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एकल परीक्षा का सही हल

जागरण मेहमान कोना
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प्रवेश परीक्षा का विवाद सुलझ जाने के बाद आइआइटी को आत्मविश्लेषण की सलाह दे रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार

29 जून को सभी आइआइटी की सर्वोच्च संस्था आइआइटी परिषद की बैठक में नए फार्मूले पर सहमति हो जाने के बाद एक महीने से चल रहे आइआइटी प्रवेश परीक्षा विवाद को सुलझ गया माना जाना चाहिए। विवाद की शुरुआत मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की पूरे देश में इंजीनियरिंग के लिए एकल प्रवेश परीक्षा करवाने की योजना से हुई। वर्तमान में इंजीनियर बनने के लिए आइआइटी/जेईई, एआइईई, बीआइटी, एएमयू अलीगढ़, बीएचयू बनारस आदि के अलावा विभिन्न राज्यों और डीम्ड विश्वविद्यालयों की अपनी-अपनी प्रवेश परीक्षाओं को मिलाकर 30 से ज्यादा प्रवेश परीक्षाएं हो जाती हैं। इतनी परीक्षाओं को देते-देते विद्यार्थी पस्त हो जाते हैं। समय, धन, ऊर्जा की बर्बादी अलग से होती है। अभिभावक भी परेशान होते हैं। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सीएनआर राव ने गहरी चिंता जताते हुए कहा कि इतनी सारी परीक्षाओं में उलझे विद्यार्थियों की अधिकांश ऊर्जा एवं सर्जनात्मकता एक तरह से नष्ट हो जाती है। उन्होंने मांग की कि उच्च शिक्षा के सभी पाठ्यक्रमों में अमेरिकी मॉडल की ही तरह एक राष्ट्रीय परीक्षा कराई जाए।


विज्ञान और प्रौद्योगिकी सचिव टी. रामासामी की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने भी इंजीनियरिंग की अनगिनत परीक्षाओं की जगह एक कॉमन इंजीनियरिंग टेस्ट का सुझाव दिया है। इसी परिप्रेक्ष्य में पूरे देश में एक इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा लेने का निर्णय लिया गया था, जिसका कुछ आइआइटी संस्थानों, आइआइटी शिक्षकों और पूर्व छात्रों ने विरोध करना शुरू किया कि यह न केवल आइआइटी की स्वायत्तता पर हमला है, बल्कि इससे आइआइटी का स्तर भी गिरेगा। अंतिम सहमत फार्मूले में यह तय किया गया कि आइआइटी की प्रवेश परीक्षा के दो चरण होंगे- मेन और एडवांस। मेन परीक्षा एआइईई की तर्ज पर होगी, जो सभी एनआइटी, आइआइआइटी और अन्य केंद्रीय संस्थानों, डीम्ड विश्वविद्यालयों आदि में प्रवेश के लिए मान्य होगी। अनेक राज्य भी इसमें शामिल होने के लिए तैयार हैं। यह नि:संदेह स्वागत योग्य है। मेन परीक्षा को पास करने वाले शीर्ष डेढ़ लाख बच्चे आइआइटी एडवांस की परीक्षा में बैठ सकेंगे। इसमें प्राप्त अंकों के आधार पर ही आइआइटी के लिए मेरिट बनेगी। बारहवीं के रिजल्ट को लेकर यह सहमति हुई कि आइआइटी एडवांस में उतीर्ण उम्मीदवारों को अपने-अपने बोडरें के शीर्ष 20 पर्सेटाइल में भी आना होगा अर्थात एक बच्चे को आइआइटी में प्रवेश लेने के लिए अपनी बोर्ड परीक्षा (राज्य/सीबीएसई) के शीर्ष 20 प्रतिशत विद्यार्थियों में भी स्थान बनाना होगा। इस प्रावधान के पीछे यह लक्ष्य है कि बच्चे अब बारहवीं की पढ़ाई के प्रति भी गंभीर रहेंगे और कोटा-कानपुर टाइप के कोचिंग के धंधे पर रोक लग सकेगी।


हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि इससे कोचिंग रुक पाएगी। कुछ अन्य अहम मुद्दे हैं जिन पर अकादमिक जगत या मीडिया में कोई चर्चा नहीं हुई। एक तो आइआइटी शिक्षकों का यह प्रचार सही नहीं है कि प्रस्तावित सुधारों से आइआइटी का स्तर गिरेगा और उनकी स्वायत्तता छिन जाएगी। कपिल सिब्बल ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि अंतिम निर्णय आइआइटी काउंसिल को ही लेना है, जो उसने लिया भी। दूसरे, जिस उच्च स्तर और श्रेष्ठता या विश्व भर में अपना डंका बजने की बात का बखान किया जा रहा था उसकी कलई इस तथ्य से खुल जाती है कि ग्लोबल रिसर्च यूनिवर्सिटी प्रोफाइल संस्था, जो विश्व के 500 सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग करती है, की 2011 की सूची में सिर्फ दो आइआइटी-दिल्ली और खड़गपुर ही जगह बना पाए, वह भी 400 से 500 के बीच। इस रैंकिंग में तीसरा भारतीय संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर (300-400 में) था, जबकि विकासशील देशों में ही चीन के 35, ब्राजील के 7, दक्षिण अफ्रीका के 3 और यहां तक कि छोटे से देश सऊदी अरब के भी दो संस्थान इनमें शामिल हैं। आइआइटी संस्थानों को इस संदर्भ में बहुत गंभीरता से आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता है, ताकि बयानबाजी से परे जाकर सचमुच विश्व स्तर पर वे झंडा फहरा सकें। एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है कि जिन उद्देश्यों के लिए आइआइटी संस्थानों की परिकल्पना की गई थी, क्या वे पूरे हुए हैं? अपवादों को छोड़ दें तो इन आइआइटी ने राष्ट्र निर्माण में कोई बड़ा योगदान नहीं दिया। कोई बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि या अविष्कार इन आइआइटी ने किया हो, ऐसा देखने में नहीं आता।


अधिकांश आइआइटी छात्र तो अमेरिका जाकर वहां के लिए योगदान करते रहे हैं या भारत में मैनेजमेंट आदि की शिक्षा लेकर शुद्ध व्यवसाय के क्षेत्र में उतर गए हैं, शोध और अनुसंधान को जैसे छोड़ ही दिया है, यद्यपि यह ठीक है कि कई बार उनको भारत में आधारभूत संरचना और अन्य सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। यह ठीक है कि सरकार आइआइटी छात्रों और प्रोफेसरों के लिए अधिकतम बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराए, लेकिन इनके साथ-साथ आइआइटी को भी अपने दृष्टिकोण और रुझान में परिवर्तन करते हुए अपने पाठ्यक्रम और शोध को देश की आवश्यकताओं और विकास से जोड़कर डिजाइन करना होगा। हाल में मेडिकल डॉक्टरों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि अमेरिका जाकर उच्च अध्ययन करने से पहले उन्हें एक बांड भरना पड़ेगा कि वे स्वदेश वापस आकर काम करेंगे अन्यथा उन्हें अमेरिका में प्रैक्टिस नहीं करने दी जाएगी। कुछ ऐसा ही बांड आइआइटी छात्रों के साथ भी होना चाहिए कि अध्ययन के उपरांत कम से कम पांच वर्ष देश में कार्य करेंगे, जिससे देश के विकास में वे योगदान कर सकें।


आज बड़ी संख्या में लोग उच्च शिक्षा के लिए पैसा खर्च करने के लिए तैयार हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार कोटा, कानपुर, बेंगलूर, दिल्ली, पटना, बोकारो आदि में चल रहे कोचिंग का कुल वार्षिक व्यवसाय 50,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। इसके अतिरिक्त विदेश जाकर अध्ययन करने वाले छात्रों का वार्षिक व्यय 100,000 करोड़ से ज्यादा है। इस परिप्रेक्ष्य में जरूरी है कि सरकारी क्षेत्र में नए संस्थानों के अतिरिक्त प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप के तहत पर्याप्त संख्या में उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान खोले जाएं, जहां अधिक फीस ली जा सकती है। यहां यह प्रावधान जरूर हो कि कम से कम 25 फीसदी सीटें कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित हों जो निशुल्क हों या सरकारी दर पर फीस दी जाए। नीति नियामक इन सुझावों पर ध्यान दें तो देश का कायाकल्प होने में देर नहीं लगेगी।


लेखक डॉ. निरंजन कुमार दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं

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