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बिगड़ते जलवायु चक्र की चिंता

जागरण मेहमान कोना
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इस साल अब तक मानसून की बारिश नहीं होने के कारण हाहाकार मचा है। उत्तर भारत में भीषण गरमी से जीव-जंतु से लेकर पशु-पक्षी, मनुष्य सभी बेहाल हंै तो खेती पर संकट के बादल दिख रहे है। जलवायु के बदलाव को लेकर की जा रही वैज्ञानिक भविष्यवाणियां सच साबित हो रही हैं और सर्दी, गर्मी व बरसात तीनों ही ऋतुओं की प्रकृति बदल चुकी है। मौजूदा समय में गर्मी और तापमान का सामान्य से ऊपर रहना और नित नए रिकॉर्ड बनाना जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की चेतावनी है। भारतीय मौसम विभाग की मानें तो 1901 के बाद से रिकॉर्ड किए गए अपने देश के दस सबसे गर्म सालों में से आठ पिछले दशक में दर्ज किए गए हैं। मौसम विभाग का यह भी कहना है कि 1993 के बाद से जितने भी बरस आए हैं उनमें एक को छोड़कर सभी का औसत तापमान सामान्य से ज्यादा रहा है। इससे एक बात तो साफ हो ही जाती है कि ग्लोबल वार्मिग की वजह से अपने देश के मौसम ने करवट लेनी शुरू कर दी है। यह असर हमें तब देखने को मिल रहा है जब यह कहा जा रहा है कि ग्लोबल वार्मिग का असर काफी आगे चलकर पता चलेगा या फिर इसका असर कभी-कभार ही देखने को मिलता है। चिलचिलाती गरमी, भयंकर बाढ़ और धरती से पानी की बूंद-बूंद चूस लेने वाले सूखे की वजह से देश को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।


मौसम विभाग के इस खुलासे ने कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों की इस आशंका की पुष्टि कर दी है कि इस सदी के अंत तक देश के मौसम का पारा 3 से 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। साथ ही मौसम के इस रूठे मिजाज की वजह से 22वीं सदी के आते-आते मानसून की बारिश में भी 15 से 50 फीसद तक का इजाफा हो जाएगा, लेकिन यह बारिश अगर किसी एक महीने में एक साथ हुई तो इससे खेती को भारी नुकसान हो सकता है। सूखे के बाद अचानक बाढ़ का खतरा पैदा हो सकता है। समस्या यह है कि ज्यादा बारिश के साथ-साथ गरमी की वजह से ग्लेशियर भी तेजी से पिघलने लगेंगे। इस वजह से समंदर का जलस्तर काफी बढ़ जाएगा, जिससे भूगोल भी बदल सकता है। इसका सबसे ज्यादा असर तो जंगली जीवों से भरे-पूरे सुंदरवन जैसे तटीय इलाकों पर पड़ेगा। दूसरी तरफ ग्लेशियरों के खत्म हो जाने की वजह से देश में गंगा जैसी बड़ी नदियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ेगा। इस वजह से उन लाखों किसानों से उनकी रोजी-रोटी छिन जाएगी जो मौसम में आते इस बदलाव के कारण खुद को ढाल पाने में सक्षम नहीं है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि इस सदी के अंत तक अगर पारे का चढ़ना नहीं रुका तो खेती की पैदावार में 10 से लेकर 40 फीसद तक की गिरावट आ सकती है। साफ है कि ग्लोबल वार्मिग की सबसे ज्यादा कीमत किसी को चुकानी होगी तो वह कृषि क्षेत्र है, जबकि धरती के पारे को चढ़ाने में इसका योगदान सबसे कम है। इसका असर अभी से धान की फसल पर दिखाई देने लगी है।


ग्लोबल वार्मिग का असर अब पूरी दुनिया पर दिख रहा है। ग्लोबल वार्मिग ने मौसम और जलवायु को काफी बदल दिया है। कहीं भीषण गरमी हो रही है तो कहीं भयंकर बाढ़ और चक्रवाती तूफान आ रहे हैं जिससे भारी तबाही मच रही है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु डाटा केंद्र की जलवायु निगरानी शाखा अनुसार पिछले तीन दशकों से ग्लोबल वार्मिग के अध्ययन के नतीजे हमारी धरती के लिए बहुत चौंकाने वाले रहे हैं। इस रिपोर्ट से विश्व के विभिन्न भागों में भारी बारिश एवं बाढ़, रिकॉर्ड गर्मी और गंभीर सूखे, हिमनदों एवं समुद्री बर्फ के पिघलने सहित मौसम में बदलाव की हाल की घटनाओं का उल्लेख किया गया है। ग्लोबल वार्मिग के कारण समुद्र के सतह का तापमान बढ़ने से तापमान में बढ़ोतरी हुई है। इससे हवा में भी नमी बढ़ी है, जिसने भारी हिमपात और तेज बारिश का आधार तैयार किया है। हिमालय की हिंदुकुश पर्वतमालाएं जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह उत्तरी और दक्षिणी एशिया के बीच पारितंत्रीय बफर के रूप में काम करती है। यह पर्वतमाला मध्य एशिया और ज्यादातर एशिया और यूरेशिया में जीवन के मुख्य स्त्रोत जल संसाधन का घर है। यदि ग्लोबल वार्मिग से इसकी जलवायु बदलती है तो इसका दुष्परिणाम सारी दुनिया को झेलना पडे़गा। इसका असर खेती के फसल चक्र पर भी पड़ेगा और खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। मौसम में बदलाव की यह मार कई रूपों में सामने आती है। इससे गरमी बढ़ती है और चक्रवाती तूफान आते हैं।


