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यूरोप की बेजा मदद

जागरण मेहमान कोना
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जी-20 शिखर सम्मेलन में भारत ने यूरोप की मदद के लिए 10 अरब डॉलर (करीब 56000 करोड़ रुपये) की रकम उपलब्ध कराने का वचन दिया है। रूस तथा ब्राजील ने भी इतनी ही रकम उपलब्ध कराने का वचन दिया है। चीन ने 43 अरब डॉलर उपलब्ध कराए हैं। भारत द्वारा उपलब्ध कराई गई इस रकम की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने देश में इतनी ही रकम केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा जनता को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए एक वर्ष में व्यय की जाती है। जी-20 शिखर सम्मेलन में सहमति बनी है कि यूरोपीय देशों की प्रमुख समस्या मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों का बंटवारा है। यूरोपीय बैंक द्वारा सभी सदस्य देशों की एकल मौद्रिक नीति निर्धारित की जाती है जैसे कितने यूरो छापे जाएं अथवा ब्याज दर कितनी हो? सभी सदस्य देश यूरो मुद्रा का उपयोग करते हैं। यूरो का मूल्य यूरोपीय बैंक की नीतियों से निर्धारित होता है, जो सभी सदस्य देशों को एक साथ प्रभावित करता है, परंतु हर सदस्य देश अपनी अलग वित्तीय नीति निर्धारित करता है, जैसे टैक्स की दर क्या हो, डीजल पर कितनी सब्सिडी दी जाए, बेरोजगारी भत्ता दिया जाए या नहीं इत्यादि। समस्या है कि मौद्रिक तथा वित्तीय नीति में सामंजस्य नहीं है। जैसे मौद्रिक नीति आसान हो एवं ब्याज दर न्यून हो तो व्यापार बढ़ता है, सरकार को टैक्स अधिक मिलता है और बेरोजगारी भत्ता देने की क्षमता बढ़ती है।


मुद्रा बाजार में तरलता रहने के कारण सरकार को ऋण भी आसानी से मिल जाता है। इसके विपरीत मौद्रिक नीति कठोर होने के कारण सरकार को आसान ऋण नहीं मिलता है। सरकार को ऊंची दर पर ऋण लेना पड़ता है। सरकार पर ब्याज का बोझ बढ़ता है। सरकार की ऋण अदायगी की क्षमता का Oास होता है। सरकार की साख पर धब्बा लग जाता है। ऐसा ही ग्रीस में हुआ है। यह घटनाक्रम न होता यदि मौद्रिक नीति आसान होती। तब ग्रीस की सरकार को ऋण आसानी से उपलब्ध हो जाता। अत: ग्रीस के संकट का कारण यह कहा जा सकता है कि सरकार खर्चीली वित्तीय नीति को अपना रही थी, परंतु यूरोपीय बैंक द्वारा लागू की गई मौद्रिक नीति कठोर थी। इसलिए ग्रीस की सरकार को आसान शतरें पर ऋण नहीं मिला और वह देश संकटग्रस्त हो गया। जी-20 शिखर सम्मेलन में सहमति बनी है कि यूरोपीय देशों द्वारा मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों के बंटवारे को समाप्त कर दिया जाएगा। यूरोपीय देश एकल वित्तीय नीति बनाने की दिशा में बढ़ेंगे। जिस प्रकार यूरोपीय केंद्रीय बैंक सभी देशों के लिए एकल मौद्रिक नीति बनाता है उसी प्रकार सभी देशों की एकल वित्तीय नीति बनाई जाएगी। जी-20 देशों ने यूरोप को मदद इस शर्त पर ही देना स्वीकार किया है। जी-20 का आकलन है कि मौद्रिक और वित्तीय नीतियों में सामंजस्य स्थापित होने पर यूरोप का संकट नियंत्रण में आ जाएगा।


