यवस्था में मनुष्य का हस्तक्षेप किस बिंदु तक जायज है, आज यही सवाल सामने है। इस सिलसिले में मूलभूत प्रश्न है कि ईश्वर या प्रकृति की योजना क्या है? आज हम मनुष्य को जैसा पा रहे हैं, कुछ हजार वर्ष पहले वह ऐसा न था। कुछ लाख वर्ष पहले तो वह बिल्कुल ही ऐसा नहीं था। कुछ करोड़ वर्ष पहले तो वह था ही नहीं। अगर ईश्वर चाहता कि बना-बनाया पूर्ण मनुष्य पृथ्वी पर शासन करे तो क्या मनुष्य के विकास में इतना लंबा समय लगता? क्या वह एक ही बार में, जैसी कि आदम और हौवा की कल्पना बताती है पूर्ण विकसित मनुष्य नहीं बना सकता था? लाखों साल पहले आदमी गर्मी में तपता था और ठंड से ठिठुरता था।


भोजन की असुरक्षा थी। मकान नहीं थे। सड़कें नहीं थीं। बीमारी की हालत में कुछ करना संभव नहीं था। अपने अथक प्रयास से मनुष्य ने अपने परिवेश को बिल्कुल बदल दिया है। आज शोषण को बंद और अविकास को दूर कर दिया जाए तो पूरी मानवता सुख से जीवन बिता सकती है। क्या यह सब ईश्वर की योजना में है? क्या प्रकृति ऐसा ही चाहती है? यह मनुष्य की प्रतिभा और श्रम का नतीजा है कि उसने धरती को नए ढंग से परिभाषित कर दिया है। बेशक इसमें ज्यादती भी हुई है और पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा है। कई हजार साल के विकास के बाद यह नई समस्या हमारे सामने पेश हुई है, लेकिन इसका भी हल निकाल लिया जाएगा। कोई भी प्रजाति जानकर खुद को संकट में नहीं डाल सकती। इस संदर्भ में अपनी संतान का रंग-रूप, कद चुनने का अधिकार बहुत स्वाभाविक लगता है। आखिर सुंदर दिखने के लिए हम अपने शरीर के साथ तरह-तरह के प्रयोग करते ही हैं,लेकिन हम जब गर्भ में थे तब हमारे माता-पिता के लिए यह संभव नहीं था कि वे हमारा पुनर्निर्माण कर सकें। प्रकृति जो देती थी वही उन्हें स्वीकार करना पड़ता है।


आज अगर यह मजबूरी हट रही है तो यह उत्सव मनाने की बात है या शोक करने की? अगर यह हस्तक्षेप है तो हमारी पूरी संस्कृति ही हस्तक्षेप है। यह हस्तक्षेप नहीं किया गया होता तो हम आज भी वन्य अवस्था में जी रहे होते। अगर प्रकृति ऐसा नहीं चाहती तो वह हमें बुद्धि प्रदान ही क्यों करती? ईश्वर इसके विरुद्ध होता तो क्या हमें सजा नहीं देता? यह सवाल अपनी जगह है कि संतान किसकी होती है? क्या उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है, अपनी चाहतें होती हैं या वह अपने माता-पिता की संपत्ति है? इस प्रश्न का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता। यह तो तय है कि कोई भी माता-पिता अपनी संतान को परिस्थितियों के हवाले नहीं छोड़ना चाहता। वे उसके पालन-पोषण में, उसकी शिक्षा में मूल्यों का निवेश करते हैं। सच तो यह है कि संतान इसीलिए प्यारी भी होती है।


माता-पिता के हाथ में एक जीव का होना और उसे अपने ढंग से ढालने की स्वतंत्रता और सुविधा एक तरह से आदमी को स्त्रष्टा का ही सुख देती है। हमारा सवाल है, यह सुख जन्म के बाद ही क्यों, जन्म के पहले से क्यों नहीं? बच्चा जब गर्भ में रहता है तो वह अपने फैसले खुद नहीं कर सकता। उसकी ओर से उसके माता-पिता ही निर्णय करते हैं। अगर कुछ ऐसे निर्णय हैं जो जन्म के बाद नहीं लिए जा सकते यानी तब तक काफी देर हो चुकी होगी तो माता-पिता को यह अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि वे निर्णय उसकी भ्रूणावस्था में ले सकें। बड़ा होने के बाद बच्चे का अपना व्यक्तित्व बन जाता है, तब वह अपनी जिंदगी अपनी मर्जी के मुताबिक जी सकता है। तब वह अपने माता-पिता के निर्णयों की आलोचना भी कर सकता है, लेकिन जब हम किसी और की जिंदगी के बारे में फैसला करते हैं तो इतनी जोखिम तो उठानी ही पड़ेगी। वास्तव में यह एक धुंधला इलाका है जहां कुछ भी निश्चित नहीं है। अनिश्चय के सभी क्षेत्रों में हमें स्वतंत्रता का ही पक्ष लेना चाहिए तभी इतिहास को गति मिल सकती है।


इस आलेख के लेखक राजकिशोर हैं


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