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संकीर्ण दुनिया में कैद भाजपा

जागरण मेहमान कोना
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लगता है भारतीय जनता पार्टी के भाग्य में डूबना लिखा है। बढ़ते घोटालों के कारण भाजपा को मौका मिल रहा था। संसद में उसका प्रदर्शन बेहतर था। पार्टी का युवा नेतृत्व दमखम वाला और अर्थपूर्ण दिख रहा था, लेकिन पार्टी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जो लोग हावी रहा करते थे, उन लोगों ने इसे फिर से पुरानी स्थिति में ही लौटा दिया है। पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने धर्मनिरपेक्षता के सवाल को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पंगा लिया और फिर संघ ने हिंदुत्व कार्ड खेल दिया। दोनों ने मिलकर भाजपा के सत्ता में लौटने की संभावनाओं को मटियामेट कर दिया। जिस व्यक्ति पर गुजरात दंगों का दाग लगा हुआ है उसे भारत के अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जा सकता और न ही संस्कृति के झूठे पर्दे में हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों के असली चेहरे को छुपाया जा सकता है। भाजपा को 2009 से सबक लेना चाहिए। उस वक्त वह जीत के करीब थी, लेकिन अंत में कांग्रेस से पराजित हो गई। कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल नए वोटरों के मन-मिजाज को नहीं समझ पा रहे। इन वोटरों में अधिकांश युवा हैं। ये उदार सोच वाले हैं तथा राजनीति के साथ धर्म के घालमेल से इन्हें नफरत है। यह सच है कि कुछ राज्यों में अंध क्षेत्रवाद अपना सिर उठा रहा है। कुछ राज्यों में अंध क्षेत्रवाद जाति और समुदाय से जुड़ा हुआ है। उन मामलों में जहां धर्मनिरपेक्षता की जरूरत है, नीतियां बनाते वक्त केंद्र दुविधा में फंसा दिखाई देता है। इसी के कारण अंध क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिल रहा है।


जमीनी स्तर से बहुत कम फीडबैक मिल रहा है और नई दिल्ली सत्ता पर एकाधिकार जमाने में जुटी है। सरकार इस बात को समझने में नाकामयाब रही है कि विकेंद्रीकरण से राज्यों में जनता का हौसला बढ़ेगा। पिछले कुछ वर्षो में क्षेत्रीय आकांक्षाएं काफी बढ़ी हैं और स्थानीय लोग इस विश्वास से लबरेज हैं कि वे अपनी समस्याओं को खुद दूर कर सकते हैं। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को चुनावी कामयाबी मिली। अगर ये क्षेत्रीय पार्टियां बेहतर प्रशासन नहीं भी दे पाती हैं तो भी राष्ट्रीय पार्टियों को नहीं अपनाएंगे। वे देख चुके हैं कि ये पार्टियां उन्हें बार-बार निराश करती रही हैं। ऐसी स्थिति में भारत की अवधारणा और पीछे धकेल दी जाएगी। कुछ इलाकों में उग्रवादी एवं अलगाववादी जाति और समुदाय की पहचान को लेकर आंदोलन कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लगेगा कि अखिल भारतीय राजनीति के चक्कर में उन्हें कोई जगह नहीं मिलेगी। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि नई दिल्ली हालात से कैसे निपटती है? केंद्र-राज्य संबंधों पर बना सरकारिया आयोग पुराना पड़ चुका है। इसकी रिपोर्ट दो दशक पहले आई थी। अगर उस वक्त इसकी सिफारिशों को लागू कर दिया गया होता तो शायद आज राज्यों की ओर से अधिक अधिकार की मांग नहीं उठती, लेकिन अब केंद्र को अपने हिस्से की सूची में कटौती करनी है। यह काम उसे अपनी स्वेच्छा से या फिर संविधान में संशोधन के जरिये करना होगा।


प्रतिरक्षा, विदेश, मुद्रा और वित्तीय योजना को छोड़कर बाकी कोई विषय उसे अपने पास नहीं रखना चाहिए। एक बार विकेंद्रीकरण हो जाए, तो फिर यह पक्का करना होगा कि वह राज्यों की राजधानी से जिला और फिर पंचायत स्तर तक पहुंचे, ताकि शासन में जनता की सीधी भागीदारी हो सके। ऐसा करने में दोनों मुख्य पार्टियों, कांग्रेस एवं भाजपा तथा वामदलों को परेशानी हो सकती है। भाजपा के सामने मुश्किलें ज्यादा हैं, क्योंकि अनेक राज्यों में उसकी सरकारें हैं। मोदी को छोड़ भी दें तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं। इन सबका कद इतना बड़ा है कि इन्हें काबू में रखना मुश्किल भरा काम है। दोनों पार्टियों के सामने 2014 के चुनाव को लेकर भारी मुश्किलें हैं। सबसे बड़ी समस्या तो शीर्ष पद के लिए उम्मीदवार का चयन करना है। भाजपा को देखें तो वह पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को मनाने में जुटी हुई है। पार्टी को ठेंगा दिखाकर वह राजनीतिक हाशिये पर चली गई हैं। इस मोर्चे पर कांग्रेस के सामने नाममात्र की परेशानी है। सोनिया गांधी के पास पूरा अधिकार है। फिर यह भी तय हो चुका है कि उनके बेटे राहुल गांधी को नंबर दो बनाया जाना चाहिए। भाजपा को प्रादेशिक नेताओं के साथ की परेशानियों को निपटाने में संघ की ज्यादा से ज्यादा मदद की जरूरत पड़ेगी। इस बात को महसूस कर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कह दिया नरेंद्र मोदी के पास प्रधानमंत्री बनने की तमाम योग्यताएं हैं।


हालांकि उनकी इस घोषणा से स्वाभाविक तौर पर राजग का प्रमुख सहयोगी जनता दल (यू) गुस्से में है। जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव ने कहा है कि अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनते हैं तो उनकी पार्टी भाजपा के नेतृत्व वाले राजग से हट जाएगी। संघ प्रमुख भागवत ने सवाल किया है कि हिंदूवादी प्रधानमंत्री को लेकर परेशानी क्या है? यह सवाल खुद-ब-खुद बता देता है कि भाजपा किस तरह अपनी ही संकीर्ण दुनिया में कैद है और पंथनिरपेक्ष भारत की वास्तविकता स्वीकार करने को तैयार नहीं है। भाजपा पहले से ही अंदर से बंटी हुई है। इस सवाल पर उलझन से उसकी मुश्किलें और बढ़ गई हैं। पार्टी इस बात को महसूस करती है कि सांप्रदायिक एजेंडे के साथ देश पर शासन नहीं किया जा सकता। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसे महसूस किया था। वह हमेशा अपनी उदारवादी छवि को ही आगे रखते थे, लेकिन अब भाजपा की समस्या यह है कि उसके पास वाजपेयी के कद का कोई नेता नहीं है, जो संघ के दबाव को झेलने की ताकत रखता हो।


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प्रख्यात स्तंभकार हैं


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