तेजी से पिघलते ग्लेशियर भयंकर बाढ़ का कारण बन सकते हैं। समुद्र के बढ़ते जलस्तर की मार मछुआरों के जीवन संकट के रूप में सामने आएगा और तटीय क्षेत्रों पर खड़ी फसलें बर्बाद हो जाएंगी। इन विपरीत परिस्थितियों का असर खाद्यान्न उत्पादन पर भी पड़ता है। ग्लोबल ह्यूमेनेटोरियम फोरम, जिनेवा की एक रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के बदलाव का प्रभाव 32 करोड़ 50 लाख लोगों पर पड़ रहा है। इसमें से हर साल तीन लाख 15 हजार लोगों की जान भुखमरी, बीमारी और मौसम की मार से जा रही है। हालत ऐसी ही बनी रही तो निश्चित ही आने वाले दिन अधिक विनाशकारी साबित होंगे। ऐसे कहर के शिकार सबसे ज्यादा गरीब ही होते हैं। विपदा खत्म होने के बाद अपना बचाव करने में साधनहीनता के कारण गरीब इस त्रासदी ेके शिकार बन जाते हैं या फिर विपदा के दौरान ही काल-कवलित हो जाते हैं। यह कुदरती कहर और कुछ नहीं, बल्कि आधुनिक विकास का नतीजा है।


दुनिया के विकसित और विकासशील देश जिस तरह से धरती के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके अपने लिए ऐशो-आराम की सुविधाएं जुटा रहे हैं उससे वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड और मीथेन की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। इससे हमारे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा दुनिया की गरीब आबादी को ही झेलना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिग के प्रभावस्वरूप तटीय क्षरण हो रहा है जिससे खेतीयोग्य जमीनें कम हो रही हैं। भारत, बांग्लादेश और नेपाल के वन पर्यावरण बदलाव की सर्वाधिक मार झेलने वाले स्थान बन गए हैं और यहां का स्थानीय समुदाय इन बदलावों का शिकार हो रहा है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण भारत के मैंग्रूव जंगलों वाले कई निर्जन टापू डूब गए हैं। विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि मैंग्रूव वनों के दक्षिण-पश्चिमी भाग के एक दर्जन से ज्यादा टापू वर्ष 2015 तक अपनी जमीन का औसतन 65 प्रतिशत हिस्सा खो देंगे। इससे भी खराब बात है कि नदी के मुहानों पर खारेपन की बदलती प्रवृत्ति से अच्छी किस्म की मछलियों की तादाद अत्यधिक घट गई है जिससे मछुआरा समुदाय खतरे में है। ओडिशा के तटीय क्षेत्रों पर नेशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स ऐंड पालिसी रिसर्च द्वारा किए गए शोध में पर्यावरण के कारण होने वाली प्राकृतिक विभीषिका का एक और आयाम सामने आया है। इससे पता चलता है कि समुद्रतटीय जिलों में सूखे की तीव्रता बढ़ गई है। स्थिति की विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने में कोई योगदान न करने वाले लोगों पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ रहा है।


विश्व बैंक के एक अधिकारी के अनुसार चिंता का बड़ा कारण यह है कि पर्यावरण बदलाव से सूखा और बाढ़ की समस्या और गहरा जाएगी। इससे कृषि पैदावार में कमी आएगी तथा खाद्य पदार्थो की महंगाई बढ़ेगी। आज ज्यादातर देश खाद्य महंगाई की समस्या से जूझ रहे हैं। भारत पर इसका खतरा सर्वाधिक है, क्योंकि मध्यम व निम्न आय वर्ग समूहों के लोग अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करते हैं। इससे देश की आर्थिक स्थिति प्रभावित होगी। जनसंख्या वृद्धि नगरीकरण, वैश्वीकरण, भूमि उपयोग की अकुशल योजनाएं, देश में आपदा प्रबंधन की पूर्व तैयारी आदि की त्रुटियों के कारण जान-माल व आर्थिक समृद्धि पर खतरा बढ-चढ़कर दिखाई दे रहा है। हर वर्ष आपदा के दौरान होने वाले नुकसान को कम करने के प्रयास सरकार और जनता दोनों की तरफ से होते हैं, पर बार-बार आने वाली बाढ़, सूखा व आगजनी की घटनाएं, सिंचाई उपायों की अपर्याप्तता के कारण आम आदमी पर जाोखिम बढ़ता जा रहा है जबकि इनसे मुकाबला करने की आम लोगों ताकत विभिन्न वजहों से लगातार कम हो रही है।


निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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