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राजनीतिक बिसात पर नई चालें

जागरण मेहमान कोना
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औपचारिक घोषणा भले ही जुलाई के अंतिम सप्ताह में हो, लेकिन यह लगभग तय है कि देश के प्रथम नागरिक बनने का श्रेय प्रणब मुखर्जी को मिलने जा रहा है। सवाल यह है कि आखिर इस बार ऐसा क्या रहा कि राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को लेकर राजनीतिक गलियारों में इतनी जबर्दस्त हलचल रही कि कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टियां तक इसमें शामिल हो गईं। इसका उत्तर फिलहाल इस प्रश्न के उत्तर में ढूंढा जाना चाहिए कि यदि लोकसभा के चुनाव 2014 के बजाय 2012 में होते तो क्या तब भी राष्ट्रपति के चुनाव का परिदृश्य वहीं होता? एक अन्य प्रश्न यह भी है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आम चुनाव 2014 के बजाय 2013 में ही हो जाएं? यह प्रश्न जेहन में इसलिए उठ रहा है, क्योंकि जुलाई में चुनाव तो होने जा रहा राष्ट्रपति का, लेकिन बात हो रही है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? शायद सभी राजनीतिक पार्टियों ने मन ही मन यह मान लिया है कि प्रधानमंत्री वही होगा, जिसे राष्ट्रपति चाहेंगे। यह बात इसलिए भी ध्यान में आ रही है, क्योंकि पहले जब राष्ट्रपति के चुनाव की बात आती थी तो अधिक जोर विधायिका और कार्यपालिका के बीच के तालमेल यानी शक्ति के संतुलन पर दिया जाता था, ताकि सरकार ठीक-ठाक चलती रही अर्थात वैसी स्थिति न आए जैसी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी केबीच आ गई थी। इस बार तो ऐसा लग रहा है मानो भविष्य में प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करने जा रहा हो, चाहे फिर लोकसभा में राजनीतिक दलों की स्थिति कैसी भी क्यों न हो।


कांग्रेस के लिए यह बात तनिक भी मायने नहीं रखती कि राष्ट्रपति किस तरह के व्यक्ति को बनना चाहिए। वह कोई भी हो सकता है, बशर्ते कि पार्टी के हितों को साधने वाला हो। फिलहाल तो उसने एक ही तीर से दो निशाने लगा लिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रणब मुखर्जी को अपना उम्मीदवार घोषित करके उसने उन लोगों की जबान पर ताला लगा दिया जो अलग-अलग नामों के पक्ष-विपक्ष में तर्क दे रहे थे। प्रणब मुखर्जी के नाम पर राजनीतिक पार्टियों की भले ही अपनी कुछ आपत्ति हो, लेकिन कम से कम आम लोगों में तो कोई आपत्ति नहीं है। यह हुआ पहला निशाना। दूसरे निशाने के तौर पर प्रधानमंत्री की कुर्सी थी। धीरे-धीरे प्रणब मुखर्जी का कद कांग्रेस में सोनिया गांधी के बाद माना जाने लगा। कोई ताज्जुब नहीं होता, यदि 2014 में कांग्रेस द्वारा सरकार बनाने की बात आती तो कुछ लोग दबी जबान से ही सही, प्रणब मुखर्जी का नाम लेने लगते। प्रणब मुखर्जी पिछले कुछ समय से ट्रबल शूटर यानी संकटमोचक के नाम से लोकप्रिय हो चले थे। सोनिया गांधी ने उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर राहुल गांधी के सामने भविष्य में खड़े हो सकने वाले संभावित संकट को समाप्त करने की कोशिश की है। अब राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री का पद निरापद है, बशर्ते कांग्रेस इस स्थिति में पहुंचे। साथ ही कांग्रेस की यह भी सोच है कि प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बनने के बाद मौका आने पर अपना राजनीतिक-धर्म निभाने की कोशिश करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।

भाजपा इस मामले में सोचती ही रह गई। उसकी कार्यकारिणी की बैठक से पहले नरेंद्र मोदी ने संजय जोशी का ऐसा राग छेड़ा कि उसके सुर राष्ट्रपति की जगह पर प्रधानमंत्री का गान करने लगे। बात होनी चाहिए थी कि भाजपा की ओर से कौन बनेगा राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार और बात होने लगी कौन बनेगा अगला प्रधानमंत्री। नतीजा यह हुआ कि देश की इस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी को दूसरी पार्टियों के द्वारा खड़े किए गए उम्मीदार को अपना उम्मीदवार मानने को मजबूर होना पड़ा। भाजपा को लगा कि छोटी पार्टियों द्वारा समर्थित उम्मीदवार पर अपनी सहमति जताकर वह राजग गठबंधन को न केवल मजबूत बना लेगी, बल्कि उसके आधार को भी फैला देगी। इससे भविष्य में केंद्र की सत्ता तक पहुंचने का रास्ता सरल हो जाएगा, लेकिन मोदी के मामले के चलते योजना धरी की धरी रह गई। यह भाजपा के अवचेतन में बसी प्रधानमंत्री की कुर्सी की ही अभिव्यक्ति थी कि पूरी भाजपा में कोई भी मोदी के खिलाफ खुलेआम बोलने की हिम्मत नहीं कर सका, बल्कि कुछ नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता की अपनी परिभाषाएं देकर मोदी के लिए ढाल बनने की ही कोशिश की। इस पूरे वाद-विवाद का अंत इस निश्चितता के साथ हुआ कि अब मोदी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शेष भाजपाई नेताओं से फिलहाल आगे चल रहे हैं। यदि जनता दल (यू) अलग भी होता है तो उसकी भरपाई के लिए कुछ अन्य दल भी हैं। शायद भाजपा को यह भी लग रहा हो कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को सामने लाने पर जनता सीधे ही इस क्षति की पूर्ति कर देगी।


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही यह क्यों न कहें कि मैंने तो सपने में भी प्रधानमंत्री के बारे में नहीं सोचा है, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। भविष्य की जो राजनीतिक तस्वीर दिखाई दे रही है उसमें कोई ताज्जुब नहीं कि एक बार फिर गुजराल या देवगौड़ा जैसी स्थिति बन जाए। यह तीसरा मोर्चा होगा और इसकी झलक शायद नीतीश कुमार ने देख ली है। फिलहाल विकास पुरुष के रूप में नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी से बराबरी पर हैं। सांप्रदायिकता के मामले को उठाकर वह लाभ लेना चाह रहे हैं। इससे इन्हें वामपंथियों का तथा जरूरत पड़ने पर कांग्रेस का समर्थन मिलने की संभावना भी बनी रहेगी। कम से कम फिलहाल तो प्रधानमंत्री की दौड़ में नीतीश की स्थिति तीसरे मोर्चे में वही है जो भाजपा में मोदी की है। नीतीश का मुकाबला यदि किसी से होगा तो वह मोदी ही हैं और उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव से ही इस मुकाबले का बिगुल बजा दिया है।

डॉ. विजय अग्रवाल पूर्व प्रशासनिक अधिकारी तथा पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के पूर्व निजी सचिव हैं

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