जी-20 के इस आकलन से मैं सहमत नहीं हूं। इतना सही है कि नीतियों में सामंजस्य स्थापित होने पर ग्रीस जैसे कमजोर देशों की समस्या कुछ नियंत्रण में आ जाएगी। ग्रीस की मनमर्जी से खर्च करने की स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी और अनावश्यक ऋण से वह देश बच जाएगा, परंतु मेरे आकलन में यूरोप समेत सभी विकसित देशों जैसे अमेरिका और कनाडा की मूल समस्या है कि ये देश भारत और चीन के सामने प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पा रहे हैं। अमेरिका में 2008 का संकट इसी कारण उत्पन्न हुआ था। हुआ यूं कि भारत तथा चीन की प्रतिस्पर्धा के कारण अमेरिकी श्रमिकों के वेतन दबाव में आ गए। बैंकों से प्रापर्टी के लिए गए लोन की ये श्रमिक अदायगी नहीं कर सके। फलस्वरूप बैंक को इनकी प्रापर्टी का अधिग्रहण करना पड़ा और इसे आधे-तिहाई मूल्य पर बेचना पड़ा। बैंकों को भारी घाटा लगा और वे संकट में आ गए और साथ-साथ पूरी अर्थव्यवस्था को डुबो दिया। यूरोप भी चीन तथा भारत की प्रतिस्पर्धा का सामना करने में उतना ही नाकाम है जितना अमेरिका, परंतु यूरोप के देशों ने प्रतिस्पर्धा क्षमता के क्षीण होने की नीति का सामना करने की अलग नीति बनाई। उन्होंने ऋण लेकर बेरोजगारी भत्ते दिए। फलस्वरूप अर्थव्यवस्था चलती रही, क्योंकि बेरोजगारों के पास भी क्रयशक्ति बनी रही, परंतु सरकार ऋण से दब गई। यही ग्रीस, स्पेन और इटली के वर्तमान संकट का कारण है। विचार करने का विषय है कि मौद्रिक और वित्तीय नीतियों में सामंजस्य स्थापित करने से यूरोप की प्रतिस्पर्धा की शक्ति सुधरेगी क्या? यूं समझिए कि व्यक्ति भूख और कमजोरी से पीडि़त है। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है। वहां फिजीशियन और रेडियोलाजिस्ट अलग-अलग उपचार चालू कर देते हैं। ऐसे में यदि दोनों डॉक्टरों के बीच सामंजस्य स्थापित कर दिया जाए तो मरीज को लाभ अवश्य होगा, परंतु भूख और कमजोरी की मौलिक समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी, क्योंकि लंबे समय तक पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने की अस्पताल में व्यवस्था होती ही नहीं है। इसी प्रकार मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों में सामंजस्य स्थापित होने से प्रतिस्पर्धा की मौलिक समस्या का समाधान नहीं होता है। ऐसे ही आकलन के आधार पर अमेरिकी सांसद टॉम कॉबर्न ने यूरोप को मदद देने का विरोध किया है।


उन्होंने कहा, हम अच्छे पैसे को रद्दी पैसे के पीछे बहा रहे हैं। यूरोप अंतत: ऋण की अदायगी नहीं कर सकेगा। उसकी फिजूलखर्ची को पोषित करने के लिए सहायता देना अनुचित है। इस पृष्ठभूमि में देखना है कि भारत द्वारा यूरोप को मदद देना उचित है या नहीं। इस ऋण का उपयोग यूरोपीय बैंकों को सुदृढ़ करने के लिए किया जाएगा। ग्रीस को ऋण दिया जाएगा जिससे वह पूर्व में लिए गए ऋण की अदायगी कर सके। इस अवधि में ग्रीस की सरकार द्वारा अपने ऋण घटाए जाने की आशा है, परंतु इन कदमों से यूरोप की प्रतिस्पर्धा की ताकत नहीं बढ़ती है। बैंक सुदृढ़ हो जाएं अथवा बेरोजगारी भत्ते में कटौती हो जाए तो माल की उत्पादन लागत नहीं घटती है। अत: यूरोप को मदद देना निष्फल होगा। रूस के प्रधानमंत्री पुतिन ने कहा है कि वह मदद इसलिए दे रहे हैं कि मुद्राकोष की नीति पर प्रभाव डाल सकें। यह तर्क सही है। यदि मनमोहन सिंह ने भी इसी विचार से मदद देना स्वीकार किया है तो यूरोप की प्रतिस्पर्धा की मौलिक समस्या को उठाना चाहिए और यूरोप को अपने श्रमिकों के वेतन में कटौती करने को कहना चाहिए। इस मौलिक समाधान के अभाव में सहायता देना व्यर्थ होगा।


लेख्रक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

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